पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-113
पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना के नाती उद्योगपति नुस्ली वाडिया का धीरूभाई संग छत्तीस का आंकड़ा रहा करता था। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वाडिया खुलकर रिलायंस की मुखालिफत पर उतर आए। उन्होंने ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ से जुडे चार्टेड एकाउंटेंट एस. गुरुमूर्ति के साथ मिलकर रिलायंस की आर्थिक गतिविधियों में बडे़ स्तर की हेरा-फेरी को उजागर कर रिलायंस समूह के शेयर धारकों के मध्य घबराहट पैदा कर दी, जिस कारण रिलायंस के शेयरों में गिरावट दर्ज होने लगी। तब वित्तमंत्री ने रिलायंस की गतिविधियों का परीक्षण एक विशेषज्ञ समिति से कराए जाने का निर्णय लिया।’
धीरूभाई अम्बानी और उनके आर्थिक साम्राज्य के लिए अब जीवन-मरण का प्रश्न आ खड़ा हुआ था। कांग्रेस के भीतर अम्बानी के शुभचिन्तकों की भारी भीड़ थी, जिन्हें कभी-न-कभी अम्बानी ने उपकृत किया था। अब धीरूभाई ने अपने इन मित्रों की मदद से प्रधानमंत्री राजीव गांधी को साधने के प्रयास तेज कर दिए, लेकिन राजीव गांधी अपने वित्तमंत्री की निष्ठा के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे। इसके चलते अम्बानी को तत्काल कोई खास राहत नहीं मिल पा रही थी। अब अपनी रणनीति बदलते हुए धीरूभाई राजीव और वी.पी. सिंह के मध्य दरार पैदा करने की दिशा में काम करने लगे थे। जनवरी, 1987 में कुछ ऐसा हुआ, जिसने राजीव और वी.पी. सिंह के मध्य दूरी पैदा करने की नींव रख दी। यही नींव आगे चलकर ऐसी खाई में बदल गई, जिसने राजीव गांधी की स्वच्छ छवि को गर्त में पहुंचाने का काम कर दिखाया। जनवरी, 1987 में यह खबर सामने आई कि वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक अमेरिकी जासूसी कम्पनी फेयरफैक्स डिटेक्टिव एजेंसी को राजीव के करीबी मित्र और संसद सदस्य अमिताभ बच्चन के भाई अजिताभ बच्चन की विदेशों में सम्पत्ति की जांच करने को कहा है, जबकि असल बात यह थी कि वित्तमंत्री ने इस एजेंसी को रिलायंस समूह की बाबत जांच करने के लिए नियुक्त किया था। बकौल मिन्हाज मर्चेंट, रिलायंस से वफादारी रखने वालों की वित्त मंत्रालय में भरमार थी। ऐसों के जरिए ही यह गुप्त जानकारी धीरूभाई तक पहुंची, जिससे सतर्क होकर दो जाली पत्रों को तैयार किया गया। ये पत्र कथित तौर पर फेयरफैक्स के कर्मचारी गार्डेन मैक द्वारा ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ से जुडे़ एस. गुरुमूर्ति को भेजे गए थे, जिनमें बताया गया था कि वित्तमंत्री वी.पी. सिंह ने अजिताभ और अमिताभ बच्चन की विदेशों में सम्पति की जांच के लिए इस एजेंसी को कहा है। मर्चेंट के अनुसार- ‘…जाहिर तौर पर किसी ने जाली पत्र तैयार किए थे। एक्सप्रेस खेमे का मानना है कि ऐसा अम्बानी ने किया। चूंकि फेयरफैक्स को मुख्य रूप से रिलायंस की जांच करने के लिए नियुक्ति किया गया था तो जांच के प्रभावित होने से सबसे अधिक लाभ अम्बानी को ही पहुंचना तय था।’
राजीव गांधी पहले से ही विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा उद्योगपतियों के खिलाफ शुरू किए गए ‘रेड राज’ के चलते भारी दबाव में थे। वी.पी. सिंह ने कालेधन के खिलाफ बड़ी मुहिम छेड़कर उद्योगजगत को सहमाने का काम कर दिखाया था। उनके वित्तमंत्रित्वकाल में 5000 से अधिक कम्पनियों पर छापेमारी कर 500 करोड़ की कर चोरी का पता लगाया गया था। 1986 में वित्त मंत्रालय की एजेंसियों ने राजीव गांधी के करीबी उद्योगपति ललित थापर के समूह पर छापेमारी की। इस छापेमारी के दौरान थापर समूह द्वारा विदेशों में बड़ी मात्रा में धन रखे जाने के पुख्ता प्रमाण मिले जिसके चलते थापर को गिरफ्रतार कर लिया गया। प्रधानमंत्री के करीबी उद्योगपति की गिरफ्तारी ने भारतीय उद्योगजगत को डरा दिया। देश के सबसे प्रतिष्ठित टाटा समूह तक को नहीं बख्शा गया। टाटा समूह ने विदेशों में धन रखे जाने की बात स्वीकारी, जिसने वी.पी. सिंह की प्रतिष्ठा को रातोंरात आसमान पर पहुंचाने का काम कर दिया था। अंततः राजीव गांधी ने 23 जनवरी, 1987 को वित्त मंत्रालय से वी.पी. सिंह को रुख्सत कर उन्हें रक्षामंत्री बना दिया। तब देशभर में राजीव के इस निर्णय की खासी आलोचना हुई थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह की छवि एक बेहद ईमानदार वित्तमंत्री के तौर पर स्थापित हो चुकी थी। उनके दो बरस के कार्यकाल में राजस्व के साथ-साथ अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में भारी बढ़ोतरी और भ्रष्टाचार के आरोपी उद्योगपतियों पर कठोर कार्यवाही ने उन्हें जनता की नजरों में नायक स्थापित करने का काम किया था। राजीव गांधी के जीवनीकार निकोलस न्यूजेंट के अनुसार- ‘राजीव का बार-बार यह कहना कि वी.पी. सिंह को वित्त मंत्रालय से हटाए जाने के पीछे उद्योगपतियों का दबाव कारण नहीं था, बहुत विश्वसनीय नहीं था। वी.पी. सिंह ने एक शक्तिशाली और प्रभावशाली मंत्री के रूप में अपनी पहचान बनाई थी… सर्वेक्षण एजेंसी ‘मार्ग’ द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण, जिसे ‘इंडिया टुडे’ ने प्रकाशित किया था, अनुसार बहुमत का मानना था कि वी.पी. सिंह को हटाया जाना उन औद्योगिक घरानों की जीत थी जो ऐसा चाह रहे थे। अधिकांश ने इस सर्वेक्षण में इस पर भी आशंका जताई थी कि अब वित्त मंत्रालय का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान भी पहले के समान गतिमान नहीं रह पाएगा।’
इसी समयकाल में राष्ट्रपति भवन से राजीव गांधी सरकार के समक्ष एक बड़ा संकट पैदा होने लगा था। इंदिरा गांधी के अति विश्वस्त और करीबी राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को राजीव गांधी ने नजरअंदाज कर बेहद नाराज कर दिया था। जैल सिंह की नाराजगी संत हरचंद्र सिंह लोंगोवाल के साथ किए गए समझौते के दौरान शुरू हुई। प्रधानमंत्री ने इस समझौते को लेकर राष्ट्रपति से किसी प्रकार का सलाह-मशविरा करना उचित नहीं समझा था। चूंकि पंजाब राष्ट्रपति का गृह प्रदेश था और वहां की राजनीति के साथ उनका गहरा रिश्ता था, इसलिए जैल सिंह ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना डाला। 1987 के बजट सत्र की शुरुआत में राष्ट्रपति के अभिभाषण को लेकर भी दोनों में मतभेद उभरे। राष्ट्रपति सरकार द्वारा लिखित अभिभाषण में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला की प्रशंसा किए जाने के विरोध में थे, लेकिन राजीव गांधी लोंगोवाल समझौते में बरनाला के योगदान के चलते उनके प्रति कृतज्ञ थे। निकोलस न्यूजेंट ने अपनी पुस्तक में लिखा है- ‘पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह राजीव द्वारा 1987 में बजट सत्र के दौरान राष्ट्रपति के अभिभाषण में पंजाब के मुख्यमंत्री बरनाला की प्रशंसा करने के लिए दबाव बनाने से नाराज थे। यह वह समय था, जब बरनाला को पंजाब विधानसभा में बहुमत का समर्थन नहीं था। ‘‘मैंने तीन बार राजीव से कहा कि मुझसे बरनाला की प्रशंसा मत करवाओ, लेकिन राजीव नहीं माने।’’ तीन महीने बाद ही प्रधानमंत्री ने बरनाला सरकार को बर्खास्त करने और पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश राष्ट्रपति से कर दी। जैल सिंह कहते हैं- ‘मुझे कोई कारण नजर नहीं आया, जिसके आधार पर मैं बहुमत हासिल कर चुकी सरकार को बर्खास्त कर दूं।’
राष्ट्रपति राजीव सरकार से अन्य कारणों के चलते भी बेहद नाराज रहने लगे थे। उनकी विदेश यात्राओं, यहां तक कि देश के राज्यों की यात्राओं को भी केंद्र सरकार अनुमति देने से कतराने लगी थी। राजीव गांधी ने अपने विदेशी दौरों के पहले अथवा बाद में राष्ट्रपति से मुलाकात करने की परम्परा का निर्वहन करना भी धीरे- धीरे बंद कर दिया था। जैल सिंह तब बेहद आहत हो उठे थे, जब 1985 में कांग्रेस सांसद के.के. तिवारी ने संसद में यह कहकर सनसनी फैला दी कि ‘राष्ट्रपति के रिश्ते सिख आतंकियों से हैं और दो आतंकी राष्ट्रपति भवन में मेहमान रह चुके हैं।’
1986 में राष्ट्रपति की निष्ठा पर संदेह करने वाले तिवारी को राजीव गांधी ने अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर ज्ञानी की नाराजगी बढ़ाने का काम किया था। आगे चलकर उनकी इस नाराजगी का भारी असर देखने को मिलता है। इस पर चर्चा से पहले वापस लौटते हैं विश्वनाथ प्रताप सिंह पर, जिन्हें वित्त मंत्रालय से हटाकर रक्षामंत्री बनाना राजीव गांधी को बहुत महंगा पड़ा था। रक्षामंत्री बनने के साथ ही विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक पनडुब्बी खरीद के मामले में बड़ी कमीशनखोरी की आशंका जताते हुए जांच के आदेश देकर अपनी ही सरकार और कांग्रेस पार्टी के सामने नया संकट पैदा कर दिया। भारतीय नौ सेना के लिए पनडुब्बी खरीदे जाने का प्रस्ताव फरवरी, 1979 में जनता पार्टी की सकरार के समय लिया गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने समुद्र में 350 मीटर की गहराई तक गोता लगाने की क्षमता रखने वाली चार पनडुब्बी खरीदे जाने के लिए सैद्धांतिक सहमति दी थी। जनता सरकार ने जिन तीन पनडुब्बी निर्माता कम्पनियों को इस खरीद के लिए चिन्हित किया, उनमें सबसे पहले स्थान पर स्वीडिश पनडुब्बी ‘45-कोकक्स’, दूसरे स्थान पर इटली में निर्मित ‘सोरो’ और तीसरे स्थान पर जर्मनी की ‘एचडी डब्ल्यू’ पनडुब्बी शामिल थी।
1980 में देश की सत्ता बदलने के बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में दिसम्बर, 1981 में सौदा जर्मन कम्पनी एचडीडब्ल्यू को मिल गया। 465 करोड़ के इस रक्षा सौदे में एचडीडब्ल्यू द्वारा छह वर्ष के भीतर भारत को अत्याधुनिक चार पनडुब्बियों को दिया जाना था। 1987 में दो और पनडुब्बी खरीदे जाने की बात इसी कम्पनी से चल रही थी। इसी दौरान वी.पी. सिंह ने बतौर रक्षामंत्री इसकी कीमत कम कराने की नीयत से पश्चिमी जर्मन में भारत के तत्कालीन राजदूत जे.सी. अजमानी को कम्पनी के साथ बातचीत करने के निर्देश दिए। 24 फरवरी, 1987 को रक्षामंत्री के सामने एक गोपनीय भाषा में लिखा गया टेलीग्राम रखा गया, जिसे पश्चिम जर्मनी में भारतीय राजदूत अजमानी ने भेजा था। इस टेलीग्राम ने एक ऐसा नया बवंडर पैदा करने का काम किया, जिसकी चपेट में आए वी.पी. सिंह और राजीव गांधी के रास्ते जुदा हो गए। अजमानी ने रक्षामंत्री को सूचित किया था कि एचडीडब्ल्यू कम्पनी किसी भी स्थिति में कीमतें कम करने को तैयार नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा भारत के साथ चार पनडुब्बी खरीदे जाने के सौदे में 7 प्रतिशत कमीशन बिचौलियों को दिया जा चुका है और आगे बेची जाने वाली दो पनडुब्बियों में भी बिचौलियों को कमीशन दिया जाना तय है। एचडीडब्ल्यू के साथ जब चार पनडुब्बी खरीदने का सौदा किया गया था, तब तक रक्षा सौदों में बिचौलियों (मिडिल मैन) पर पाबंदी नहीं थी। राजीव गांधी ने सत्ता संभालने के बाद ऐसे सौदों में बिचौलियों पर प्रतिबंध लगा दिया था। वी.पी. सिंह का तर्क था कि यह सौदा भले ही बिचौलियों पर पाबंदी लगाए जाने से पहले किया गया था, लेकिन पनडुब्बियों की डिलीवरी बाद में हुई थी और तब तक बिचौलियों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका था। इसलिए किसी भी प्रकार का कमीशन वी.पी. सिंह की नजरों में गैर-कानूनी था। उन्होंने 9 अप्रैल, 1987 को इस बाबत प्रधानमंत्री से सलाह-मशविरा किया। बकौल वी.पी. सिंह- ‘वह टेलेक्स संदेश प्रधानमंत्री को भी भेजा गया था, लेकिन मुझे लगा कि उन्हें यह जानकारी मेरे द्वारा भी दी जानी चाहिए। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैं आचर्श्यचकित हुआ, क्योंकि मैं उनसे इस विषय में मार्गदर्शन की उपेक्षा कर रहा था कि मुझे क्या कार्यवाही करनी चाहिए। मैंने कुछ देर तक इंतजार किया, लेकिन वे खामोश रहे। मैंने सोचा कि मैं प्रधानमंत्री से सवाल- जवाब तो कर नहीं सकता। मेरा कर्तव्य उन्हें सूचित करना था, जो मैंने कर दिया।’
वी.पी. सिंह ने प्रधानमंत्री को सूचित करने के बाद इस मामले की जांच के आदेश दे डाले थे। इतना ही नहीं, उन्होंने इस जांच की बाबत प्रेस को भी सूचित कर दिया। मामला सार्वजनिक होते ही राजनीतिक तूफान में बदल गया। विपक्षी दलों ने राजीव सरकार पर भ्रष्ट होने के आरोप लगाते देर नहीं लगाई। कांग्रेस भीतर भी वी.पी. सिंह के विरोधी सक्रिय हो गए- ‘वी.पी. सिंह द्वारा फेयरफैक्स जांच से नाराज चल रहे कांग्रेसियों के लिए एचडीडब्लू जांच अंतिम झटका समान थी। उनकी नजर में वी.पी. सिंह की ‘त्रुटि’ यह थी कि उन्होंने प्रधानमंत्री से मंजूरी लिए बगैर यह काम किया है …कांग्रेस भीतर उनके आलोचक उन पर खोजी प्रवृत्ति न छोड़ने का आरोप लगा उनके खिलाफ खडे़ हो गए। मंत्रिमंडल की बैठक में भी विश्वनाथ प्रताप सिंह को आलोचना की गई थी।’
तीन दिन बाद 12 अप्रैल को वी.पी. ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से अपना इस्तीफा दे दिया, जिसे प्रधानमंत्री ने तत्काल ही स्वीकार भी कर लिया। वी.पी. सिंह वित्तमंत्री के पद पर रहते हुए पहले से ही अपनी छाप एक बेहद ईमानदार मंत्री के तौर पर स्थापित कर चुके थे। उनका मंत्रिमंडल से इस्तीफा राजीव गांधी की बेदाग छवि को प्रभावित करने का कारण बनकर उभरा। तब अंग्रेजी दैनिक ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ ने वी.पी. सिंह के इस्तीफे पर टिप्पणी करते हुए लिखा था- ‘किसी भी प्रधानमंत्री ने खुद पर लग रहे गम्भीर आरोपों और संदेह की कभी ऐसी पुष्टि नहीं की, जैसा राजीव गांधी ने कर दिखाया है …वी.पी. सिंह को मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद अब राजीव पर लग रहे आरोपों को लेकर कोई संदेह नहीं बचता है।’

