हैड़ाखान बाबा की समाधि में मस्तक टेकने के बाद मुझे अचानक लगा कि मेरे कंधों में कुछ हल्कापन-सा आया। भीतर जाते ही पंडित जी ने मस्तक पर चंदन लगाया। उस शीतलता ने मेरे भीतर जल रहे बेहद भावुक कष्ट की अग्नि को शीतल कर दिया। उसके पश्चात मुझे बहुत देर तक ऐसा प्रतीत हुआ कि ये दूसरा संकेत था कि बाबा से मेरा कोई गहरा नाता अवश्य है। वो चंदन मुझे किसी दिमागी अवसाद को प्रारम्भिक अवस्था में मिलने वाली दवाई सा असरदार लगा। आज छह महीने हो गए मैं रोजाना शिवजी और बाबा की तस्वीर पर चंदन घिसकर उसके लेप से श्रृंगार के पश्चात अपने मस्तक पर उसे अवश्य लगाती हूं। वो मुझे चेतन, जागृत रखता है
श्वेता मासीवाल
सामाजिक कार्यकर्त्ता
मैंने कहीं पढ़ा था कि शिव की भक्ति जितनी सहज लगती है उतनी ही गूढ़ है। पहले शिव आपको एकदम अकेला कर देते हैं। आपके जीवन में ढेर सारे कष्ट एक साथ आ जाते हैं और फिर जब नेत्रों में शिव के लिए भाव से आंसू आते हैं उसी जलाभिषेक से शिव आपको ऐसा स्थिर करते हैं, फिर दुनिया का सतही प्रभाव आप पर पड़ना कम हो जाता है। पिछले एक महीने में कुछ ऐसी ही स्थिति से मैं दो-चार हो रही थी और होना यही था इसलिए क्योंकि उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज में मैंने हैड़ाखान बाबा के विषय में लिखने का सोच लिया था। सच यह कि जिस प्रकार के झंझावात मेरे जीवन में आए मैं सीधा बाबा की समाधि पर जा पहुंची और वहां जाकर जलाभिषेक किया। जलाभिषेक जो भीषण मंथन के बाद ही आप कर पाते हैं और तब अंतत: मेरे भीतर उस शक्ति का थोड़ा संचार हुआ है कि मैं लिखने लायक बन पाई हूं। ऐसा भी हो पाया है या नहीं यह भी पाठक तय करेंगे।
हैड़ाखान बाबा के आश्रम में लेखिका
मेरे लिए ये किसी चमत्कार से कम अनुभव नहीं रहा है क्योंकि सौभाग्य से मेरा ननिहाल रानीखेत है, घर के आंगन से ही दूर सफेद मार्बल से बना चिडिय़ानौला स्थित हैड़ाखान मंदिर सुबह उठते ही दिखता था। कई दफा हम वहां जाते भी थे। तब मुझे बस ये पता था कि कोई हैड़ाखान बाबा बहुत पहले आए, फिर ये नए बाबाजी आए और ये स्थान बना। सत्य कहूं तो मेरी रुचि सायंकालीन आरती के बाद मिलने वाले प्रसाद में अधिक रहती थी। मैंने वहां शम्मी कपूर साहब को बड़ी रुद्राक्ष माला पहने घूमते देखा है। उन्हीं दिनों प्रियंका चोपड़ा विश्व सुंदरी बनते ही वहां पहुंची थी, बस इतना ही मुझे पता था। पुराने रील वाले कैमरे में कुछ तस्वीरें भी हैं जहां मैं मात्र उस स्थल को एक पर्यटन स्थल समझ अपने पूर्ण बालपन की सीमित समझ के साथ बैठी हूं।
फिर बचपन के दिन बीते तो रानीखेत जाना कम हो गया लेकिन 2014 में पुन: एक दिन वहां जाना हुआ और प्रांगण में स्थित भक्त वत्सल नंदी बैल ने मुझे आकर्षित किया। ऐसा लगा मुझे उनके कानों में कुछ कहना चाहिए। मैंने कहीं सुन लिया था कि शिव बाबा के पास कोई संदेश पहुंचाना हो तो नंदी के कानों में कह दो। बस मैंने यही किया। इसी भाव से कि सुना तो ठीक, नहीं सुना तो भी ठीक। उसके एकदम बाद मेरे जीवन में एक घटना घटित हुई। थोड़ी निजी है जिसमें आपकी रुचि नहीं होगी, परंतु इस घटना के घटते हुए मेरा अवचेतन मस्तिष्क मुझे आश्रम की याद दिला रहा था। सनद रहे जो घटना घट रही थी वो मेरी दुनियावी माया में फंसी हुई मंशा के एकदम विपरीत थी। मगर ये मेरे मन में नहीं आया कि मेरे मांगने का ये फल मुझे क्यों मिला? क्योंकि एक तो मैंने बहुत दिल से कुछ मांगा नहीं था, दूसरा जैसा कि हम बच्चों को सिखा दिया जाता है कि मंदिर जाकर बस मांग लो। आधे-अधूरे मन से जैसे भी हो। न मैं तब तक अभिव्यक्ति की शक्ति (Power of Manifestation) के प्रभाव को समझी थी।
इसके बाद मेरा रानीखेत की तरफ जाना भी नहीं हुआ। लेकिन मेरे भीतर एक भूख जाग उठी थी। मैं उन दिनों मुम्बई के नाला सुपारा स्थित एक अन्य सिद्ध आश्रम में जाने लगी थी। पहली बार वहां बैठे संत ने मुझसे मेरा मूल स्थान पूछा तो मैंने कहा उत्तराखण्ड। अघोर पंथ के वो संत एकदम सहज भाव से बोले, ‘अरे तुम तो शिव जी के ससुराल से हो।’ जैसे शिव जी उनके कोई निजी परिजन हो। सत्य तो यही है पर हम इससे आत्मसात नहीं कर पाते। खैर, फिर अंतत: 2018 में मेरी मां कैंसर जैसी भयानक बीमारी से चल बसी और जैसा अमूमन होता है मां के बाद ननिहाल से नाता हल्का हो जाता है। रानीखेत, दूनागिरी आदि अब बस मेरी स्मृतियों में था। मां एक परम शिव भक्त थीं। अपने जाने से दो घंटे पहले उखड़ी सांसों से बोली थी, ‘मेरे मोक्ष के लिए तू ही मुझे मुखाग्नि देना और महामृत्युंजय का जाप करना।’ मौत को इतनी सहजता से कोई संत ही स्वीकारता है। खैर ये करनी भी हो गई और अभी मैं इस दुख से उबर ही रही थी कि इस दुख की गहराई समझने वाली मेरी मां की मां भी एक साल होते-होते चल बसी। मैंने कभी अपने परिजनों की मृत्यु पर समाज के सामने रुदन नहीं किया है, पर नानी की प्राणरहित देह को देख मैं शायद जीवन में पहली बार इतने लोगों के सामने जोर से रोई। मुझे लगा अब रानीखेत और दूनागिरी से मेरा नाता हमेशा के लिए खत्म हो गया। इसके दो महीने के भीतर मेरे भाई सुदीप की स्मृति को सहेजने के उद्देश्य से बनाए ‘वत्सल फाउंडेशन’ ने एम्स के साथ रानीखेत में मेडिकल कैम्प लगाया। इसके पीछे इस दिव्य स्थान से जुड़े रहने की छटपटाहट थी।
फिर अचानक कोविड ने दस्तक दे दी। यही वह समय था जब मुझे डॉक्टर ने बताया कि मैं एक घोर अवसाद में चली गई हूं। ध्यान, जप, दवाई कुछ काम नहीं कर रहा था। कुमाऊंनी भाषा में जिसे निवासी कहते हैं वही मुझे महसूस हो रहा था। मुझे कभी-कभी सांस नहीं आती थी। इस बीच बुद्ध पूर्णिमा को एक बार किसी प्रियजन ने मुझसे पूछा कौन सी ऐसी चीज है जिससे मेरे अशांत-क्लांत होते चित को शांति मिलेगी। चूंकि उस दिन बुद्ध पूर्णिमा थी इसलिए ध्यान की वजह से शायद मैं अवचेतन की गहराई से आकलन कर सही जवाब दे पाई। मैंने यही कहा था- मुझे हैड़ाखान आश्रम की आरती में प्रतिभाग करना है। मुझे दुनियाभर की रौनक उसी स्थान पर दिखती थी और मेरे चेतन को ये ज्ञान भी नहीं था।
समय बीता और कालचक्र ने एक बार फिर मुझे प्रतिकूल परिस्थितियों में रानीखेत पहुंचा दिया। दो शाम मैं वहां स्थित हैड़ाखान आश्रम पहुंची और आरती तक रुकने का साहस नहीं कर पाई। तीसरी शाम मैंने ठान लिया था कि मैं संध्या आरती में अवश्य बैठूंगी। बस शायद वही दिन था जब मैं बाबा की शरण में आ गई थी। इसके बाद मेरे भीतर हैड़ाखान बाबा के काठगोदाम के निकट स्थित मुख्य आश्रम जाने की इच्छा प्रबल होती चली गई और दो हफ्तों के भीतर मैं वहां पहुंच गई। जाते ही बाबा की समाधि पर माथा टेका और बाबा साक्षी है चरणों के विग्रह पर रखा एक फूल मेरे दुपट्टे के साथ अटक गया। जो अध्यात्म अस्तित्व और ब्रह्मांड को थोड़ा-बहुत समझते हैं, संकेत की इस भाषा को समझ लेते हैं। फिर वहां पूरा दिन मेरा किस तरह बीता इस अनुभव को शायद मैं शब्दों में नहीं बांच पाऊंगी।
समाधि में मस्तक टेकने के बाद मुझे अचानक लगा कि मेरे कंधों में कुछ हल्कापन-सा आया। भीतर जाते ही पंडित जी ने मस्तक पर चंदन लगाया। उस शीतलता ने मेरे भीतर जल रहे बेहद भावुक कष्ट की अग्नि को शीतल कर दिया। उसके पश्चात मुझे बहुत देर तक ऐसा प्रतीत हुआ कि ये दूसरा संकेत था कि बाबा से मेरा कोई गहरा नाता अवश्य है। वो चंदन मुझे किसी दिमागी अवसाद को प्रारम्भिक अवस्था में मिलने वाली दवाई-सा असरदार लगा। जिसने भी अवसाद की दवा ली है वो जानता है पहली दफा दवा के सेवन से लगता है, आप विचार मुक्त हो गए हैं और आराम कर सकते हैं। अंतर इतना था कि दवा के प्रथम बार सेवन के बाद मैं खूब सोई। मस्तक में चंदन के बाद आज छह महीने हो गए मैं रोजाना शिवजी और बाबा की तस्वीर पर चंदन घिसकर उसके लेप से श्रृंगार के पश्चात अपने मस्तक पर उसे अवश्य लगाती हूं। वो मुझे चेतन, जागृत रखता है।
इसके पश्चात मैं नीचे सीढ़ी उतर कर धुनी तक जा पहुंची। मेरी नानी यहां से थोड़ी वभूत होस्टल ले जाने के लिए अवश्य कहती थी। बचपन से हर पहाड़ी बच्चे के अधिक रोने पर या किसी के अस्वस्थ होने पर माथे पर थोड़ी विभूति लगा दी जाती थी जो कई बार चमत्कारिक ढंग से स्थिति को काबू ले आती थी। विभूति शिव स्थल की धुनी से ही प्राप्त हो सकती है लेकिन हर पर्वतीय घर के मंदिर में भी यह फर्स्ट एड किट की भांति मौजूद रहती है। मैं समाधि के पश्चात नीचे धुनी में गई तो मेरे मन में धुनी की विभूति घर लाने का लालच आ गया जिसका कारण मुझ पर एक महीने बाद प्रकट हुआ।
शब्दों की यह यात्रा यहीं विराम नहीं लेती, क्योंकि जब आत्मा एक बार जागती है तो वह प्रश्न करती है, जानना चाहती है और अंतत: उस स्रोत से जुड़ने को व्याकुल हो जाती है जिससे उसका प्रस्थान हुआ था। हैड़ाखान बाबाजी के विषय में मेरे मन में जो उत्सुकता जागी, वह केवल श्रद्धा नहीं थी- वह उस खोए हुए आत्म स्मरण की खोज थी जिसे कभी मेरी नानी, मेरी मां, मेरे रानीखेत के दिन और वह धुनी की विभूति अपनी-अपनी तरह से सहेज रहे थे।
आगे मैं आपको उन रहस्यमयी संकेतों, गूढ़ अनुभवों और पुस्तकों से मिली उस ज्ञान यात्रा से परिचित कराऊंगी, जिन्होंने मेरे भीतर के प्रश्नों को उत्तर दिए और यह अनुभव कराया कि बाबाजी केवल एक संत नहीं, एक प्रक्रिया हैं- जागरण की प्रक्रिया।
साम्ब सदाशिव!
क्रमश:
(लेखिका रेडियों प्रज़ेन्टर, एड फिल्म मेकर तथा वत्सल सुदीप फाउंडेशन की सचिव हैं)