जनहित के मुद्दों पर एकजुट होकर भाजपा सरकार को घेरने के बजाए कांग्रेस का हर नेता अपने- अपने एजेंडे के अनुसार कार्यक्रम दे रहा है। ऐसे में आम कार्यकर्ता पार्टी संगठन की दशा और दिशा को समझने में असमर्थ हैं। हताशा और निराशा के बीच वे चिंतित हैं कि आगामी पंचायत चुनावों में किस बूते भाजपा को टक्कर दे पाएंगे

 

प्रदेश में एक मात्र विपक्षी दल कांग्रेस के हालात में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा है। दिग्गज नेता या यूं कहें कि जिनके ऊपर उत्तराखण्ड कांग्रेस का दारोमदार है, वही नेता अलग-अलग राह पर चलते दिखाई दे रहे हैं। लगातार चुनावी हार के चलते कांग्रेस की नई पंक्ति के नेताओं और कार्यकर्ताओं में हताशा और निराशा का भाव तेजी से बढ़ता जा रहा है, जबकि बड़े नेताओं की आपसी रार खत्म होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। इसका बड़ा असर कांग्रेस के कार्यक्रमों पर पड़ता दिखाई दे रहा है। हर नेता अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने के लिए व्यक्तिगत तौर पर सक्रिय तो दिखाई दे रहा है, लेकिन कांग्रेस के तौर पर यह सक्रियता नदारद है।

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भले ही कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और आसाम के प्रभारी हों, लेकिन उनकी राजनीति उत्तराखण्ड के ही इर्द-गिर्द घूमने को विवश है। उस पर तुर्रा यह कि हरीश रावत का अपना अलग एजेंडा है जिस पर वे चल रहे हैं, लेकिन इस एजेंडे पर हरीश रावत के अलावा कोई अन्य नेता न आ सके इसका भी पूरी तरह से ख्याल रखा जा रहा है। हैरानी इस बात पर बढ़ जाती है कि कांग्रेस के कोई भी कार्यक्रम होते हैं, परंतु उनमें न तो कार्यकर्ताओं का हुजूम देखने को मिलता है और न ही नेताओं का उत्साह। लेकिन जैसे ही हरीश रावत के कार्यक्रम सामने आते हैं, अचानक से उनके समर्थक इस तेजी से सक्रिय हो जाते हैं कि लगता है रावत के अलावा कांग्रेस में कोई और चेहरा ही नहीं बचा है।

हरीश रावत के बारे में कहा जाता है कि हर किसी को उनकी राह में आने की इजाजत नहीं होती है। कब किसका कितना और किस समय में उपयोग करना है, यह रावत बेहतर तरीके से जानते हैं। संभवतः इसके चलते वे अपना अलग एजेंडे पर चल रहे हैं। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि जिस तरह से हरीश रावत की लगातार चुनावों में करारी हार हुई है उससे उबरने के लिए ही वे कांग्रेस से इतर अपने एजेंडे पर चल रहे हैं। इससे उन्हें दोहरा फायदा होना माना जा रहा है।

कार्यक्रम देते रहने से रावत प्रदेश की जनता के बीच अपनी मौजूदगी का अहसास कराए हुए हैं, वहीं कांग्रेस आलाकमान की निगाह में भी ये कार्यक्रम आने तय हैं। इससे एक बात यह भी निकल कर सामने आ सकती है कि हरीश रावत कांग्रेस हाईकमान तक यह संदेश पहुंचाने में पूरी तरह से सफल हो रहे हैं कि उनके बगैर न तो प्रदेश कांग्रेस कोई नीतिगत निर्णय ले पा रही है ओैर न ही कार्यकर्ताओं को एकजुट करने के लिए कार्यक्रम बना पा रही है, जबकि वे इसमें पूरी तरह से सफल होते दिख रहे हैं।
अगर हरीश रावत के इन दो वर्षों के अंतराल में हुए कार्यक्रमों को देखें तो साफ हो जाता है कि रावत कई ऐसे कार्यक्रमों को जनता के सामने लेकर आए हैं जिनको प्रदेश कांग्रेस द्वारा किया जाना अपेक्षित था। लेकिन अपने-अपने अंतर्द्वंदों के चलते न तो कांग्रेस का प्रदेश संगठन इस पर कोई सोच बना पाया और न ही कार्यकर्ताओं को इससे जोड़ने और जुटने का निर्देश दे पाया।

दो वर्षों में गंगा आरती, गन्ना किसानों के लिए हरिद्वार जिले में बड़ा आंदोलन, गन्ना भुगतान के लिये विधानसभा के बाहर धरना, दलित युवक की मौत पर देर से ही सही एक घंटे का सांकेतिक उपवास करना, उत्तराखण्ड के फलां के प्रचार के लिए आम, लीची और काफल की पार्टियों का आयोजन करना जैसे कार्यक्रम हरीश रावत के खाते में हैं। इन कार्यक्रमों में रावत ने कांग्रेस को शामिल करने से पूरी तरह से परहेज किया। साथ ही मीडिया मैनेजमेंट के चलते वाहवाही भी जमकर लूटी। कांग्रेस के नेता इन कार्यक्रमों में शामिल जरूर हुए, लेकन इन्हें अधिकृत कांग्रेस कार्यक्रम बनाने में वे चूक गए। चाहे प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह हों या नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदेश हो दोनों नेताओं ने इन कार्यक्रमों से या तो दूरी बनाई या फिर महज रस्म आदायगी के तौर पर ही अपनी उपस्थिति दर्ज की। लोकसभा चुनाव में करारी हार के बावजूद हरीश रावत अपने कार्यक्रमों में जुटे हुए हैं। वे इन कार्यक्रमों को अपना कार्यक्रम बनाए जाने की रणनीति में जुटे हुए हैं। चाहे वह पुराने कांग्रेसियों से मिलने का कार्यक्रम हो या फिर अनुसूचित जाति के लोगों से सीधे संवाद का कार्यक्रम हो, इनमें हरीश रावत के समर्थक नेता और कार्यकर्ताओं की ही शिरकत हो रही है। अगर इस बड़े महत्वपूर्ण कार्यक्रम को कांग्रेस द्वारा घोषित किया जाता तो एक बेहतर और बड़ा संदेश दिया जा सकता था।

पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय अपने अलग एजेण्डे पर चल रहे हैं। वनाधिकार आंदोलन को लेकर जिस तरह से किशोर उपाध्याय ने एक अलग मोर्चा पूरे प्रदेश मे खड़ा किया वह अपने आप में चर्चा का विषय बना हुआ है। शुरू में इस आंदोलन को होने पर गैर राजनीतिक आंदोलन के तौर पर प्रचारित किया गया था और कुछ हद तक यह अपना स्वरूप बनाये हुये रहा। लेकिन आज यह आंदोलन एक तरह से किशोर उपाध्याय के आंदोलन के तौर पर तब्दील हो चुका है। हांलाकि इस आंदेलन को तकरीबन सभी राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों का पूरा समर्थन मिल रहा है। हालांकि कांग्रेस वनाधिकार आंदोलन को अपना पूरा समर्थन देने की घोषणा कर चुकी है। बावजूद इसके कांग्रेस ने वनाधिकार आंदोलन को न तो अभी तक कार्यक्रम माना है और न ही इससे जुड़ी है। इस आंदोलन में कई कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और संगठन के कुछ नेताओं की भागीदारी अवश्य दिखाई देती है। लेकिन वह सिर्फ किशोर उपाध्याय के समर्थक नेताओं और कार्यकर्ताओं तक ही सीमित है। सामाजिक संगठनों द्वारा भी इस आंदेलन को भरपूर समर्थन दिया जा रहा है। इसके फलस्वरूप प्रदेश में दर्जनों स्थानों में चर्चाओं और गोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह भी अपनी अलग राह पकड़े हुये हैं। लोकसभा चुनाव में 14 में से 13 विधानसभा क्षेत्रों में मतदाताओं ने प्रीतम सिंह को नकार दिया है। इससे प्रीतम सिंह का खेमा और भी असहज हो चला है। इसका असर प्रदेश कांग्रेस के ऐसे कार्यक्रमों पर पड़ता दिख रहा है जिनसे कांग्रेस को आने वाले समय में नई ऊर्जा ओैर नई ताकत मिलनी चाहिये। जबकि आज भी प्रीतम सिंह कांग्रेस नताओं को एकजुट करने में इस कदर नाकाम दिखाई दे रहे हैं कि हर नेता अपने-अपने क्षेत्र और अपनी-अपनी राजनीति के सिद्धांतों पर ही चल रहा है।

राज्य में दलित उत्पीडन की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इसके बावजूद प्रीतम सिंह सरकार को घेरने में न तो स्वयं कामयाब हो पाये हैं और न ही कांग्रेस को कोई दिशा दे पा रहे हैं। इससे कार्यकर्ता दिशाहीन होकर अलग-अलग नेताओं के व्यक्तिगत राजनीनीतिक हितों के लिये चलाये जा रहे कार्यक्रमों की ओर मुड़ रहे हैं। यह परिपार्टी आगे भविष्य में कांग्रेस के लिए और भी घातक हो सकती है। जबकि आने वाले समय में प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव होने हैं। बावजूद इसके कांग्रेस अभी तक अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को पंचायत चुनाव के लिये कोई दिशा और नीति तक नहीं दे पा रही है।

राजनीतिक जानकारों की मानें तो जिस तरह से कांग्रेस ने स्थानीय निकाय चुनाव में समय रहते संगठन को तैयार नहीं किया था और हाईकोर्ट के फैसले पर ही अपनी निगाहें लगाये रही उसी तरह से पंचायत चुनावां में भी कांग्रेस का रुख देखने को मिल रहा है। पंचायत चुनाव में अपने कार्यकर्ताओं और संभावित उम्मीदवारां को तैयारी में जुट जाने के निर्देश देने के बजाय सत्ताधारी भाजपा के रुख और तैयारी पर ही कांग्रेस का ज्यादा फोकस बना हुआ है। यह कांग्रेस के लिए स्थानीय निकाय चुनावां ही तरह घातक हो सकता है।

नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदेश की बात करें तो उन पर अब उम्र हावी होने लगी है। कांग्रेस के कई नेता इस बात को लेकर मुखर भी हो चुके हैं। हल्द्वानी से बाहर निकलने और प्रदेश में कार्यकर्ताओं में उत्साह जगाने के लिए कई बार इंदिरा हृदेश से कांग्रेस के नेता और विधायक गुहार लगा चुके हैं, लेकिन उन्हें इस तरह से किसी कार्यक्रम में देखा नही गया है। हल्द्वानी से देहरादून और देहरादून से हल्द्वानी तक ही इंदिरा हृदेश की राजनीतिक सत्ता देखी जा रही है। हालांकि एक बार इंदिरा हृदेश को परिवर्तन यात्रा के दौरान उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकां के कांग्रेसी कार्यकर्ताआें को देखने का परम सुख जरूर मिला, लेकिन वह भी महज चकराता विधानसभा सीट के त्यूणी क्षेत्र के ही कार्यकर्ताओं को। त्यूणी के बाद अन्य क्षेत्रों की यात्रा में इंदिरा हृदयेश नदारद ही रहीं। सूत्रों के अनुसार केवल प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह के गृहक्षेत्र चकराता में ही इंदिरा हृदेश ने आने की हामी भरी थी। माना जाता है कि अधिक उम्र होने के चलते इंदिरा हृदेश चकराता से ही वापस हो गई थी। इसके अलावा नेता प्रतिपक्ष जेसे पद पर रहने के बावजूद कांग्रेस के उप नेता सदन करण महरा के बीच मतभेद के चलते सदन में कांग्रेस के विधायक ऊहापोह की स्थिति में रहते हैं। इसका बड़ा असर यह देखने को मिला कि करण महरा द्वारा सीधे मुख्यमंत्री पर कई स्टिंग आपरेशनां के जरिये गम्भीर आरोप लगाए गए जबकि पूर्व में इंदिरा हृदेश ने अपने पास मुख्यमंत्री से स्टिंग ऑपरेशन से जुडे़ प्रमाण होने की बात कही। कहा था कि कांग्रेस इनको हर विधानसभा क्षेत्र की जनता को सार्वजनिक तौर पर दिखाएगी। मुख्यमंत्री की चुनौती के बावजूद इंदिरा हृदेश ने स्टिंग आपरेशनों का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से परहेज किया, जबकि करण महरा ने कई स्टिंगां को मीडिया में सार्वजनिक कर दिया। कांग्रेस सूत्रों की मानें तो इंदिरा हृदेश ने महज सरकार को भयभीत करने के लिये इस तरह के बयान जारी किये थे, जबकि कई माह का समय बीत जाने के बावजूद उन स्टिंग आपरेशनों को एक रणनीति के तहत दबा दिया गया था।

इन प्रकरणों से यह तो कहा जा सकता हे कि कांग्रेस अपने हालत को सुधारने का प्रयास न तो कर रही है ओैर न ही अपने नेताओं को एकजुट करने के लिये कोई कार्यक्रम बना पा रही है। यहां तक कि जिन मुद्दों को जनता में जबर्दस्त समर्थन मिल रहा है उनको लेकर भी कांग्रेस का रवैया लचर ही बना हुआ है। हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस नेताओं द्वारा इन मुद्दों को लेकर जो भी उत्साह दिखाया जा रहा है वह व्यक्तिगत ही दिखाई दे रहा है, जबकि प्रदेश कांग्रेस संगठन ऐसे मुद्दों पर सरकार को घेरने का काम कर सकता है। इससे कम से कम जनता मे एक बड़ा संदेश तो दिया ही जा सकता है कि भले ही कांग्रेस सदन में सख्या बल के आधार पर महज 11 विधायकां के साथ है, लेकिन एक मजबूत और जनता के हितों के लिये हमेशा तैयार रहने वाला विपक्ष है। लेकिन कांग्रेस नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकाक्षांओं के चलते यह संदेश देने में कांग्रेस पूरी तरह से नाकाम है।

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