Uttarakhand

उत्तराखण्ड राज्य निर्वाचन आयोग: तार-तार हुई साख

स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी का त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव व्यवस्था को लेकर दृष्टिकोण अत्यंत दूरदर्शी, लोकतांत्रिक और जमीनी विकास को प्राथमिकता देने वाला था। उन्होंने यह महसूस किया था कि देश में वास्तविक लोकतंत्र तब तक नहीं आ सकता जब तक सत्ता को गांवों तक विकेंद्रीकृत न किया जाए। उनके विचारों का मूल आधार यही था कि लोकतंत्र का सबसे सशक्त रूप गांवों के लोगों के हाथ में होना चाहिए। राजीव गांधी की यह लोकतांत्रिक कल्पना आज उत्तराखण्ड में व्यावहारिक रूप से ध्वस्त होती दिख रही है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में सरकार द्वारा की जा रही हस्तक्षेप की कोशिशें, राज्य चुनाव आयोग की भूमिका पर उठते सवाल और ग्राम पंचायतों के अधिकारों को कुंद करने वाले फैसले, उस मूल विचार का अपमान हैं जिसे राजीव गांधी ने लोकतांत्रिक भारत की बुनियाद मानकर प्रस्तुत किया था। यह भी गम्भीर विषय है कि राज्य निर्वाचन आयोग जो एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है, सत्ता पक्ष के दबाव में कार्य करता दिख रहा है। जैसे कि उम्मीदवारों की अयोग्यता तय करने में पक्षपात, आरक्षणों का मनमाना निर्धारण और नामांकन प्रक्रिया में बाधाएं। ऐसे में राजीव गांधी का यह कथन विशेष रूप से प्रासंगिक हो जाता है- ‘‘अगर हम सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं करेंगे तो विकास की कोई योजना अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंचेगी। उनके द्वारा, उनके लिए और उन्हीं के नियंत्रण में’’


उत्तराखण्ड के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में जितना पंचायती राज अधिनियम का माखौल उड़ाया गया है सम्भवतः आज तक किसी राज्य में नहीं बनाया गया होगा। देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध उत्तराखण्ड में रामचरित्र मानस की समरथ को नहीं दोष गुसाईं चैपाई को पूरी तरह से आत्मसात करने वाला प्रदेश का निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता कठघरे में है। हैरत की बात यह है कि जहां एक ओर ‘एक देश, एक चुनाव’ की तरफ बढ़ रहा है तो वहीं उत्तराखण्ड राज्य निर्वाचन आयोग एक छोटे से प्रदेश में भी दो चरणों में पंचायत चुनाव करवा रहा है। जबकि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक ही चरण में सम्पन्न होते रहे हैं। राज्य बनने के बाद पहली बार राज्य निर्वाचन आयोग की कार्यशैली पर संदेह तो जताया ही जा रहा है साथ ही हाईकोर्ट के कई आदेशों से भी साफ हो गया है कि निर्वाचन आयोग निकाय से लेकर पंचायत चुनाव सही और कानून के तहत करवाने में असफल रहा है।


गौरतलब है कि कुछ माह पूर्व ही स्थानीय निकायों के चुनाव सम्पन्न हुए हैं जिसमें राज्य निर्वाचन आयोग पर गम्भीर आरोप लग चुके हैं। आरक्षण को लेकर भारी विवाद के चलते राज्य सरकार और आयोग के खिलाफ रोष भी देखने को मिला। यही नहीं निकायों की मतदाता सूचियों में भारी गड़बड़ी और हजारों लोगों के नाम मतदाता सूची से काटे जाने पर खासा विवाद भी सामने आ चुका है। अब त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में भी यही सब कुछ देखने को मिल रहा है। दिलचस्प बात यह है कि निकाय चुनावों में आरक्षण को लेकर जो विवाद सामने आए थे, वही विवाद पंचायत चुनाव में भी सामने आए हैं।

हाईकोर्ट के दखल बाद आखिरकार राज्य में पंचायत चुनाव का रास्ता तो बना लेकिन इसमें भी तमाम तरह की खामियां सामने आने लगी। कभी आरक्षण को लेकर विवाद सामने आए तो कभी चुनावी कार्यक्रम पर भी सवाल उठने लगे। इसके अलावा निकाय के मतदाताओं के पंचायत चुनाव लड़ने का भी विवाद सामने आया जिससे न सिर्फ निर्वाचन आयोग, बल्कि सरकार की नियत पर भी संदेह जताया जाने लगा। हालात इतने विकट हैं कि पंचायत चुनावों को लेकर हाईकोर्ट को हर मामले में दखल देना पड़ा। राज्य निर्वाचन आयोग को कई मर्तबा कड़ी फटकार भी लगानी पड़ी है।

मनमाफिक तरह से आरक्षण रोस्टर लागू करने और आपत्तियों का सही से निपटारा न करने के आरोप खुलकर निर्वाचन आयोग पर लगे हैं। खास बात यह है कि ओबीसी आरक्षण को लेकर जहां सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग तमाम तरह के दावे तो करता रहा है लेकिन इस मामले में भी गम्भीर लापरवाही की बातें सामने आ चुकी हैं।

ओबीसी आरक्षण को लेकर सरकारी तंत्र कितना गम्भीर है इसका ज्वलंत प्रमाण है पौड़ी गढ़वाल जिले के कल्जीखाल विकास खंड की डांगी ग्राम सभा जहां ग्राम प्रधान का पद ओबीसी आरक्षित कर दिया गया। हैरत की बात यह है कि डांगी ग्राम सभा में वर्ष 2014 से लेकर अभी तक एक भी ओबीसी प्रमाण पत्र नहीं बनाए गए हैं जिस कारण से डांगी में एक भी ओबीसी नहीं है। इसके चलते एक भी उम्मीदवार नामांकन नहीं कर सका। इस मामले में ग्रामीणों द्वारा अनेक बार जिला प्रशासन और निर्वाचन आयोग के सामने रखा और आपत्ति भी दर्ज करवाई लेकिन इसका कोई समाधान नहीं निकाला गया। अब डांगी ग्राम सभा में ग्राम प्रधान का चुनाव नहीं होगा, केवल क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत तथा ग्राम सभा सदस्यों का ही चुनाव होगा। इतना ही नहीं ग्राम पंचायत और क्षेत्र पंचायत में तो ओबीसी आरक्षण को लागू किया गया है लेकिन जिला पंचायत को ओबीसी आरक्षण से मुक्त रखा गया है। 12 जिलों में जिला पंचायत अध्यक्ष की एक भी सीट पर ओबीसी आरक्षण लागू नहीं किया गया है। जबकि ब्लाॅक प्रमुखों पर ओबीसी आरक्षण तय किया गया है। आयोग का यह दोहरा रवैया किसी के समझ में नहीं आ रहा है। एक से अधिक मतदाता सूची वाले उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने के मामले में भी राज्य निर्वाचन आयोग की साख पर सवाल उठ रहे हैं। जबकि इस मामले में हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई बाद साफ और स्पष्ट आदेश जारी किए हुए है। इसके बावजूद निर्वाचन आयोग पुरानी नीति पर ही काम कर रहा है।

दरअसल यह पूरा मामला स्वयं राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा दो अलग-अलग आदेशों के चलते विवादों में आया है। आयोग के सचिव राहुल कुमार गोयल द्वारा 27 जून को प्रदेश के 12 जिलों के जिलाधिकारी/ जिला निर्वाचन अधिकारियों को पत्र जारी किया गया जिसमें निकाय चुनाव की मतदाता सूची में शामिल उम्मीदवारों के पंचायत चुनाव मतदाता सूची में भी नाम दर्ज होने पर उनके चुनाव में वोट देने और चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का उल्लेख किया गया था। साथ ही यह भी उल्लेख किया गया था कि यदि ऐसे उम्मीदवारों ने नामांकन किया है तो उनका नामांकन रद्द किया जाए। सचिव राहुल गोयल के इस पत्र में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि अनुचित दबाव में नामांकन रद्द न किए जाने पर पोलिंग बूथों पर पर्याप्त सुरक्षा करने की भी बात कही गई है यानी सचिव को इस तरह से नामांकन रद्द करने पर विवादों का भी पूरा अंदेशा था।

हैरत की बात यह है कि सचिव राहुल कुमार गोयल दस दिनों के बाद अपने ही आदेश को पलटते हैं और 6 जुलाई को सभी 12 जिलों के जिला निर्वाचन अधिकारियों को नया आदेश जारी करते हुए निकाय चुनाव मतदाता सूची में नाम दर्ज होने वाले उम्मीदवारों का नामांकन रद्द न करने पर राहत देते हुए पत्र मे उल्लेख किया कि ‘‘किसी प्रत्याशी का नाम निर्देशन पत्र केवल इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जाएगा कि उसका नाम एक से अधिक ग्राम पंचायतों/प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों/ नगर निकायों की निर्वाचन नामावली में सम्मिलित है।’’ सचिव ने अपने इस पत्र का आधार राज्य पंचायतीराज अधिनियम में वर्ष 2021 में हुए संशोधन के तहत बताते हुए यह पत्र जारी किया है। आयोग के दस दिन में ही अपने आदेश को पलटने से राज्य में हंगामा खड़ा हो गया। सत्ताधारी भाजपा पर अपने चहेते नेताओं को चुनाव के योग्य बनवाने और उनकी जीत सुनिश्चित करने के लिए निर्वाचन आयोग पर मनमाफिक आदेश देने के आरोप लगने लगे। धामी सरकार की मंशा पर भी गम्भीर आरोप लगाए जाने लगे।

इसी बीच मामले को लेकर देहरादून के पत्रकार शक्ति सिंह बर्तवाल द्वारा हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई जिस पर हाईकोर्ट ने 11 जुलाई को अपना निर्णय दिया जिसमें एक से अधिक मतदाता सूची में नाम दर्ज होने वाले उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने पर पंचायती राज अधिनियम की धारा 9 उपधारा 6 और 7 का उल्लंघन  बताया। हाईकोर्ट के इस निर्णय के बाद निर्वाचन आयोग अपने 6 जुलाई के आदेश को रद्द करने के बजाय फिर से दो से अधिक मतदाता सूची में नाम दर्ज होने वाले उम्मीदवारों के मामले में स्पष्ट आदेश जारी करने की मांग को लेकर हाईकोर्ट की शरण में गया लेकिन हाईकोर्ट ने आयोग को कोई राहत नहीं दी और साफ तौर पर अपने 11 जुलाई के आदेश को ही यथावत रखते हुए स्पष्ट किया कि एक से अधिक मतदाता सूची में नाम होना पंचायती राज अधिनियम 2016 की धारा 9 उपधारा 6 और 7 का उल्लंघन है। इस धारा में स्पष्ट उल्लेख है कि एक प्रादेशिक क्षेत्र में एक ही पंजीकरण की व्यवस्था है। इसमें यह भी स्पष्ट है कि अगर किसी को दूसरे निर्वाचन क्षेत्र में अपना नाम दर्ज करवाना है तो पहले निर्वाचन क्षेत्र से अपना नाम कटवाना होगा। हाईकोर्ट ने यह भी साफ किया है कि जो प्रत्याशी दो जगह पर मतदाता है और अगर उनकी स्क्रूटनी नहीं होती है तो वे शपथ पत्र देंगे कि अगर उनके दो जगह वोटर लिस्ट में नाम होने की शिकायत आती है तो उनका निर्वाचन अधिनियम के तहत निरस्त माना जाएगा साथ ही हाईकोर्ट ने यह भी साफ कर दिया कि 6 जुलाई के निर्वाचन आयोग के पत्र पर कार्यवाही नहीं होती है तो उसे हाईकोर्ट की अवमानना माना जाएगा।

शक्ति सिंह बर्तवाल ने निर्वाचन आयोग को दो से अधिक मतदाता सूची  में नाम दर्ज होने वाले 500 उम्मीदवारों की सूची सौंपी है जिससे मामला बेहद दिलचस्प हो गया है। हाईकोर्ट ने अपने आदेश  में साफ कर दिया था कि ऐसे उम्मीदवारों जिनके नाम दो से अधिक मतदाता सूची में दर्ज हैं और उनकी शिकायत होती है तो पंचायती राज अधिनियम के तहत कार्यवाही होगी। परंतु हाईकोर्ट के आदेश बाद राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा अपने 6 जुलाई के पत्र को न तो रद्द किया है और न ही ऐसे उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाई है। यहां तक कि ऐसे उम्मीदवारों से कोई शपथ पत्र तक नहीं मांगा गया है। आयोग की लचर कार्यप्रणाली के चलते करीब-करीब सभी उम्मीदवार चुनावी मैदान में डटे हुए हैं और उनका चुनावी भविष्य 24 और 28 जुलाई को मतदाताओं द्वारा तय किया जाएगा। 1,361 ग्राम प्रधान और 22,429 अन्य पदों के उम्मीदवार निर्विरोध जीत चुके हैं। इसके चलते अब 11,082 पदों के लिए 32,580 उम्मीदवार चुनावी मैदान में डटे हुए हैं। जिसमें पहले चरण में 17,829 और दूसरे चरण में 14,751 उम्मीदवारों का चुनावी भाग्य मतदाता तय करेंगे।

पंचायत चुनावों में एक बात साफ तौर पर सामने आ चुकी है कि राज्य का निर्वाचन आयोग हाईकोर्ट से लगातार फटकार खाने के बाद भी अपने में सुधार नहीं ला पा रहा है। एक मामला चुनाव चिन्ह आवंटन से पूर्व ही दो करोड़ बैलेट पत्र छपवाने का मामला भी सामने आया है।

हाईकोर्ट ने इस पर भी हैरानी जताई है। हालांकि इस मामले में राज्य निर्वाचन आयोग के सचिव द्वारा स्पष्टीकरण दिया गया है जिसमें कहा गया है कि पंचायत चुनाव के पत्रों में उम्मीदवारों के नाम की जगह आवंटित चुनाव चिन्ह पर ही होते हैं इसलिए 6, 9 और 12 का बैलेट पेपर छापा गया है। जहां जितने उम्मीदवार होंगे उसी हिसाब से बैलेट पेपर उपलब्ध करवाए जाते हैं। अगर किसी स्थान पर पांच उम्मीदवार होंगे तो छह वाला बैलेट पेपर दिया जाएगा जिसमें एक को फाड़ कर हटा दिया जाएगा।

रिटर्निंग अधिकारियों पर गम्भीर आरोप

त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में रिटर्निंग अधिकारियों पर मनमानी करने व सत्ताधारी भाजपा के इशारों पर काम करने के गम्भीर आरोप लग रहे हैं। विरोधी उम्मीदवारों के नामांकन पत्रों को मनमर्जी से रद्द करने और भाजपा के उम्मीदवारों की चुनाव में राह आसान करने के कारनामे पहली बार देखने में आए हैं हैं। इसकी सबसे बड़ी बानगी टिहरी जिले के विकास खंड भिलंगना के अखोड़ी जिला पंचायत सदस्य सीट के तौर पर सामने आई है। इस सीट पर एक साथ 7 उम्मीदवारों का नामांकन रिटर्निंग अधिकारी द्वारा रद्द कर दिया गया। इनमें चार ऐसे उम्मीदवारों का नामांकन इस आधार पर निरस्त किया गया कि उनके घनशाली नगर पंचायत की मतदाता सूची में भी नाम दर्ज थे यानी वे सभी चारों उम्मीदवार निकाय चुनाव में भी मतदाता थे। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा की उम्मीदवार और दो बार लगातार जिला पंचायत अध्यक्ष रही सोना सजवाण का नाम भी घनशाली नगर पंचायत की मतदाता सूची में दर्ज होने के बावजूद, उनका नामांकन स्वीकार कर लिया गया। एक उम्मीदवार द्वारा नाम वापस लेने के बाद सोना सजवाण के विरोध में कोई उम्मीदवार ही नहीं रहा तो उन्हें निर्विरोध जीता हुआ मान लिया गया।

अखोड़ी जिला पंचायत सीट का मामला साफ तौर पर चुनाव में धांधली और एक खास उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने के लिए निर्वाचन कर्मियों द्वारा रचा गया खेल के तौर पर सामने आया है। 8 जुलाई को नामांकन पत्रों की जांच स्क्रूटनी हुई और सभी नामांकन करने वाले उम्मीदवारों को क्रमांक और रसीद जारी कर दी गई। इससे एक बात तो साफ हो गई कि सभी उम्मीदवारों के नामांकन सही पाए गए और उनमें किसी प्रकार की कोई खामियां नहीं थी। लेकिन 9 जुलाई को एक उम्मीदवार द्वारा दो से अधिक स्थानों में मतदाता सूची में नाम दर्ज होने की शिकायत की गई। टिहरी जिला निर्वाचन मानों इसी पत्र का ही इंतजार कर रहा था और पत्र मिलते ही तत्काल उम्मीदवारों को टेलीफोन कर के 9 जुलाई को अपराह्न तीन बजे तक जिला निर्वाचन अधिकारी नई टिहरी के सम्मुख उपस्थित होने का आदेश दिया गया। जैसे-तैसे उम्मीदवार जिला निर्वाचन अधिकारी के सम्मुख पहंचे तो उन सभी को नोटिस दे दिया गया जिसमें उनके नामांकन को निरस्त करने का कारण बताया गया था। लेकिन उम्मीदवारों से उनका जवाब लेने से साफ मनाकर दिया गया। इस मामले में एक बात यह भी देखने को मिली कि जिला निर्वाचन अधिकारी जिलाधिकारी टिहरी देहरादून चली गई थीं और सहायक निर्वाचन अधिकारी भी अपनी सीट पर नहीं थे। उम्मीदवार अपना पक्ष किसी के समक्ष नहीं रख पाए और उनका नामांकन रद्द कर दिया गया।
इस मामले में सभी नियमों को ताक पर रखा गया। नियम के अनुसार शिकायत करने वाला ग्राम सभा का ही निवासी होना और उसे प्रत्याशी भी नहीं होना चाहिए जबकि इस मामले में शिकायतकर्ता उम्मीदवार था। दूसरा उम्मीदवारों को नोटिस जारी किया गया लेकिन उनका पक्ष नहीं सुना गया। भाजपा उम्मीदवार सोना सजवाण का नामांकन रद्द नहीं किया गया जबकि शेष चारों उम्मीदवारों का नामांकन निरस्त करने के पीछे दो से अधिक मतदाता सूची में नाम दर्ज होना बताया गया। जबकि सोना सजवाण का भी नाम दो मतदाता सूची में दर्ज होने की शिकायत की गई थी। लेकिन सोना सजवाण को निर्विरोध विजयी घोषित कर दिया गया। हालांकि
हाईकोर्ट ने दो से अधिक निकाय मतदाताओं की सूची में नाम के मामले में दिए गए आदेश के बाद सोना सजवाण को जीत का प्रमाण तो नहीं दिया गया है लेकिन अखोड़ी सीट पर जिला पंचायत सदस्य का चुनाव नहीं हुआ। इसलिए कहा नहीं जा सकता कि सोना सजवाण को जीता हुआ माना जाएगा या फिर से इस सीट पर उपचुनाव होगा, यह पंचायत चुनाव के परिणाम आने के बाद ही साफ होगा।

रिटर्निंग अधिकारियों की मनमानी का एक और प्रमाण अखोड़ी की क्षेत्र पंचायत सदस्य कुसुम कोठियाल के मामले में भी देखने को मिला है।  नामांकन रिटर्निंग अधिकारी द्वारा महज इस बात पर निरस्त कर दिया गया कि उम्मीदवार के घर में शौचालय नहीं है और शौचालय 150 मीटर दूर है। इस मामले में भी हाईकोर्ट ने रिटर्निंग अधिकारी की आलोचना करते हुए कुसुम कोठियाल का नाम मत पत्र में शामिल करने और चुनाव चिन्ह आवंटन करने का आदेश दिया है। पंचायत चुनाव में उम्मीदवारों के घर में शौचालय न होने से चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने पर प्रतिबंध है लेकिन उम्मीदवार के घर में शौचालय 150 मीटर दूर होने के बाद भी रिटर्निंग अधिकारी ने नामांकन निरस्त कर दिया यह साफ दर्शाता है कि रिटर्निंग अधिकारी किस तरह से मनमाफिक निर्णय ले रहे हैं। इसी तरह से जौनपुर क्षेत्र की भुत्सी जिला पंचायत सदस्य सीट पर सीता देवी मनवाल का नामांकन रिटर्निंग अधिकारी द्वारा इस बात पर निरस्त कर दिया गया कि उनका सहकारी समिति द्वारा जारी नो डयूज (अदेयता प्रमाण पत्र) संदिग्ध है। हैरानी की बात यह है कि एक मात्र विरोधी उम्मीदवार सरिता देवी द्वारा रिटर्निंग अधिकारी को शिकायत की गई कि सीता देवी मनवाल का अदेयता प्रमाण पत्र फर्जी होने की आशंका है। रिटर्निंग अधिकारी द्वारा तत्काल ही बगैर किसी जांच के सीता देवी मनवाल का नामांकन रद्द कर दिया गया और सरिता देवी को निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर दिया गया। इस मामले में भी हाईकोर्ट ने रिटर्निंग अधिकारी द्वारा जांच किए बगैर सीधे नामांकन निरस्त करने की बात मानते हुए सीता देवी का नामांकन स्वीकार करने का आदेश जारी करके सीता देवी को राहत दी है।

बात अपनी-अपनी

    यह अत्यंत खेदजनक है कि माननीय उच्च न्यायालय द्वारा पारित स्पष्ट स्थगन आदेश के बावजूद राज्य निर्वाचन आयोग ने इस विषय में कोई प्रभावी या ठोस कार्रवाई नहीं की। यह न केवल न्यायिक आदेशों की सीधी अवहेलना है, बल्कि इससे लोकतांत्रिक मूल्यों, संवैधानिक मर्यादाओं और मतदाताओं के मौलिक अधिकारों का भी घोर उल्लंघन हुआ है। आयोग की यह हठधर्मी और गैर-जवाबदेह कार्यप्रणाली त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में अराजकता का वातावरण निर्मित कर रही है, जो राज्य में लोकतंत्र की नींव को हिलाने वाला और संवैधानिक शासन के लिए गम्भीर चुनौती है। राज्य निर्वाचन आयोग का यह रवैया लोकतांत्रिक प्रणाली के पतन की चरम स्थिति का प्रतीक बनता जा रहा है, जिसकी उच्च स्तरीय न्यायिक समीक्षा एवं सार्वजनिक उत्तरदायित्व आवश्यक है।
शक्ति सिंह बर्तवाल, पत्रकार व याचिकाकर्ता

पंचायत चुनाव पंचायती राज एक्ट के अनुसार ही हो रहे हैं, इसमें जो भी संशोधन हुए हैं वह कांग्रेस सरकार के द्वारा 2016 में किए गए थे, उसी के आधार पर चुनाव हो रहे हैं, कांग्रेस की संवैधानिक संस्थाओं पर सवाल उठाने की आदत रही है। चाहे न्यायालय हो, सीबीआई हो ईडी हो या चुनाव आयोग, हर एक संवैधानिक संस्था पर कांग्रेस आरोप लगा देती है, कांग्रेस बुरी तरह से हार रही है इसलिए इस तरह के ऊल जलूल आरोप लगा रही है।
मनवीर सिंह चौहान, मुख्य प्रवक्ता, भाजपा, उत्तराखण्ड

राज्य निर्वाचन आयोग ने प्रदेश की जनता को बहुत निराश किया, उसने सीधे तौर पर राज्य सरकार के प्रवक्ता या भोपू की तरह काम किया है। पहले ही त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव राज्य में 7 महीने विलम्ब से हो रहे हैं और भारी बरसात में चुनाव करा कर राज्य सरकार चुनाव ड्यूटी कर रहे शिक्षकों और मतदान करने वाले राज्यवासियों की जान जोखिम में डाल रही है। राज्य निर्वाचन आयोग को जिस तरह से उच्च न्यायालय की तल्ख टिप्पणी का सामना करना पड़ रहा है वह अपने आप में शर्मसार करने वाला है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में उत्तराखण्ड भाजपा बुरी तरह से पीछे जाएगी क्योंकि ग्रामीण अंचल की जनता भाजपा की नीतियों से बहुत परेशान है। उनके खेत और उत्पाद जंगली जानवर चट कर जाते हैं। उनके बच्चों और उनकी जान को जंगली जानवरों से खतरा बना रहता है। अग्नि वीर योजना के चलते सबसे ज्यादा ग्रामीण लोग परेशान हैं पेपर लीक और भर्ती घोटाले उनके होनहार बच्चों के भविष्य को संकट में डाल रहे हैं।
गरिमा मेहरा दसौनी, मुख्य प्रवक्ता, उत्तराखण्ड कांग्रेस

   उत्तराखण्ड जैसे पहाड़ी राज्य में, जहां भौगोलिक और सामाजिक चुनौतियां पहले से मौजूद हैं, निर्वाचन आयोग से अपेक्षा थी कि वह अपनी प्रक्रियाओं को और अधिक पारदर्शी और समावेशी बनाए। लेकिन 2025 में बार- बार सामने आई खामियों ने आयोग की कार्यक्षमता पर गम्भीर सवाल खड़े किए। यदि लोकतंत्र को मजबूत करना है, तो आयोग को अपनी कार्यप्रणाली में सुधार, डेटा प्रबंधन को सुदृढ़ और जनता के साथ संवाद को और प्रभावी करना होगा। स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों के संचालन में आयोग की कुछ कार्रवाइयों ने न केवल इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाए, बल्कि लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर भी आघात पहुंचाया।
शिव प्रसाद सेमवाल, अध्यक्ष, राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी उत्तराखण्ड

यह मामला अभी न्यायालय में है इसलिए इस पर मेरा बोलना उचित नहीं है।
राहुल गोयल, सचिव, राज्य निर्वाचन आयोग उत्तराखण्ड

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