उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता हरीश रावत के पुत्र आनंद रावत प्रदेश की राजनीति में एक उभरते हुए युवा चेहरे के रूप में तेजी से पहचान बना रहे हैं। उत्तराखण्ड यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया और संगठन को जमीनी स्तर पर सशक्त करने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। राजनीति में पारिवारिक विरासत के बावजूद आनंद रावत ने अपनी स्वतंत्र सोच, सामाजिक सरोकारों और युवाओं से जुड़ाव के चलते अलग पहचान बनाई है। प्रदेश की युवा पीढ़ी के लिए वे एक ऐसे नेता के रूप में उभरते दिख रहे हैं, जो सवाल करता है, सुनता है और समाधान खोजने की कोशिश करता है। ‘दि संडे पोस्ट’ के राजनीतिक संपादक संजय स्वार से आनंद रावत की बातचीत
आपके पिता श्री हरीश रावत ने हाल ही में आपको उत्तराखंडियत का वास्तविक उत्तराधिकारी घोषित किया है। आप इस जिम्मेदारी को किस रूप में देखते हैं?
मैं जब से उत्तराखण्ड युवा कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष रहा हूं मेरी कार्यशैली उत्तराखंडियत पर आधारित रही है। आजकल आप देख रहे हैं कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने नारा दिया कि हम 2025 तक उत्तराखण्ड को ड्रग मुक्त करेंगे, जबकि 10 साल पहले ही मैंने इस मुद्दे को शुरू कर दिया था। मेरा नारा था ‘नशे के खिलाफ जंग, परम्परागत खेल खेलेंगे हम’। मैंने नशे के खिलाफ एक जंग छेड़ी थी। मैं बच्चों को स्कूलों में संदेश देता था कि अपनी ऊर्जा का उपयोग खेलों के लिए करें नशे के लिए नहीं। इसी प्रकार मैंने सेना में भर्ती होने वाले बच्चों के लिए एक मुहिम शुरू की थी। सेना में भर्ती होना हर उत्तराखण्ड के युवा का सपना होता है उसे फौज के लिए कैसे तैयारी करनी चाहिए, उसके लिए मैंने उनको संदेश देने का प्रयास किया। उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में जंगली जानवरों की समस्या है मैंने उस पर भी एक मुहिम चलाई। वन्य जीवों के साथ कैसे हमारा सहअस्तित्व है मैंने लोगों को जागरूक किया। मेरे राजनीतिक जीवन की नींव ही उत्तराखंडियत रही है।
जब परिवार में राजनीतिक रूप से सक्रिय दो अन्य सदस्य वीरेंद्र रावत, श्रीमती अनुपमा रावत पहले से हैं, तभी हरीश रावत का आपको विरासत सौंपना महत्वपूर्ण संकेत है, इस पर आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?
मैं 2010-11 में उत्तराखण्ड युवक कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष निर्वाचित हुआ तो सक्रिय राजनीति में लगभग डेढ़ दशक से कांग्रेस के लिए काम शुरू किया। मैं 1996 से लगातार ग्राम पंचायत से लेकर लोकसभा चुनावों में सक्रिय रहा। युवा कांग्रेस का अध्यक्ष था तब से मैं एक सक्रिय राजनीतिज्ञ के रूप में ही काम कर रहा हूं। अगर आप भाजपा में देखें तो उन्होंने कद्दावर नेताओं को दरकिनार करते हुए आज युवा मोर्चा के अध्यक्ष रहे पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया और चुनाव हारने के बाद भी उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनाया। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद प्रथम युवा मोर्चा प्रदेश अध्यक्ष रहे महेंद्र भट्ट जी अब दूसरी बार प्रदेश अध्यक्ष बन गए हैं। युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष रहे गजराज बिष्ट को मेयर बनवा दिया। युवा मोर्चा के अध्यक्ष रहे विनोद कंडारी दोबारा से विधायक हैं। भाजयुमो के प्रदेश अध्यक्ष रहे सौरभ थपलियाल नगर निगम देहरादून के मेयर हैं। अब भाजपा अपने युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष को इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दे रही है तो कांग्रेस का नेतृत्व अपने यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष को कैसे नजरअंदाज कर सकता है? बाकी पार्टी का जो भी फैसला होगा मैंने हमेशा अनुशासित सिपाही की तरह माना है। मैं हमेशा जन सरोकारों से जुड़ा रहा। जब केदारनाथ की आपदा आई थी तो वहां पहुंचने वालों में मैं प्रथम व्यक्ति था, उसके बाद हरीश रावत जी, हरक सिंह रावत आए। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी जी तो लगभग 17 दिन बाद आपदाग्रस्त क्षेत्रों में नजर आए। मैंने उस वक्त आपदा पीड़ितों के लिए बहुत काम किया। आपदाग्रस्त क्षेत्रों की बेटियों को उनके विवाह में युवक कोंग्रेस की ओर से आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाई। जरूरतमंद लोगों को राशन की व्यवस्था करवाई। ऐसी बातें में सार्वजनिक तौर से कहना पसंद नहीं करता क्योंकि यह मेरा दायित्व था। यह मेरी मिट्टी है, मेरे लोग हैं, इनका दर्द मेरा दर्द है। 770 विवाह योग कन्याओं की मदद की। मेरा ये सब निःस्वार्थ था क्योंकि मुझे उन क्षेत्रों से चुनाव नहीं लड़ना था। 70 विधानसभा क्षेत्र और 95 ब्लाॅक के लोग मेरे हैं। इन्हीं भावनाओं के साथ में काम करता हूं। अगर उसके बावजूद भी मुझे परिवारवाद की दृष्टि से देखा जाता है या मेरा आकलन परिवारवाद की दृष्टि से किया जाता है तो शायद यह मेरे साथ अन्याय होगा। ये शायद उन पुत्र-पुत्रियों पर लागू होता है जो बिना संघर्ष किए ऊंचे पदों पर पहुंच गए।
उत्तराखंडियत की अवधारणा जो हरीश रावत ने दी है उसे आप अपने शब्दों में कैसे परिभाषित करेंगे?
देखिए, उत्तराखंडियत शब्द को कुछ शब्दों के दायरे में बांध कर नहीं देखा जा सकता। इसका एक व्यापक स्वरूप है। हम उत्तराखण्ड के 25 वर्षों में देखें तो इस प्रदेश ने 10 मुख्यमंत्री देखे। नित्यानंद स्वामी से लेकर पुष्कर सिंह धामी तक। जब 2014 में हरीश रावत ने मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्भाली तो उत्तराखण्ड में मात्र दो मेडिकल काॅलेज थे। सुशीला तिवारी मेडिकल काॅलेज हल्द्वानी और वीर चंद्र सिंह गढ़वाली मेडिकल काॅलेज श्रीनगर में। पूरे प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाएं इन दो मेडिकल काॅलेज पर निर्भर थीं। हरीश रावत के 3 साल के कार्यकाल में 5 मेडिकल काॅलेज की नींव रखी गई। पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, रुद्रपुर, हरिद्वार और देहरादून में। पिछले दिनों केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने बताया कि पिछले 11 सालों में 115 मेडिकल काॅलेज बने। उसमें वो उत्तराखण्ड के 5 मेडिकल काॅलेज को भी गिन रही थीं, जिनकी नींव हरीश रावत के शासनकाल में रखी गई थी। उत्तराखण्ड में पलायन के तीन कारण हैं शिक्षा, स्वास्थ्य और बेरोजगारी। रोजगार के विषय में बात करूं तो पिछले 25 वर्षों में हरीश रावत का कार्यकाल ऐसा रहा जिसमें दो बार पीसीएस की परीक्षा हुई जबकि अन्य मुख्यमंत्री के शासनकाल में एक बार ही हुई थी। वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जी की बात करें तो उनके पहले शासन काल में एक बार और दूसरे शासन काल में एक बार पीसीएस परीक्षा हुई है। उत्तराखण्ड में लड़कियों को पुलिस में भर्ती का पहला मौका हरीश रावत जी के समय में मिला। जिसमें 750 महिला कांस्टेबल भर्ती किए गए। 32000 सरकारी नौकरियां हरीश रावत के शासनकाल में मिली। 17000 नारायण दत्त तिवारी जी के कार्यकाल में और धामी जी के शासनकाल में सरकारी नौकरियों की संख्या 10000 भी नहीं पहुंच सकी है, चाहे वह कितने ही दावा कर लें। उत्तराखण्ड के युवाओं को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता देने के लिए अधीनस्थ सेवा चयन आयोग का गठन किया गया। जिसके माध्यम से सिर्फ उत्तराखण्ड के प्रतिभागी ही भाग ले सकते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी गैस फैकल्टी हरीश रावत की परिकल्पना थी। कई हाईस्कूलों का उच्चीकरण किया गया। लेकिन अगर हरीश रावत को 5 साल काम करने के लिए और मिले होते तो शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता था। पारम्परिक खाद्यों को उचित स्थान हरीश रावत के शासनकाल में ही मिलना शुरू हुआ। भेड़ बकरी पालन, पुजारी, डंगरिए, जगरिए से लेकर हर वो आदमी हरीश रावत की निगाहों में था जो उत्तराखण्ड की पारम्परिक व्यवस्था से जुड़ा था। लेकिन हमने या कहें कांग्रेस ने हरीश रावत के कार्यकाल की उपलब्धियां को जनता तक पहुंचने में सही तरीके से काम नहीं कर पाए, शायद इसी कारण हम चुनाव में असफल रहे। पिताजी ने जिम्मेदारी मुझे दी है यह मेरा दायित्व है कि मैं इन विषयों पर कर्मठता के साथ प्रदेश के लिए कार्य कर सकूं।
क्या आपको लगता है कि वर्तमान उत्तराखण्ड राजनीतिक दल इस उत्तराखंडियत पहचान और भावना के साथ न्याय कर रहे हैं?
इस प्रदेश में अभी तक दो ही पार्टियों ने शासन किया है कांग्रेस और भााजपा। यूकेडी दिशाहीन हो चुका है। उसके नेता निजी महत्वाकांक्षाओं के चलते पार्टी को गर्त में ले जा चुके हैं। जो पार्टी ‘अटल जी ने बनाई, मोदी जी संवारेंगे’ जैसे नारे गढ़ कर सत्ता पाती हो, उससे क्या उम्मीद कीजिएगा? उनके इस नारे में उत्तराखण्ड के आंदोलनकारी तो कहीं हैं ही नहीं। भाजपा तो इस दिशा में कहीं दिखती नहीं। खण्डूड़ी जी ने अपने मुख्यमंत्री रहते कुछ ऐतिहासिक फैसले जरूर लिए लेकिन वह श्रीनगर तक ही अपनी दृष्टि जमा पाए। श्रीनगर में मेडिकल काॅलेज, केंद्रीय विद्यालय, केंद्रीय विश्वविद्यालय, एनआईटी सब श्रीनगर में हुए। सोचिए पौड़ी जनपद के अन्य विधानसभा क्षेत्र उपेक्षित रह गए। पौड़ी जनपद ने पांच मुख्यमंत्री दिए रमेश पोखरियाल, भुवन चंद्र खण्डूड़ी, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत और विजय बहुगुणा लेकिन पौड़ी के जिला मुख्यालय में एक बस अड्डा तक ये नहीं बना पाए। पौड़ी जिले में कोटद्वार, यमकेश्वर, चैबट्टाखाल, श्रीनगर, पौड़ी जैसी विधानसभा है। यह कैसी उत्तराखंडियत है जो क्षेत्र विशेष से ही बाहर ही नहीं निकाल पाती। भाजपा के नेताओं का उत्तराखंडियत से कोई सरोकार नहीं है। उत्तराखण्ड के परम्परागत खाद्यों के विषय में उन्हें कभी कुछ कहते हुए आपने नहीं सुना होगा। उनके विधायक विनोद चमोली, प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने हरीश रावत की काफल पार्टी पर उनका मजाक बनाया जबकि कुछ ही दिनों बाद पता चला कि देहरादून में काफल 600 रुपए किलो मिल रहा था। केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चैहान सार्वजनिक रूप से काफल, मंडुवे और उत्तराखण्ड की परम्परागत फसलों की तारीफ कर चुके हैं, लेकिन भाजपा के स्थानीय नेता अपनी मिट्टी को भूलते जा रहे हैं। भाजपा नेता उत्तराखण्ड की पहचान का मजाक उड़ाते हैं। हरीश रावत उत्तराखण्ड की पहचान हैं। आप हरीश रावत का विरोध कीजिए, लेकिन उनका विरोध करते हुए उत्तराखण्ड की परम्परागत चीजों के विरोध के स्तर पर तक तो मत जाइए। यह जुमले, छद्म राष्ट्रवाद और मुस्लिम विरोध के नाम पर वोट लेने वाली पार्टी है। इन्हें उत्तराखण्ड के लोगों से कोई मतलब नहीं है। यहां के संसाधनों को बाहर के लोगों को सौंप रहे हैं। टिहरी झील में पर्यटन हो या सिलक्यारा टनल हो, अन्य कोई भी काम सब पर बाहरी लोगों का कब्जा है। यह राज्य इसलिए तो नहीं बना था कि स्थानीय लोगों की अनदेखी हो।
हरीश रावत की शैली और आपकी शैली में क्या फर्क है?
हरीश रावत जी की शैली मेरी शैली में सबसे बड़ा अंतर उम्र का है। मेरी शैली थोड़ा आक्रामक है और उनकी शैली जो है वह जमीन से जुड़ी हुई है। 2017 में हरीश रावत ने उत्तरकाशी जनपद, धारचूला, मुनस्यारी, राठ क्षेत्र पौड़ी का और टिहरी जनपद के लमगांव और थौलधार ब्लाॅक को ओबीसी घोषित किया। उसके परिणाम आज दिख रहे हैं। ओबीसी क्षेत्र में से इस बार 7 नौजवान पीसीएस अधिकारी बनकर आए थे। वहां के लोगों को ओबीसी क्षेत्र का फायदा महसूस हुआ। मेरा मानना है कि अतीत की नींव पर भविष्य का निर्माण होना चाहिए।
क्या आपको लगता है कि वीरेंद्र रावत और अनुपमा रावत के मुकाबले हरीश रावत ने आपको चुना, क्या ये उनके लिए कोई भावनात्मक या राजनीतिक चोट हो सकती है?
मैं सिर्फ अपने विषय में कह सकता हूं और देखिए पांच उंगलियां हैं, पांच उंगलियों की अपनी-अपनी उपयोगिता हो सकती है, उनके अलग-अलग आकार प्रकार होते हैं। तो कौन कैसे सोचता है, इस पर मैं क्या कह सकता हूं। हां, मेरी बुद्धि इन मामलों में इतनी परिपक्व नहीं है और न हीं मैं इस दिशा में कभी कुछ सोचता हूं।
रावत परिवार को एकजुट रखना और राजनीतिक रूप से सामंजस्य बनाए रखना कितना सहज या कठिन है?
जब हरीश रावत सत्ता में थे तो आबकारी नीति को लेकर के सवाल उठते थे तो उस दौरान भी मैंने साहस किया कि नशे के खिलाफ एक जंग छेड़ सकूं। मेरी भी एक सोच है। एक सहयोगी के तौर पर मेरी एक भूमिका थी। मैंने उन्हें हमेशा दोहरी जिम्मेदारी के रूप में देखा। पिता के तौर पर भी और एक सहयोगी तौर पर भी। लोग सवाल करते हैं कि आपने पहले जिम्मेदारी क्यों नहीं ली, आप पहले भी तो चुनाव लड़ सकते थे। मुझे लगता है कि वहां पर एक सहयोगी थोड़ा पीछे चला गया और एक पुत्र की भूमिका को ज्यादा आंका गया। मैं समझ सकता हूं कि उस वक्त हरीश रावत की राजनीति में, हरीश रावत की सक्रिय राजनीति और रणनीति ज्यादा महत्वपूर्ण थी, बनिस्पत मेरे करियर के। मैंने हरीश रावत की कार्यशैली को जो देखा है, मैं बड़ी बात कह रहा हूं, क्योंकि नेता पुत्रों-पुत्रियों में हिम्मत नहीं होगी कि मुख्यमंत्री पिता को एक सहयोगी के रूप में पेश करें। क्योंकि 2014 में जब आपदा आई थी तो मेरे पर कोई दबाव नहीं था। कोई आदेश नहीं था, लेकिन मुख्यमंत्री के सहयोगी के रूप में मेरा दायित्व था कि मैं 2013 की आपदा में अपने पार्टी के दायित्व को पूरा करूं। उस वक्त मैने निःस्वार्थ होकर केदारनाथ की आपदा में कार्य किए। मेरे वहां कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं थे क्योंकि मुझे उस क्षेत्र से चुनाव लड़ना नहीं था।
उत्तराखण्ड में आज सबसे अधिक गम्भीर सामाजिक और आर्थिक समस्याएं कौन सी हैं जिन पर आप प्राथमिकता से काम करना चाहते हैं?
उत्तराखण्ड में ग्रामीण पर्यटन की असीम सम्भावनाएं हैं। अगर मुझे सांसद या विधायक के तौर पर जिम्मेदारी मिली तो मैं इसमें ऐतिहासिक काम करके दिखाऊंगा। मैं शैक्षिक संस्थानों से जुड़े लोगों से भी आग्रह करता हूं कि उत्तराखण्ड आएं, प्रकृति का आनंद लें। लेकिन क्योंकि मैं किसी संवैधानिक पद पर नहीं हूं, इसलिए मेरी बात को ज्यादा तवज्जो नहीं मिलती। अखबार वाले भी मुझे ज्यादा तवज्जो नहीं देते। मैं क्या काम करता हूं क्या नहीं। मैंने आर्मी की भर्ती के लिए गीत गा दिए, नशे के खिलाफ गीत गा दिए। प्रदेश में नरभक्षी बाघों की समस्या और उससे बचने के लिए भी गीत गा दिए। लेकिन मीडिया के माध्यम से मैं अपनी बात को जनता तक नहीं पहुंचा पाया। अगर हम ग्रामीण पर्यटन को अमल में ला सकें तो उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था बहुत बेहतर होगी और साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं के रोजगार के नए साधन विकसित होंगे। जहां तक समाज की बात है तो हम देख रहे हैं सामाजिक मुद्दे उत्तराखण्ड की जनता की नजर में गौण हो गए हैं। क्योंकि स्थानीय मुद्दे ही समाज को परिलक्षित करते हैं। हम देखते हैं कि उत्तराखण्ड में केंद्र या राष्ट्र के मुद्दों पर मीडिया द्वारा जो नैरेटिव गढ़े जाते हैं, उस पर एक राय कायम कर लेते हैं। ऐसे में हम अपनी समस्याओं को भूल जाते हैं। आपको यह दिक्कत हिमाचल सहित अन्य हिमालयी राज्यों में नहीं मिलेगी। वे खुद की अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाए रखते हैं लेकिन हम अपनी क्षेत्रीय पहचान को खोते जा रहे हैं। हम अपने को राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कर लेते हैं। कश्मीर में समस्याएं हैं लेकिन वह देश और राज्य की समस्या है। जब विधानसभा चुनाव होते हैं तो हमारा वोट किस काम पर रहता है? कश्मीर के मुद्दे पर। ऐसे में हम उत्तराखण्ड के मुद्दों को भूल जाते हैं। हम भी तो इसी देश के हैं हमारी समस्याएं भी तो हैं, वह भी देश की ही समस्याएं हैं। क्या उत्तराखण्ड के किसी मुद्दे पर तमिलनाडु या यूपी वालों को वोट करते देखा है? नहीं, लेकिन हम वोट किस पर करते हैं बांग्लादेश के मुद्दे पर, ईरान-इजरायल के संघर्ष पर, पश्चिम बंगाल के मुद्दे पर जहां महिला अत्याचार पर हमारा खून खौलता है, लेकिन अंकिता भंडारी पर सब चुप हो जाते हैं। हरिद्वार में एक भाजपा की महिला नेत्री द्वारा अपनी पुत्री पर अत्याचार का मुद्दा नहीं बन पाता लेकिन कोलकाता कांड पर हम मोमबत्ती लेकर कैंडिल मार्च निकालते हैं तो मैं कहना चाहता हूं कि हम पलायन विकास के मुद्दे पर वोट नहीं कर रहे जो प्रतिदिन पलायन, नशा, विकास जैसे मुद्दों पर संघर्ष करते हैं उन्हें भी थोड़ा तवज्जो दीजिए। सामाजिक मुद्दे जनता के बीच से उठते हैं लेकिन अब उत्तराखण्ड की जनता सामाजिक मुद्दे भुला चुकी है।
यदि आपको पार्टी कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपती है, तो आपकी तीन सबसे प्रमुख प्राथमिकताएं क्या होंगी?
बड़ी जिम्मेदारी की बात क्या करें मैं तो हमेशा ऐसे ही पार्टी का जिम्मेदार सिपाही रहा हूं। संगठन की पदाधिकारी के तौर पर मेरी जिम्मेदारी रही है उसे मैंने ईमानदारी से पूरा करने का प्रयास किया। मेरे बाद के युवा कांग्रेस अध्यक्षों को चुनाव लड़ने का मौका मिला, जबकि मेरी सक्रियता किसी से भी कम नहीं थी फिर भी मैं उपेक्षित रहा। मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे चुनौतियां बहुत मिली, लेकिन मैं उन चुनौतियों की कसौटी पर खुद को कसता रहा। लेकिन उसके बाद भी मुझे वह तवज्जो नहीं मिली। मैंने अपना असंतोष कभी व्यक्त नहीं किया। लेकिन प्रदेश के संदर्भ में मुझे लगता है कि ग्रामीण पर्यटन के क्षेत्र में मैं ऐतिहासिक काम कर सकता हूं। साथ ही मैंने देखा है कि मैं ड्रग्स के क्षेत्र में भी अच्छा काम कर सकता हूं। उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ जैसे शहरों तक सूखा नशा पहुंच गया है। मुझे कई ऐसे लोग मिले जिनके बच्चे सूखे नशे के शिकार होकर अपनी जिंदगी खो बैठे। पहले पंजाब को उड़ता पंजाब कहते थे लेकिन अब यह स्थितियां उत्तराखण्ड में भी बढ़ने लगी है जो एक बहुत गम्भीर समस्या है।
युवाओं के पलायन रोजगार और जल, जंगल और जमीन के संरक्षण को लेकर आपकी दृष्टि क्या है?
देखिए, समय के अनुसार इस प्रदेश के मुद्दे बदले हैं। जब हम उत्तर प्रदेश में थे तो जल, जंगल और जमीन के मुद्दे हुआ करते थे। फिर राज्य बना तिवारी जी ने जंगल और जमीन को बचाने के लिए 500 मीटर जमीन खरीदने का कानून बनाया। खण्डूरी जी ने कम करके इसे ढाई सौ मीटर कर दिया। लेकिन जब त्रिवेंद्र रावत की सरकार आई तो उन्होंने इस बाधा को हटा दिया। आज धामी जी कहते हैं कि उन्होंने भू-कानून लागू किया, लेकिन यह देखने की बात है कि धामी जी के कार्यकाल में न जंगल बच रहे हैं, न जमीन बच रही है। जब जनता ने भी मुद्दों को पीछे छोड़ दिया है तो फिर जनप्रतिनिधि इसमें क्या कर सकते हैं? अभी पिछले दिनों ऋषिकेश में भाजपा के एक नेता ने वन क्षेत्र से लगी जमीन पर तारबाड़ कर दी, शिकायत करने पर उसे हटाया गया हकीकत यह है कि जनता अपने मूल मुद्दों से दूर हो चुकी है उसके लिए जल, जंगल और जमीन मुद्दे नहीं हैं। उसके लिए डेमोग्राफी में बदलाव मुद्दा है, उसके लिए हिंदू खतरे में है मुद्दा है। देखिए, हिंदू खतरे में कहां से है? आपके मुख्यमंत्री हिंदू हैं, उनके मंत्रिमंडल में शत-प्रतिशत मंत्री हिंदू हैं तो ऐसे में मुद्दे तय करना बड़ा मुश्किल हो जाता है लेकिन हमारे लिए अपनी मिट्टी, अपनी जमीन आज भी प्यारी है। हमारे लोग आज भी हमारे दिल के करीब हैं और अजीज हैं। अब समय आ गया है कि जनता ऐसे छद्म मुद्दों से हटकर अपने उत्तराखण्ड के मुद्दों पर लौटे। जल, जंगल और जमीन के मुद्दों पर लौटना पड़ेगा, नहीं तो उत्तराखण्ड अपनी पहचान को खो देगा।
क्या हरीश रावत पूरी तरह सक्रिय राजनीति से संन्यास ले रहे हैं या वे मार्गदर्शन की भूमिका में रहेंगे?
देखिए, उत्तराखण्ड और हरीश रावत एक दूसरे की पहचान हैं तो अगर उत्तराखंडियत को बचाना है और पल्लवित और पोषित करना है तो हरीश रावत और हरीश रावत जैसी सोच की उत्तराखण्ड को हमेशा जरूरत रहेगी।
उत्तराखण्ड की जनता में हरीश रावत एक भावनात्मक प्रतीक हैं आप कैसे सुनिश्चित करेंगे कि उसी भावनात्मक जुड़ाव की विरासत बनी रहे?
देखिए, विरासत एक नकारात्मक शब्द है। मुझे जो लगता है कि अयोग्यता को छुपाने के लिए इस शब्द का उपयोग किया जाता है। क्योंकि जिस बीज में दम होगा वह अंकुरित होगा लेकिन जिस बीज में दम नहीं होगा उसमें आप विरासत की कितनी भी खाद डाल दें वह अंकुरित हो ही नहीं सकता, मिट्टी में समा जाएगा। मुझे तो अभी पिताजी ने अपनी विरासत के विषय में कहा। लेकिन जब 2014-15 में मैं अपनी मुहिम चला रहा था, तो उस समय अघोषित विरासत का दावेदार मैं था क्या? इसलिए सार्वजनिक तौर पिताजी ने मेरी शैली, मेरे अस्तित्व को स्वीकारा होगा। लेकिन उसे उत्तराखंडियत के दरवाजे पर दस्तक में पहले दिन से दे रहा हूं और मेरी चुनौती है मेरे समकालीन या मेरे समक्ष कोई भी युवा नेता ने उत्तराखंडियत के दरवाजे पर ऐसी दस्तक दी हो तो, मेरी चुनौती है। उम्र के हिसाब से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और मैं समकक्ष हैं। वह मुख्यमंत्री बनने से पहले विधायक थे क्या उन्होंने अपने विधायक के रहते कभी ड्रग जैसी समस्या के खिलाफ कोई कार्यक्रम किया या एक भी बयान दिया? दूसरे जो भी नेता पुत्र, पुत्रियां या किसी विधायक का बयान उत्तराखंडियत के पक्ष में देखा? ठीक है, मैं राजनीतिक परिवार से आता हूं, यह मेरी कमजोरी नहीं ताकत ही होगी। लेकिन मैंने पहले भी अपनी पहचान बनाई। जब मैंने नशे के खिलाफ जंग चलाई तो ‘दि संडे पोस्ट’ एक मात्र अखबार था, जिसकी हैडलाइन थी ‘नशे को लेकर पिता पुत्र आमने-सामने’ बाकी किसी अखबार ने इसे छापने की या समझने की जहमत तक नहीं उठाई। मेरे प्रति लोगों की सोच बहुत संकीर्ण रही है। मेरे अस्तित्व को स्वीकारा ही नहीं गया। किसी भी पुत्र के पिता मुख्यमंत्री हों और उनकी विरासत कथित दावेदार हो, अपने पिता के फैसले और कार्यशैली के खिलाफ आवाज उठाई हो ऐसा देखने में कम ही आया है। मैंने अपना वजूद खुद और अस्तित्व अलग से बनाने की कोशिश की है। जो मुझे ठीक लगा उसकी सराहना की और जो गलत लगा उसकी आलोचना भी की। इसलिए पिताजी की विरासत तो है ही, लेकिन कोई उसका दावेदार अगर मुझे मानता भी है तो उसके लिए मैंने कई कसौटियों पर अपने को कसा है।
भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले उत्तराखण्ड में कांग्रेस को फिर से सशक्त करने के लिए आप किस तरह की रणनीति अपनाएंगे?
इस पर मैं क्या टिप्पणी करूं मैं तो एक छोटा-सा कार्यकर्ता हूं। लेकिन मैं जो करता हूं वो आपसे साझा कर सकता हूं। मैं आज भी काॅलेज/स्कूलों में जाता हूं क्योंकि वहीं हमारा नया मतदाता तैयार होता है। क्योंकि वही धरातल है वहीं आने वाली पीढ़ी का मतदाता है, हमें वहीं से पैठ बनानी होगी। हमारी पार्टी के कितने ही बड़े पदों पर लोग क्यों ना हो उन्हें भी इन स्कूलों में जाकर बात करनी चाहिए। सामाजिक बातों के साथ-साथ उन्हें अपनी विचारधारा से भी अवगत कराना जरूरी है क्योंकि इस समय मुकाबला भारतीय जनता पार्टी से है, जिसके मातृ संगठन आरएसएस के अभी भी सरस्वती मंदिर, शिशु मंदिर के रूप में स्कूल चल रहे हैं, जहां वह अपनी विचारधारा को पोषित करने का जरिया ढूंढते हैं। अगर आप अपने को विधानसभा तक ही सीमित रखेंगे तो ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, अभी चुनाव जीत जाएंगे, दूसरा चुनाव जीत जाएंगे, लेकिन अपने क्षेत्र के लिए आप क्या छोड़कर जाएंगे तो इसलिए हमारे नेताओं को चाहिए कि पूरे प्रदेश में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाएं सिर्फ एक विधानसभा तक सीमित न रहें। क्योंकि पुरानी पीढ़ियों का दौर जाएगा तो नया नेतृत्व विकसित करना भी तो पार्टी की जरूरत है तो आगे नेतृत्व करने के लिए एक लम्बी कतार होनी चाहिए जिस पर कांग्रेस पार्टी को गर्व हो। कांग्रेस का मजबूत होना सिर्फ उत्तराखण्ड की ही नहीं पूरे देश की जरूरत है।
राजनीति के इतर आपकी व्यक्तिगत रुचियां क्या हैं? संगीत साहित्य या फिर कुछ और?
मुझे बांसुरी बजाना बहुत अच्छा लगता है। शौकिया तौर पर क्रिकेट बैडमिंटन खेल लेता हूं। थोड़ा बहुत कविता या गीत लिखने का भी शौक है।
आपने पिता से अब तक कौन सी तीन मूल्यवान सीखें ग्रहण की हैं?
एक तो हार कभी मत मानना। क्योंकि जैसा मैं अभी तक राजनीतिक रूप से उपेक्षा का शिकार रहा, कोई और व्यक्ति होता तो वह अवसाद में चला जाता या उम्मीद छोड़ चुका होता। उन्हीं की सीख धैर्य संयम और उम्मीद ना खोने और हार ना मानने की सीख के चलते आज मैं धरातल पर खड़ा हूं। जब लक्ष्य बड़ा हो तो उसके लिए धैर्य और इंतजार भी बड़ा होना चाहिए। तीसरा जिंदगी की यही रीत है हार के बाद जीत है।
उत्तराखण्ड कांग्रेस में एक लम्बे समय से एकता की कमी रही है, वरिष्ठ और युवा नेताओं के बीच संवादहीनता और आंतरिक कलह की बातें सामने आती रही हैं?
हमें अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए अपनी विधानसभा क्षेत्र से निकालकर पूरे राज्य के संदर्भ में सोचना चाहिए। जो व्यक्ति केवल अपनी विधानसभा तक ही सीमित रहेगा तो जनता इसका आकलन उसकी विधानसभा स्तर तक ही करेगी। क्योंकि जनता को बड़ा पद वाला नेता चाहिए होता है अपने क्षेत्र में। हमारे विधायक हैं आज चुनाव लड़ने वाले हैं उन्हें जनता के बीच में संदेश देना चाहिए कि अगली सरकार कांग्रेस की आने वाली है और उन्हें उसमें अच्छा पद मिलने वाला है। आपकी पूरे प्रदेश स्तर पर सक्रियता दिखानी चाहिए उत्तर प्रदेश को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर भी आपकी सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए।