तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा को ‘पैसे लेकर सवाल पूछने’ के मामले में गत सप्ताह सदन की सदस्यता से निष्कासित कर दिया गया है। संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने मोइत्रा के निष्कासन का प्रस्ताव पेश किया जिसे सदन ने ध्वनिमत से मंजूरी दी। इससे पहले सदन में लोकसभा की आचार समिति की रिपोर्ट पर चर्चा के बाद उसे मंजूरी दी गई, जिसमें मोइत्रा को निष्कासित करने की सिफारिश की गई थी। विपक्ष विशेषकर तृणमूल कांग्रेस ने आसन से कई बार यह आग्रह किया कि मोइत्रा को सदन में उनका पक्ष रखने का मौका मिले, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने पहले की संसदीय परिपाटी का हवाला देते हुए इससे इंकार कर दिया। भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने वकील जय अनंत देहाद्राई के माध्यम से मोइत्रा के खिलाफ लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को शिकायत भेजी थी, जिसमें उन पर अडाणी समूह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने के लिए कारोबारी दर्शन हीरानंदानी के कहने पर सदन में सवाल पूछने के बदले रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया है।
आचार समिति कमेटी के अध्यक्ष विनोद सोनकर द्वारा लोकसभा में पेश किए गए रिपोर्ट में महुआ मोइत्रा के आचरण को आपत्तिजनक, अनैतिक, जघन्य और आपराधिक बताते हुए आचार समिति ने उन्हें कड़ी सजा देने की मांग करते हुए लोकसभा की सदस्यता से निष्कासित करने की सिफारिश की थी। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में भारत सरकार द्वारा समयबद्ध तरीके से इस पूरे मामले की गहन, कानूनी और संस्थागत जांच की सिफारिश भी की है। समिति के छह सदस्यों ने रिपोर्ट के पक्ष में मतदान किया था। इनमें कांग्रेस से निलंबित सांसद परणीत कौर भी शामिल थीं। जबकि चार विपक्षी सदस्यों ने रिपोर्ट पर असहमति नोट दिए थे। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या महुआ मोइत्रा अब लोकसभा से अपने निष्कासन को कानूनी रूप से चुनौती दे सकती हैं? क्या वह चुनाव लड़ सकती हैं? आगे वो कौन सा रास्ता अपनाएंगी?
राजनीतिक एवं कानूनविदों का कहना है कि उनके पास निष्कासन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का विकल्प है। मोइत्रा पर एक मुख्य आरोप यह है कि उन्होंने संसद का लॉगिन-पासवर्ड किसी अन्य व्यक्ति संग साझा किया है। लोकसभा के नियम इस विषय पर स्पष्ट नहीं हैं। लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य के अनुसार आमतौर पर सदन की कार्यवाही को प्रक्रियात्मक अनियमितता के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है। संविधान का अनुच्छेद 122 इसके बारे में बहुत साफ है। यह सदन की कार्यवाही को अदालत की चुनौती से प्रतिरक्षा प्रदान करता है। अनुच्छेद 122 कहता है कि प्रक्रिया की किसी भी कथित अनियमितता के आधार पर संसद में किसी भी कार्यवाही की वैधता पर सवाल नहीं उठाया जाएगा। हालांकि आचार्य यह भी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने 2007 के राजा राम पाल मामले में कहा था कि वे प्रतिबंध केवल प्रक्रियात्मक अनियमितताओं के लिए हैं। ऐसे अन्य मामले भी हो सकते हैं जहां न्यायिक समीक्षा जरूरी हो सकती है।
बसपा के नेता राजा राम पाल दिसंबर 2005 में ‘कैश-फॉर क्वेरी’ घोटाले में कथित संलिप्तता के लिए निष्कासित किए गए 12 सांसदों में शामिल थे। इनमें 11 लोकसभा से और एक राज्यसभा से सांसद थे। जनवरी 2007 में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने 4-1 के बहुमत से निष्कासित सांसदों की दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया और निष्कासन को कायम रखा था। लेकिन साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जो कार्यवाही वास्तविक या घोर अवैधता या असंवैधानिकता के कारण दागी हो सकती है, उनका न्यायिक जांच से बचाव नहीं किया जाता है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाईके सभरवाल की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आगे कहा कि न्यायपालिका को नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों पर अतिक्रमण करने वाली विधायिका की कार्रवाई की वैधता की जांच करने से नहीं रोका गया है।
अवमानना या विशेषाधिकार की शक्ति के प्रयोग के तरीके की न्यायिक समीक्षा का मतलब यह नहीं है कि उस क्षेत्राधिकार को न्यायपालिका द्वारा हड़प लिया जा रहा है। इसमें संविधान के अनुच्छेद 105(3) के बारे में भी बात की गई। संविधान का अनुच्छेद 105 संसद और उसके सदस्यों और समितियों की शक्तियों और विशेषाधिकारों से संबंधित है। इस बीच महुआ मोइत्रा ने एक प्रेस कांफ्रेंस में आगे चुनाव लड़ने के बारे में बात करते हुए कहा कि जाहिर तौर पर मैं चुनाव लड़ूंगी। वहीं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी ने भी कहा है कि महुआ इस लड़ाई में जीतेंगी और हम उनके साथ हैं। जनता बीजेपी को करारा जवाब देगी और महुआ को जिताएगी। गौरतलब है कि महुआ मोइत्रा की सदस्यता ऐसे समय गई है जब लोकसभा चुनाव 2024 करीब हैं। ऐसे में उनकी संसद सदस्यता तृणमूल कांग्रेस को बड़ा झटका माना जा रहा है।

