मैंने अपने जीवन के 30 साल कृष्ण को ही अपना ईष्ट मानते हुए भक्ति की है लेकिन शायद कम उम्र में एक गहरा वैराग अनुभव करना था और मां, जो एक अनन्य शिव भक्त थी, के जाने के बाद मैं अब शिव से आगे कुछ और नहीं सोच पाती हूं। ये भी एक विचित्र बात थी कि मां का स्पष्ट आदेश था कि उनका अंतिम संस्कार मैं ही करूं और ऐसा करते हुए 101 बार महामृत्युंजय का जाप करूं। सोचकर भी हैरान रह जाती हूं कि न जाने कैसे मेरा मन सम्भाला हुआ था शिव ने। सामने प्राण से प्रिय मां अग्नि में समाती जा रही थी और उनके मोक्ष हेतु जाप करते हुए मैं एक विचित्र भाव का अनुभव कर रही थी। ये थोड़ा निजी अनुभव है लेकिन इसलिए साझा कर रही हूं क्योंकि मैंने वही असीम शांति जागेश्वर धाम के आंगन में महसूस की है। सघन वन के अंधेरे में जिस तरह धूप छनकर आती है बस उसी तरह जीवन के पीड़ादायक क्षणों में शिव की भक्ति एक शीतलता लिए आती है
श्वेता मासीवाल
सामाजिक कार्यकर्ता
‘उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज’ का क्रम कुछ ऐसा बन रहा है कि जितना मैं इस विषय में लिखती जा रही हूं मेरा सदाशिव के प्रति अनुराग उतना ही गहराता जा रहा है। इस बीच एक अद्भुत संयोग ने जन्म लिया है। कल एक समाचार पढ़ा। डीडीहाट से पूर्व की दिशा में कुछ दिनों से ‘ॐ’ की आकृति नजर आ रही है। ये आकृति दोपहर 12 से 2 बजे तक स्पष्ट दिखाई दे रही है। एक बहुत निचले स्तर का ही सही, पर एक साधक की दृष्टि से देखूं तो मुझे तेरहवीं शताब्दी के फारसी कवि रूमी (Rumi) का कहा याद आता है:What you’re seeking is seeking you. (जो तुम खोज रहे हो, वो भी तुम्हें खोज रहा है।)
क्योंकि बात शिव से अनुराग की चली है तो आज चलेंगे विश्व प्रसिद्ध जागेश्वर धाम की यात्रा पर। ऐसा कोई कुमाऊं का परिवार नहीं होगा जिसने यहां सावन में शिवार्चन न किया हो। चारों ओर देवदार का घना जंगल और उस शांत अरण्य के गहरे घेरे में बसा हुआ कई छोटे-छोटे मंदिरों का एक समूह जागेश्वर धाम जो उत्तराखण्ड के चार प्रमुख धामों के बाद पांचवे धाम के रूप में प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि ये वो प्रणव लिंग है जहां से निराकार शिव की साकार रूप में पूजन की शुरुआत हुई। इस बात का उल्लेख स्कंद पुराण, शिव पुराण और लिंग पुराण में मिलता है। ये भी पुराणों में दर्ज है कि यहां शिव ने साक्षात स्वरूप में तपस्या की थी। सप्तऋषियों ने भी यहां तपस्या कर शिव आराधना की थी। वैसे यहां बहुत सुविधाएं नहीं हैं रूकने की लेकिन जो सुविधाएं हैं, वहां रात में रूकने पर सामने मौजूद देवदार के जंगल ऐसा अहसास कराते हैं कि वे अपने भीतर बहुत सी कथाएं समाविष्ट किए हैं।
यह धाम 125 मंदिरों का समूह है और किवदंति है कि इनका निर्माण रातों-रात हुआ था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में इस मंदिर के इतिहास का गौरव आज भी यहां महसूस होता है। क्या इसी वन में साक्षात् शिव ने आराधना की होगी? क्या यहीं से सप्तऋषियों ने शिव को सुंदर तांडव करते देखा होगा। पहाड़ी पत्थर से निर्मित गर्भ गृह के सन्नाटे में पूजन करते समय यही स्वर आपके भीतर उपजते हैं। मुझे यहां एक-दो दफा चर्म वस्त्र पहने साधु भी दिखे हैं और कहते हैं शिव अपने गणों में ही निवास करते हैं। उनके दर्शन करना यहां शुभ माना जाता है।

धाम से तीन किलोमीटर ऊपर वृद्ध जागेश्वर भी है। कहते हैं जागेश्वर धाम पधारने से पूर्व शिव ने यहां तपस्या की थी। आदियोगी जहां साक्षात् ध्यान में बैठे हों वहां की ऊर्जा कैसी होगी इसका अंदाजा आप यहां जाकर ही लगा सकते हैं। पूरे स्थान में एक सन्नाटा है। बस हवा की स्वरलहरी है और ॐ नमः शिवाय का नाद।
जब मैं वहां रात को रूकी थी वह पूर्णिमा की रात थी। देवदार से झांकता चांद अपनी पूर्ण कला में दमक रहा था उस चांद को देखकर मुझे एक क्षण लगा था कि चंद्रशेखर भगवान शिव यहीं विराजे हैं। ऊंचे देवदार के झुरमुटों से झांकता चांद अपनी ऊर्जा से मन की उलझनों को शीतलता दे रहा था। बहुत देर तक मैं बाहर उसे देखती रही थी। शून्य में चांद को निहारना और पहाड़ की ठंडी हवा में बस प्रकृति को निहारना, जिसको इस सुख की अनुभूति हुई है, वही समझ सकता है कि ये किसी गहरे ध्यान से कम नहीं।
खैर उस रात शिव साक्षात्कार के बाद प्रातः जल्दी उठकर शिवार्चन की तैयारी करनी थी लेकिन जो शांति रात के सन्नाटे में शून्य का ध्यान करने पर मिली उसकी छाप आज तक मेरे हृदय में ताजा है। उस चांद की शीतलता का आभास मुझे आज तक होता है।
बहुत देर मौन में रहने के बाद आपका किसी से वार्तालाप करने का मन नहीं करता है। कुछ ऐसी ही स्थिति मेरी अगली सुबह थी और फिर मंदिर के गर्भगृह में बने पार्थिव शिवलिंग का अभिषेक करते हुए सिर्फ ‘शिवाय नमः’ का जाप चलता रहा। मौन और पंचाक्षर का संयोग जिस दिव्यता का अहसास दिलाता है वो शायद सिर्फ इस स्थान पर आपको मिलेगा। अन्य हिमालय के दिव्य स्थलों की तरह यहां ठोस चट्टान नहीं हैं, सघन हरा जंगल है, गहरे हरे रंग का। ये वही रंग है जो शिव को प्रिय है। शिव के प्रिय सावन मास का रंग भी यहीं है। रात में पेड़ों पर पड़ती ओस सावन के मौसम का ही भान देती है। ये वही मास है जब मां शैलपुत्री पार्वती ने शिव को पाने के लिए कठिन तप किया था।
मुझे स्मरण हो आता है एक विस्मित कर देने वाला वाक्या। हल्द्वानी में नवाबी रोड में एक बेहद संभ्रांत परिवार भट्ट परिवार निवास करता है। वहां उन दोनों पुंडरीकाक्ष महाराज विराजते थे। मैं भी अपने मामाजी के परिवार के साथ दर्शनार्थ गई थी। एक बेहद लम्बे अद्भुत से संत वहां आए हुए थे। मैं तब कक्षा 6-7 में रही हूंगी लेकिन मुझे अच्छे से सब कुछ याद है। उनकी सफेद दाढ़ी थी। अचानक उन्होंने पूछा किस-किस को लोबान की खुशबू आ रही है। मुझे तब लोबान की समझ नहीं थी लेकिन एक दिव्य सुगंध थी ये मुझे समझ आ रहा था। मैंने हाथ उठाया। मेरे साथ कुछ और लोगों ने भी और फिर उन गेरुआ वस्त्र धारण किए संत ने कहा छत पर चलो। हम तीन-चार लोग छत पर गए और उन्होंने कहा देखो सितारे कैसे हमें प्रणाम करते हैं और वो झुके और अचानक गहरे नीले आकाश में एक तारा टूटा। उनका आकाश को झुक कर प्रणाम करना मुझे आज भी याद है और अब स्मरण करती हूं तो लगता है वो अवश्य योग साधना के तपस्वी रहे होंगे। इतनी लचक से मैंने किसी को अपने आधे शरीर को झुकाते नहीं देखा।
फिर उन्होंने मुझसे पूछा जागेश्वर धाम गई हो? बचपन में हर साल गर्मियों के दौरान वहां और दूनागिरी मंदिर जाना होता है तो मैंने हां में गर्दन हिलाई। इतने सालों बाद आज भी उनका आदेश मुझे स्पष्ट याद है। उन्होंने कहा था बस दिन में पांच बार ‘¬ नमः शिवाय’ का जाप कर लेना। बचपन से ही मुझे इस तरह के आदेश मिलते रहे हैं। शायद इस चलते ही जीवन संग्राम में तमाम त्रासदियों से गुजरने के बाद भी आज मैं डटी हुई हूं। खैर तब से अब तक मुझे जब स्मरण होता है, मैं उनका बताया जाप कर लेती हूं। बहुत सालों बाद जब मैं पूर्णिमा की रात जागेश्वर धाम के अरण्य में रूकी थी, यकायक मुझे फिर उन संत का ध्यान हो उठा था। मैंने बहुत कोशिश की कि कोई टूटता तारा दिख जाए तो शायद संकेत मिल जाए। मेरी उम्र उस वक्त इतनी कम थी कि मुझे इससे ज्यादा और कुछ याद नहीं है। मैंने कई बार मामाजी के परिवार से उनके विषय में पूछा लेकिन किसी को भी उनका स्मरण नहीं है। न जाने क्या नाता रहा होगा उन संत का इस धाम से। थोड़ा-बहुत मुझे अब समझ आता है जब मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व हैड़ाखान बाबा को समर्पित है, को साक्षात् शिव अवतार कहे जाते हैं।
मैंने अपने जीवन के 30 साल कृष्ण को ही अपना ईष्ट मानते हुए भक्ति की है लेकिन शायद कम उम्र में एक गहरा वैराग अनुभव करना था और मां, जो एक अनन्य शिव भक्त थी, के जाने के बाद मैं शिव के अलावा कुछ और नहीं सोच पाती हूं। ये भी एक विचित्र बात थी कि माताजी का स्पष्ट आदेश था कि उनका अंतिम संस्कार मैं ही करूं और करते हुए 101 बार महामृत्युंजय का जाप करूं। सोचकर भी हैरान रह जाती हूं कि न जाने कैसे मेरा मन सम्भाला हुआ था शिव ने। सामने प्राण से प्रिय मां अग्नि में समाती जा रही थी और उनके मोक्ष हेतु जाप करते हुए मैं एक विचित्र भाव का अनुभव कर रही थी। ये थोड़ा निजी अनुभव है लेकिन इसलिए साझा कर रही हूं क्योंकि मैंने वही असीम शांति जागेश्वर धाम के आंगन में महसूस की है। सघन वन के अंधेरे में जिस तरह धूप छनकर आती है बस उसी तरह जीवन के पीड़ादायक क्षणों में शिव की भक्ति एक शीतलता लिए आती है।
साम्ब सदाशिव!