•                  संजय चौहान

 

उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में तकरीबन 500 से 2200 मीटर की ऊंचाई पर चीड़ के पेड़ पाए जाते हैं जिनकी पत्तियों को पिरूल कहा जाता है। इन्हें पहाड़ी इलाकों के लिए अभिशाप माना जाता है क्योंकि यह पत्तियां वनाग्नि का मुख्य कारण हैं। चीड़ की यह नुकीली पत्तियां जनवरी के महीने से ही जंगल में चादर की तरह बिछ जाती हैं और तापमान बढ़ते ही यह धधकने लगती हैं। लेकिन अब जंगल को दहकाने वाली इन पत्तियों से पहाड़ों पर महिलाओं का रोजगार लहलहाने लगा है। इन पत्तियों से खूबसूरत राखी से लेकर सजावटी सामान बन रहे हैं। हालांकि पहाड़ी लोगों के लिए यह नामुमकिन था लेकिन इसे मुमकिन कर दिखाया है उत्तराखण्ड की मंजू शाह ने जो आज पिरूल वुमेन के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुकी हैं

पिरूल से बनी टोकरियां दिखाती मंजू शाह

अगर जज्बा है तो कोई भी कार्य किया जा सकता है। ऐसा ही कुछ करके दिखाया है अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट के हाट गांव निवासी मंजू आर. शाह ने, जिन्होंने अपनी बेजोड़ हस्तशिल्प कला से पहाड़ के जंगल में बहुतायत मात्रा में पाए जाने वाले चीड़ के पत्तों (पिरूल) को आर्थिकी का जरिया बनाया। जिस कारण वे पूरे देश में पिरूल वुमेन के नाम से प्रसिद्ध हो रही हैं। 9 अगस्त 1984 को बागेश्वर के असों (कपकोट) गांव में किशन सिंह रौतेला और देवकी रौतेला के घर जन्मीं मंजू ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गांव से ही की जिसके बाद उन्होंने कपकोट से इंटरमीडिएट की शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत शोभन सिंह जीना कैम्पस से बीए, एम. बी. कॉलेज हल्द्वानी से एमए, भीमताल के जे. एन. कॉल इन्स्टीट्यूट से बीएड की डिग्री हासिल की। वर्ष 2009 में उनका विवाह मनीष कुमार शाह के साथ हुआ। इसके बाद वह अपनी ससुराल अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट के हाट गांव में आकर रहने लगीं। इसी दौरान उनकी मौसेरी बहन पूजा ने उन्हें साज सज्जा के सामान बनाने हेतु प्रेरित किया। बचपन से ही वेस्ट से बेस्ट बनाने का शौक रखने वाली मंजू ने इसके बाद वर्ष 2010 से पिरूल के उत्पाद बनाने शुरू कर दिए।

द्वाराहाट के लोगों का कहना है कि मंजू जब वह महज तीसरी कक्षा में पढ़ती थी तो वर्ष 1993 में उनके प्रधानाचार्य पिता किशन सिंह रौतेला का असमय निधन हो गया। उस समय मंजू बुरी तरह टूट गई थी, परंतु इतनी छोटी-सी उम्र में टूटे दुखों के इस पहाड़ ने न केवल उन्हें काफी मजबूत बनाया, बल्कि नन्हीं-सी उम्र में ही जिम्मेदारियों का बोझ उठाना भी सिखाया। यहीं कारण है कि वह आज अनेक महिलाओं की प्रेरणास्त्रोत बनकर उभरीं हैं।

ये है पिरूल (वुमेन) ‘मंजू शाह’
अल्मोड़ा जनपद के राजकीय इंटर कॉलेज ताड़ीखेत में प्रयोगशाला सहायक पद पर कार्यरत मंजू शाह आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। अपनी बेजोड़ हस्तशिल्प कला से उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई है। बेजोड़ हस्तशिल्प कला की वजह से मंजू शाह को पूरे देश में दर्जनों पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका है।

क्या कहती हैं मंजू शाह
अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए मंजू ने कहा कि पिरूल से मुझे पहचान दिलाने में गौरीशंकर कांडपाल जी की अहम भूमिका है। वह वही व्यक्ति हैं जिन्होंने वर्ष 2018 से लगातार मुझे इस काम को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। वह कहती हैं कि पिरूल (चीड़ की पत्तियां) पहाड़ों में हर जगह फैली हुई रहती हैं। इन्हें अंग्रेजी में पाइन नीडल कहा जाता है और इन्हें अपशिष्ट माना जाता है। यह जंगल की आग का सबसे बड़ा कारण है। इस पिरूल का सदुपयोग करने के उद्देश्य से उन्होंने इसे एकत्र करना शुरू किया और इससे फूलदान, टोकरियां, कटोरे आदि बनाना शुरू कर दिया। इसके बाद उन्होंने पिरूल से गोल टोपी, बैठने की सीटें और डोरमैट बनाना भी शुरू कर दिया।


छात्राओं को प्रशिक्षण देतीं मंजू

धीरे-धीरे उसके उत्पाद बिकने लगे और भारी मात्रा में मांग आने लगी। इससे उत्साहित होकर उन्होंने गांव की अन्य महिलाओं को पिरूल से विभिन्न उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण देना शुरू किया। वह अपने परिवार का समर्थन करने के लिए एक छोटी-सी नौकरी करने के बारे में सोचने लगी। जब उन्हें ताड़ीखेत के उपनल में प्रयोगशाला सहायक के रूप में नौकरी मिली तो उन्होंने स्कूल के अन्य शिक्षकों को भी प्रशिक्षित किया।
आज उनके अथक प्रयासों से जहां गांव की कई अन्य महिलाएं और बेटियां अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत कर रही हैं, वहीं उन्होंने न केवल अपने गांव की महिलाओं को बल्कि हिमाचल से लेकर झारखंड तक की
महिलाओं को प्रोत्साहित करने का काम किया है। मंजू को उनकी अभिनव पहल के लिए हिमाचल में शिक्षा में शून्य निवेश नवाचार के लिए प्रशस्ति पत्र भी दिया गया। कुल मिलाकर उन्होंने पिरूल को स्वरोजगार से जोड़कर पहाड़ के लोगों के लिए स्वरोजगार का नया विकल्प तैयार करना शुरू कर दिया है।

पिरूल से ये उत्पाद तैयार कर रहीं मंजू शाह
पिरूल वुमेन मंजू शाह पिरूल से टोकरी, पूजा थाल, फूलदान, आसन, पेन स्टैंड, डोरमैट, टी कोस्टर, डाइनिंग मैट, ईयर रिंग, फूलदान, मोबाइल चार्जिंग पॉकेट, पर्स, हैट, पेंडेंट, अंगूठी, सहित तमाम तरीके के साज-सज्जा के उत्पाद बना रही हैं। जो न केवल लोगों को पसंद आ रहे हैं, बल्कि इन उत्पादों को बनाने से लोगो को आमदानी भी हो रही है।

ये है पिरूल

उत्तराखण्ड के जंगलो में अधिकांश हिस्सेदारी चीड़ के पेड़ों की है। बसंत के बाद चीड़ की पत्तियां गिरती हैं, जो बेहद ही ज्वलनशील होती हैं। पहाड़ों पर अधिकांश वनाग्नि की घटनाएं इन्हीं पत्तियों यानी पीरूल के कारण होती हैं। हर साल पचास लाख टन से अधिक पिरूल जंगलों से गिर रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक तकरीबन 71 फीसदी वन भू-भाग वाले उत्तराखण्ड में चीड़ ने 15 फीसदी जंगल पर कब्जा कर लिया है, जबकि बांज के जंगल सिमटकर 13 फीसदी रह गए हैं। नीति नियंता भले ही इस सच्चाई से मुंह मोड़ लें, लेकिन तेजी से बढ़ता चीड़ जैव विविधता और वनस्पतिक विविधता के साथ ही वातावरण की नमी को भी खत्म कर रहा है। पिरूल से विभिन्न प्रकार के उत्पाद बनने से पिरूल उत्तराखण्ड में आय बढ़ाने के साथ ही आग बुझाने में मददगार होगा।

वोकल फॉर लोकल का प्रचार करतीं मंजू

श्रीमती मंजू शाह उत्तराखण्ड की पिरूल वुमेन का प्रयास वाकई बहुत ही सराहनीय है। स्वरोजगार के लिए पिरूल का उपयोग ईको फ्रेंडली उपाय है। चीड़ उत्तराखण्ड के लिए नासूर बनता जा रहा है। यदि हम जल्दी नहीं जागे तो आने वाले समय में हमारे परम्परागत वन खत्म हो जाएंगे और हम पानी के एक-एक बूंद के लिए तरस जाएंगे। सरकार को इस दिशा में जल्दी ही रणनीति तैयार करनी चाहिए।
पद्मश्री से अलंकृत कल्याण सिंह रावत, पर्यावरणविद्ध मैती संगठन से जुड़े हैं

 

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