Uttarakhand

अंतिम सांस ले रहा ताम्र उद्योग

अल्मोड़ा का सैकड़ों वर्ष पुराना ताम्र शिल्प उद्योग सरकारी संरक्षण के अभाव में दम तोड़ रहा है
एक समय सैकड़ों हाथों को रोजगार देने और अल्मोड़ा को ताम्र नगरी के रूप में पहचान दिलाने वाला तांबा उद्योग आज अंतिम सांसें मिले रहा है। कहा जाता है कि 400 साल पूर्व यहां ताम्र युगीन संस्कृति विकसित हुई थी। लेकिन यह संस्कृति अब अवशेषों में सिमट कर रह गई है। जिस उद्योग ने चंद राजवंश में अपनी शिल्प कला की धाक जमाई वही आज सरकारी संरक्षण न मिलने के चलते समाप्ति के कगार पर है। एक समय इसी उद्योग से जुड़े कारीगरों की उत्कृष्ट कारीगरी की देश-विदेश में धूम थी।
अल्मोड़ा नगर का एक पूरा मौहल्ला जिसे टम्टा मौहल्ला के नाम से जाना जाता है, यहां तांबे से गागर, तौला, फिल्टर, परात, सुरई, रणसिंह वाद्य यंत्रा, तुतरी, ढोल व मंदिर से संबधित सामग्री बनती थी जिसकी काफी मांग थी। इस मौहल्ले के करीब 80 से अधिक परिवार इस व्यवसाय से जुड़े थे। इनके द्वारा बनाई गयी वस्तुओं की मांग पूरे कुमाऊं क्षेत्र में थी। इस मौहल्ले के हर परिवार के पास अपना एक कारखाना होता था। 200 से अधिक ताम्र शिल्पी इसी से अपनी आजीविका चलाते थे। लेकिन अब संरक्षण एवं औद्योगिकीकरण के चलते नई पीढ़ी ने इससे कन्नी काटनी शुरू कर दी है। इस उद्योग को मुरादाबाद की पीतल नगरी की तरह विकसित करने की सियासी स्तर पर जुबानी बातें तो हुई, लेकिन सच यह है कि मुरादाबाद की पीतल नगरी में बनी वस्तुएं ही इस परंपरागत उद्योग को खत्म करने का बड़ा कारण बनी। कच्चा माल की समय पर उपलब्ध्ता न होने व बेहतर मजदूरी न मिल पाने के कारण एक-एक कर ताम्र कारीगर इस व्यवसाय से कन्नी काटते गए। आज महज 5 परिवार ही इस पेशे से जुड़े हैं। पूर्व में प्रदेश के नैनीपातल, बनकोट, कपड़खान, राईआगर, बोरा आगर, रामगढ़, अस्कोट के इलाकों में तांबे की खान थी, जिससे कच्चा माल आसानी से उपलब्ध हो जाता था। चंद एवं गोरखा शासन काल में यह उद्योग काफी फला-फूला था। अल्मोड़ा के बाद इस कारोबार ने बागेश्वर और पिथौरागढ़ में भी पांव पसारे लेकिन बाद के वर्षों में एक-एक कर ये खानें बंद होती चली गई। कहा तो यह भी जाता है कि एक समय बागेश्वर के खरई पट्टी और पिथौरागढ़ के बनकोट में जो तांबे की खानें थी उससे तांबा निकालने  का काम महिला कारीगर करती थी। ताम्र उद्योग किस तरह अपनी पराकाष्ठा में था, इतिहासकारों के इस मत से इसे समझा जा सकता है कि अकेले कुमाऊं क्षेत्र में 14 से अधिक मानव आकृतियां ताम्र से बनी थी। अंग्रेजी शासनकाल व आजाद भारत में सरकारी स्तर पर इसे संरक्षण न मिलने से यह ताम्रयुगीन संस्कृति अवशेषों में सिमट कर रह गयी है। तांबे के कारीगर गणेश टम्टा कहते हैं ‘‘अब शरीर में जान नहीं रही। यह श्रमसाध्य काम अब मेरे वश का नहीं। नई पीढ़ी इस काम को करना नहीं चाहती। अब न तो कच्चे माल की समय पर उपलब्धता हो पाती है। न ही इतनी मजदूरी मिलती है कि परिवार का पेट पाला जा सके।’’
तांबा जो पहाड़ का दशकों पुराना उद्योग रहा है उसकी स्थिति अब यह है कि प्रोत्साहन के अभाव में शिल्प एवं दस्तकारी की उत्कृष्टता दम तोड़ रही है। कारीगरों की उपेक्षा के चलते एक-एक कर इस उद्योग से जुड़े कारीगर इससे मुंह मोड़ रहे हैं। इस उद्योग को मजबूती देने के लिए जो थोड़े बहुत प्रयास शुरू वह भी फल-फूल नहीं पाए। अल्मोड़ा-हल्द्वानी मोटर मार्ग में दुगालखोला नामक स्थान पर ताम्रनगरी सहकारी समिति बनाई गई। 14 नाली जमीन पर 20 कार्यशालाएं बनाई गई। लेकिन आध्ुनिक मशीनें नहीं लग पाने के चलते यह कार्यशालाएं भी जीर्ण-शीर्ण हालत में पहुंच चुकी हैं। पर्वतीय शिल्प व कला के संरक्षण के लिए वर्ष 2014 में हरीश रावत सरकार ने 100 करोड़ की लागत से अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मोटर मार्ग पर स्थित गुरूड़ाबांज में हरिराम टम्टा पारंपरिक शिल्प उन्नयन और प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की घोषणा हुई। इसको आकार देने के लिए शुरुआती दौर में 1.20 करोड़ रुपए की मंजूरी भी हुई। उद्यान विभाग से 73 नाली भूमि भी हस्तान्तरित की गई। उत्तर प्रदेश निर्माण निगम को इसको विकसित करने की जिम्मेदारी दी गई। इस संस्थान को बनाने के पीछे का उद्देश्य यह था कि पर्वतीय क्षेत्र में जो शिल्प, काष्ठ, भवन, ताम्र, ऐपण आदि परंपरागत कलाएं विलुप्त हो रही हैं उनका संरक्षण व विकास किया जाएगा। वर्ष 2015 में 15 करोड़ रुपए देने की बात फिर से हुई, लेकिन यह योजनाएं अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाई। सरकारी उपेक्षा के चलते एक फलती -फूलती-संस्कृति यूं ही इतिहास के पन्नों तक सिमट कर रह गई है।
अब आदमी हाथ के बजाय मशीन पर भरोसा कर रहा है। गागरों के बदले कलश खरीद रहा है। मशीनों में बने बर्तनों के दाम कम होने से लोग इन्हें खरीदना पंसद करते हैं। मुरादाबाद में बने पीतल के बर्तनों ने भी इस उद्योग की कमर तोड़ने का काम किया। इस उद्योग से जुड़े परिवारों की नई पीढ़ी पढ़ी-लिखी है वह यह काम करना नहीं चाहती। ऐसे में बगैर सरकारी संरक्षण के इस उद्योग को बचाए रखना संभव नहीं है।
डॉ. मदन मोहन पाठक, सामाजिक कार्यकर्ता, अल्मोड़ा

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