असम, आंध्र प्रदेश, त्रिपुरा, महाराष्ट्र, बंगाल, तेलंगाना में ऐसी दो-दो घटनाएं और गुजरात एवं कर्नाटक में एक-एक घटना पिछले दो माह में सामने आई है।
  • 2018 में अब तक 21 लोग बच्चा चुराने के शक में लिचिंग के शिकार हुए।
  • अकेले ओडिशा में पिछले 30 दिनों में लिंचिंग की 15 घटनाएं हुई हैं, जिनमें कुल 28 लोगों के साथ मारपीट की गई।
  • महाराष्ट्र में बीते 25 दिनों में लिंचिंग की 14 घटनाओं में 9 मौतें हुई हैं और 60 लोग गिरफ्तार हुए हैं।
वर्ष 2015 में दादरी के बिसहड़ा गांव में गोमांस खाने की अफवाह ने अखलाक की जान ले ली थी। पिछले साल बल्लभगढ़ में चलती ट्रेन में जुनैद की भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर दी। इसी हफ्ते झारखंड में स्वामी अग्निवेश जैसी शख्सियत को भी भीड़ ने अपना निशाना बनाया। मॉब लिंचिंग की ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। पहले डायन बताकर महिलाओं को भीड़ जान से मार देती थी। वर्ष 2014 के बाद गौ हत्या, गौमांस खाने की अफवाहें मॉब लिंचिंग की वजह बनीं। इधर अब बच्चा चोरी की अफवाह में भीड़ इक्ट्ठा होती है और किसी की जान ले लेती है। सूचना तकनीक के इस युग में अफवाहें बहुत तेजी से फैल रही हैं। नए शोध बताते हैं कि मॉब लिंचिंग की घटनाएं सुदूर गांवों में भी तेजी से बढ़ रही हैं। जहां युवा अशिक्षित, बेरोजगार हैं, मगर सबके हाथों में अफवाहों का हथियार स्मार्ट फोन जरूर है।
भारत में पिछले कुछ वर्षों से मॉब लिंचिंग की घटनाएं पांव पसार चुकी हैं। ऊपर की कुछ घटनाएं इस नई बीमारी का डरावना चेहरा भर हैं। इसके बावजूद केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह संसद में इन घटनाओं पर सिर्फ चिंता जाहिर कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जा रहे हैं। एक न्यूज रिपोर्ट के मुताबिक साल 2015 से अब तक भीड़ देश में कुल 62 लोगों की हत्या कर चुकी है। पिछले दो महीनों में ही देश के आठ सूबों में कुल 20 लोगों की जानें ली गई हैं। एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक की रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों की चोरी के नाम पर हुई मॉब लिंचिंग के पिछले 15 मामलों में 27 हत्याएं हुई। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इनमें से किसी भी घटनास्थल के आस-पास भी पिछले तीन महीनों में बच्चा चोरी की कोई घटना नहीं हुई और ना ही ऐसा कोई शक ही सामने आया।
गौर करने वाली बात यह भी है कि पिछले साल तक भीड़ द्वारा जो हत्याएं की गईं उनमें से ज्यादातर गौ हत्या की अफवाहों के चलते हुईं। लेकिन पिछले एक साल से मॉब लिंचिंग की घटनाओं की मुख्य वजह अचानक बदल गई। अफवाह गौहत्या से बदलकर बच्चा चुराने की उड़ने लगी। इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010 से 2017 के बीच भीड़ द्वारा हिंसा या हत्या की 60 घटनाओं में सौ से ज्यादा लोग मारे गए। इनमें से 97 फीसदी घटनाएं 2014 के बाद हुईं। 25 जून 2017 तक की इन घटनाओं में मारे गए 25 लोगों में 21 मुस्लिम थे। लेकिन पिछले एक साल में मारे गए लोग किसी धर्म विशेष से नहीं हैं।
यह अब छुपी हुई बात नहीं रह गई है कि तमाम राजनीतिक दल, खास राजनीतिक विचारधाराओं से इत्तेफाक रखने वाले अलग-अलग लोग, कट्टरपंथी और बिना सोचे-समझे चीजों पर यकीन कर लेने वाले लोग अफवाहों और झूठी खबरों को फैलाने का काम करते हैं। पिछले दस सालों में गांवों में शिक्षा और रोजगार के अवसरों में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है जबकि इंटरनेट और सोशल मीडिया का प्रयोग तेजी से बढ़ा है। सोशल मीडिया पर अपने वक्त का बड़ा हिस्सा खर्च करने वाले बेरोजगार, अशिक्षित या अर्ध-शिक्षित युवाओं को झूठी खबरें, अफवाहें तैयार करने और फैलाने वाले तंत्र का हिस्सा बनाना आसान हो जाता है।
अब क्योंकि सोशल मीडिया, खासकर व्हाट्सएप जैसे इंस्टेंट मैसेजिंग एप्लिकेशंस इन झूठी खबरों और अफवाहों के फैलने और फैलाने का जरिया बन रहे हैं, तो जरूरी है कि इन पर कानूनी निगरानी बढ़ाई जाए। व्हाट्सएप ने हाल ही में ग्रुप एडमिन को फॉरवार्डेड मैसेज को फ्लैग करने की सुविधा देकर ऐसी घटनाओं पर लगाम लगाने की कोशिश की है। लेकिन कुछ जानकार मानते हैं कि यह कोई बड़ा बदलाव नहीं है। अब भी व्हाट्सएप पर भेजे गए मैसेज, तस्वीर या वीडियोज का स्रोत पता लगाना बेहद मुश्किल है। तस्वीरों और वीडियो को सोशल मीडिया पर डालते समय मैटाडेटा यानी शूट करने वाली डिवाइस और उसके स्थान आदि से जुड़ी जानकारी का हटा दिया जाना, एक मुख्य कारण है कि जिस कारण इनके स्रोत का पता लगाना लगभग नामुमकिन हो जाता है।
आम लोगों के इस तरह किसी की जान लेने पर उतारू भीड़ में बदलने के कई कारण माने जा रहे हैं। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण लोगों का प्रशासन और न्याय व्यवस्था में विश्वास का घटना है। कुछ लोग प्रशासन और न्यायपालिका का डर कम होना भी इसका कारण बताते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र में हुई घटना के बाद गिरफ्तार हुए 25 लोगों में से सिर्फ चार लोगों ने दसवीं तक की पढ़ाई की है, पांच लोग प्राथमिक स्तर पर स्कूल गए हैं और 15 लोग कभी स्कूल गए ही नहीं। गिरफ्तार हुए लोगों में से 15 लोग घटना के समय शराब के नशे में थे। इनमें अधिकतर लोग या तो दिहाड़ी मजदूर थे या बेरोजगार युवक थे। रिपोर्ट बताती है कि पिछले एक साल में हुई 27 में से 24 मौतें, सुदूर गांवों में हुई हैं। पुलिस के एक उच्चाधिकारी कहते हैं, ‘गांवों में अशिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी से जूझते लोगों में सरकारी तंत्र और समाज के खिलाफ ज्यादा गुस्सा देखने को मिलता है। यही दबा हुआ गुस्सा बिना चेहरे की भीड़ बनकर हिंसक रूप में सामने आता है।’
मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं के बाद सुप्रीम कोर्ट भी सख्त हुआ। एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को इससे संबंधित सख्त कानून बनाने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘कोई भी नागरिक अपने आप में कानून नहीं बन सकता है। लोकतंत्र में भीड़तंत्र की इजाजत नहीं दी जा सकती।’ इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 28 अगस्त को होगी।
लिंचिंग के नेचर और मोटिवेशन के सामान्य मर्डर से अलग होने के बावजूद भारत में इसके लिए कोई अलग से कानून मौजूद नहीं है। आईपीसी में लिंचिंग जैसी घटनाओं के विरुद्ध कार्रवाई को लेकर किसी तरह का जिक्र नहीं है। इन्हें सेक्शन 302 (मर्डर), 307 (अटेम्प्ट ऑफ मर्डर), 323 (जानबूझकर घायल करना), 147-148 (दंगा-फसाद), 149 (आज्ञा के विरुद्ध इकट्ठे होना) के तहत ही डील किया जाता है। सीआरपीसी के सेक्शन 223 में भी इस तरह के क्राइम के लिए उपयुक्त कानून के इस्तेमाल की बात कही गई है, पर साफ-साफ क्राइम के बारे में कुछ भी नहीं है।
‘सभ्य समाज के लिए चुनौती’
पूर्व डीजीपी और इंडियन पुलिस फाउंडेशन एंड इंस्टीट्यूट के चेयरमैन प्रकाश सिंह से बातचीत
मॉब लिंचिंग की घटनाओं में अचानक बढ़ोतरी क्यों हुई?
देखिए, इसके एक नहीं, बल्कि कई कारण हैं। सबसे महत्वपूर्ण सोशल मीडिया पर अफवाहों का उड़ना है। पिछले कुछ वर्षों में गरीब से गरीब लोगों के हाथों में भी स्मार्ट फोन आ गया है। इंटरनेट का डाटा बहुत सस्ता हो गया है। कम पढ़े लोग सोशल मीडिया की तस्वीरों और वीडियो में सही-झूठ का अंतर नहीं कर पाते हैं। जिस कारण वह उन झूठी तस्वीरों और वीडियो को देखकर आक्रोशित हो जाते हैं।
मॉब लिंचिंग किस के लिए चुनौती है?
लिंच हम सब के लिए चुनौती है। पुलिस और सरकार के लिए तो है ही। मगर सबसे बड़ी चुनौती भारत के सभ्य समाज के लिए है कि वे कैसे इन अफवाहों से अपने समाज को बचाते हैं। क्योंकि इसे सिर्फ सख्त कानून से नहीं निपट सकते। पुलिस बिना स्थानीय लोगों के सहयोग के इससे निपट नहीं सकती।
मगर सुप्रीम कोर्ट ने तो केंद्र और राज्य को सख्त कानून बनाने का निर्देश दिया है?
मैंने कहा सिर्फ सख्त कानून से इसे खत्म नहीं किया जा सकता। समाज को साथ लेकर ही इसे खत्म कर सकते हैं।
इसके कारणों में पुलिस और व्यवस्था के प्रति लोगों में गुस्सा भी बताया जाता है। क्या यह सही है?
हो सकता है। यदि ऐसा है तो उस गुस्से को शांत करना जरूरी है।
‘आक्रमकता पर अंकुश नहीं’
वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक एवं इंडियन साइकेट्रिक सोसाइटी के जनरल सेक्रेट्री डॉ. विनय कुमार से बातचीत
मॉब लिंचिंग के पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम करता है? 
हर व्यक्ति में कुछ न कुछ हिंसा होती है। यानी हर व्यक्ति हिंसक होता है। लेकिन हिंसक एनर्जी को चार तत्व कंट्रोल करते हैं। पहला, अपना विवेक, दूसरा सरकार, तीसरा कानून और चौथा धर्म। इन चार तत्वों से ही लोग अपने अंदर की आक्रमकता को दबाए रखते हैं। यदि इनमें से कोई एक भी तत्व लोगों की आक्रमकता को कंट्रोल करने के बजाए उसे हवा देता है तो मॉब लिंचिंग जैसी वारदात होती है।
वर्तमान समय में इन चार तत्वों में कौन इसे हवा दे रहा है?
सीधे तौर पर तो नहीं, मगर अप्रत्यक्ष रूप से सरकार लोगों की आक्रमकता को कंट्रोल नहीं कर पा रही है। कानून तो जो पहले था, वही आज भी है। इसके अलावा लोगों की व्यक्तिगत कुंठा भी आक्रमण की शक्ल ले रही है। यह कुंठा बेरोजगारी की हो सकती है। खाना न मिलने की हो सकती है। प्रमोशन की, सुविधाएं नहीं मिलने जैसी कुछ भी हो सकती है। इन्हें अपना कुंठा कहीं न कहीं निकालनी है। वह हिंसा के रूप में निकल रही है।
मॉब लिंचिंग के कारणों में बदलाव क्यों होता है?
मॉब लिंचिंग की घटनाएं हमेशा से होती रही हैं। यह कोई नया घटनाक्रम नहीं है। यह एक हथियार है। कारण में बदलाव अफवाह फैलाने वालो पर निर्भर करता है।

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