आरक्षण हमारी राजनीति का एक ऐसा हिस्सा रहा है जिसके सहारे सत्ता को पाने का खेल चलता रहा है। एक अहम मोड़ तब आया था जब 90 के दशक में विश्वनाथ सिंह ने बतौर प्रधानमंत्री मंडल कमीशन को लागू किया था। तब उसके विरोध में पूरा देश जल उठा था। इधर कुछ समय से आरक्षण पर फिर से सियासत के तेज हो गई है। जिस आरक्षण का अब तक सवर्ण विरोध करते रहे हैं, अब उसे पाने के लिए सड़कों पर हैं। 6 सितंबर को उन्होंने अपने समर्थन में भारत बंद रखा। अब तक आरक्षण के विरोध में आवाज बुलंद करने वाले सवर्ण आरक्षण के पक्ष में उतरे कि उन्हें भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिले।

 

गौरतलब है कि मोदी सरकार के लिए निकट चुनावों में सवर्ण आरक्षण की मांग घातक सिरदर्द बनती जा रही है। इस मांग ने हार्दिक पटेल जैसों को जन्म दिया। जिन्हें चुनाव लड़ने की उम्र दे पहले ही नेता मान लिया गया। हार्दिक पटेल 28 अगस्त से ही अनशन पर हैं। मांग है कि किसानों का कर्ज माफ किया जाए और पाटीदारों को आरक्षण मिले। संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान ने बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा की नैया डुबोने में अहम भूमिका निभाई थी। 17 से 19 सितंबर तक दिल्ली में संघ प्रमुख मोहन भागवत का संवाद कार्यक्रम है। उसमें इस बाबत अपना पक्ष शायद नए ढंग से रखें।

असल में एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को संसद में पलटकर पहले वाली स्थिति बहाल करने के बाद से ही देश के सवर्णों में इसे लेकर नाराजगी देखी जा रही है। मध्य प्रदेश से लेकर बिहार तक में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को बनाए रखने की मांग करते हुए इसे काला कानून बता रहे हैं। कहा जा रहा है कि सवर्ण आरक्षण की आड़ में ओबीसी वोट बैंक साधने की कोशिश की जा रही है। एससी/एसटी एक्ट को पुराने स्वरूप में रखने के लिए संसद में विधेयक लाए जाने के बावजूद विपक्षी खेमे ने राजनीतिक लाभ लेने के मकसद से इस बात को हवा दी कि भाजपा दलित विरोधी है। दो अप्रैल को भारत बंद से हुई व्यापक हिंसा को विपक्षी दलों ने भुनाने की कोशिश की।

यह बात जरा समझने की है कि 1990 की तरह आरक्षण एक बार फिर से बड़ा चुनावी मुद्दा बनने जा रहा है। हालांकि वीपी सिंह से पहले ही 1882 में समाज सुधारक ज्योति फुले ने अंग्रेज सरकार से सरकारी नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की मांग की। 1932 में अंग्रेजों द्वारा सरकारी नौकरी में विदेशियों को प्राथमिकता के खिलाफ त्राणकोर में एक बड़ा आंदोलन हुआ था। लेकिन 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पुनः पैक्ट में एसटी के लिए अलग निर्वाचक क्षेत्र का प्रस्ताव रखा।

अगले लोकसभा चुनाव में आरक्षण का मुद्दा बनना तय है। लोकसभा के पहले तीन प्रदेश जहां भाजपा की सरकार है, वहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। वहां आरक्षण का मुद्दा भाजपा के लिए तलवार की धार पर चलने सरीखा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीनों ही प्रदेशों में सवर्णों की तादात काफी है। विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में पहले से ही भाजपा की जीत के शिल्पकार अमित शाह की हालत खराब है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी नोटबंदी और राफेल के वजह से मनोबल थोड़ा कमजोर हुआ है। सारा खेल मोदी मैजिक पर ही टिका हुआ है। आगे तक बतौर प्रधानमंत्री मोदी देश की जनता को नोटबंदी और जीएसटी के अलावा कुछ और खास नहीं दे पाए हैं। ऐसे में आरक्षण का मुद्दा भाजपा के लिए मुसीबत बन सकता है। यह उसके लिए गले की हड्डी बन गया है। जिसे न निगलते बन रहा है, न ही उगलते।

Leave a Comment

Your email address will not be published.

You may also like

MERA DDDD DDD DD