Uttarakhand

कठोर भू-कानून या छलावा?

उत्तराखण्ड की नींव जल, जंगल और जमीन पर आम पहाड़वासी के हक-हकूक बनाए रखे के मुद्दे पर रखी गई। जब साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग राज्य बना तो पहली चिंता यही थी कि सीमित मात्रा में उपलब्ध यहां की जमीनों को कैसे बचाया जाए? इसको लेकर यहां कई बार कानून बनाए गए। बाहरी लोगों द्वारा जमीन की खरीद- फरोख्त की सीमा 2002 में तिवारी सरकार ने 500 वर्ग गज तो 2007 में खण्डूड़ी सरकार ने 250 वर्ग गज तय की। लेकिन 2018 में उस समय अति हो गई जब त्रिवेंद्र सरकार ने औद्योगिक निवेश के नाम पर प्रदेश में जमीन खरीदने की खूली छूट दे डाली। तब यहां पर बाहरियों ने होटल और रिजाॅर्ट की बाढ़ सी ला दी। पहाड़ की जनता भूमिहीन होने लगी। 2018 में हुए संशोधन के बाद उत्तराखण्ड में सशक्त भू-कानून की मांग चली आ रही है। इससे प्रदेश की डेमोग्राफी भी चेंज होने की संभावना व्यक्त की जाने लगी थी। गत विधान सभा चुनाव में धामी सरकार ने जनता से प्रदेश में सख्त भू कानून लाने का वादा किया था। यह कानून अब बना दिया गया है और सरकार अनुसार इसमें कठोर भू-कानून के साथ, राज्य में भूमि खरीदने की प्रक्रिया को और कड़ा किया गया है। बहुत से लोग इसे भूल सुधार भू कानून कह रहे हैं तो दूसरी तरफ एक बड़ा वर्ग इसे मात्र छल करार दे रहा है
‘‘हमारा संकल्प उत्तराखण्ड के संसाधनों, भूमि, को भू-माफिया से बचाए रखना है। भू-कानून में यह संशोधन भू-सुधारों में अंत नहीं अपितु एक शुरुआत है। राज्य सरकार ने जन भावनाओं के अनुरूप भू-सुधारों की नींव रखी है। आगे भी अनवरत रूप से यह कार्य किया जाएगा। बीते कुछ वर्षों में प्रदेश में विभिन्न उपक्रम के माध्यम से स्थानीय व्यक्तियों को रोजगार देने के नाम पर जमीनें खरीदी जा रही थीं। भू-प्रबंधन एवं भू-सुधार कानून बनने के पश्चात इस पर पूर्ण रूप से लगाम लगेगी। इससे असली निवेशकों और भूमाफिया के बीच का अंतर भी साफ होगा। राज्य सरकार ने बीते वर्षों में बड़े पैमाने पर वन भूमि और सरकारी भूमि से अवैध अतिक्रमण हटाया गया है।
3461.74 एकड़ वन भूमि से कब्जा हटाया गया है। यह कार्य इतिहास में पहली बार हमारी सरकार ने किया। इससे इकोलाॅजी और इकोनामी दोनों का संरक्षण मिला है। उन्होंने कहा कि राज्य में कृषि एवं औद्योगिक प्रयोजन को खरीद की अनुमति कलेक्टर के स्तर पर दी जाती थी। उसे अब 11 जनपदों में समाप्त कर केवल हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर में राज्य सरकार के स्तर से निर्णय लिए जाने का प्रविधान किया गया है। किसी भी व्यक्ति के पक्ष में स्वीकृत सीमा में 12.5 एकड़ से अधिक भूमि अंतरण को 11 जनपदों में समाप्त कर केवल जनपद हरिद्वार एवं उधम सिंह नगर में राज्य सरकार के स्तर पर निर्णय लिया जाएगा। आवासीय परियोजन के लिए 250 वर्ग मीटर भूमि क्रय हेतु शपथ पत्र अनिवार्य कर दिया गया है। शपथ पत्र गलत पाए जाने पर भूमि राज्य सरकार में निहित की जाएगी। सूक्ष्म लघु एवं मध्यम उद्योगों के अंतर्गत थ्रस्ट सेक्टर एवं अधिसूचित खसरा नंबर भूमि क्रय की अनुमति जो कलेक्टर स्तर से दी जाती थी, उसे समाप्त कर, अब राज्य सरकार के स्तर से दी जाएगी।’’
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने विधानसभा में उक्त संदेश उस समय दिया जब 21 फरवरी को प्रदेश में नया भू-कानून लागू किया गया। इस दिन उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (संशोधन) विधेयक, 2025 विधेयक विधानसभा में ध्वनिमत से पारित हुआ। उत्तराखण्ड कैबिनेट ने (19 फरवरी, 2025) को भू कानून (भूमि कानून संशोधन विधेयक) को मंजूरी दे दी।
मुख्यमंत्री का दावा है कि प्रदेश में औद्योगिक, पर्यटन, शैक्षणिक, स्वास्थ्य तथा कृषि एवं औद्यानिक प्रयोजन आदि के लिए अब तक राज्य सरकार एवं जिलाधिकारी के स्तर से कुल 1883 भूमि क्रय की जो अनुमति प्रदान की गई थी, इनमें से 599 भू-उपयोग उल्लंघन के प्रकरण रहे। 572 प्रकरणों में न्यायालय में वाद दायर किए गए। 16 प्रकरणों में वाद का निस्तारण करते हुए 9.4760 हेक्टेयर भूमि राज्य सरकार में निहित की गई। शेष प्रकरणों में कार्यवाही की जा रही है।
धामी कहते हैं ‘उत्तराखण्ड राज्य मूल स्वरूप बना रहे, यहां का मूल अस्तित्व बचा रहे। इसके लिए इस भू सुधार किए गए हैं। राज्य की डेमोग्राफी बची रहे, इसका भू-कानून में विशेष ध्यान रखा गया है।’
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी नए भू कानून को लेकर पहले से ही सख्त मिजाज अपना चुके थे। इसका उदाहरण 2024 से ही सामने आने लगे थे। सितम्बर 2024 में ही मुख्यमंत्री धामी ने भू-कानून के उल्लंघन पर कड़ी कार्रवाई के आदेश दिए थे। इसके बाद जिलाधिकारियों ने मामले दर्ज करना शुरू कर दिया था। दिसम्बर 2024 के पहले पखवाड़े में ही 279 मामलों में भू-कानून का उल्लंघन पाया गया, जिसमें से 243 मामलों पर मुकदमे दर्ज किए जा चुके हैं। महज तीन माह की ही बात करें तो इस दौरान छह प्रकरणों में कुल 3.006 हेक्टेयर भूमि सरकार में निहित की जा चुकी है। बाहुबली लोगों तक को इस मामले में नहीं बख्शा गया। जिसमें उत्तर प्रदेश के बाहुबली विधायक राजा भैया की पत्नी और अभिनेता मनोज बाजपेई की जमीनों तक की जांच कराई गई। जिसमें वह नियमों का उल्लंघन करते हुए पाए गई। उनकी जमीनों को भी सरकार ने अपने आप में निहित कर लिया। इसके अलावा मुख्यमंत्री धामी के आदेश पर बागेश्वर, ऊधमसिंह नगर, नैनीताल और अल्मोड़ा जिलों में यह कार्रवाई हुई। इन जिलों में भू-कानून का उल्लंघन करने वालों पर सख्त कार्रवाई हुई है। भू-कानून के उल्लंघन के मामलों में नगर निकाय क्षेत्रों में बिना अनुमति 250 वर्गमीटर भूमि की खरीद, 12.5 एकड़ से अधिक भूमि खरीदने में अनुमति का उल्लंघन और कृषि, व्यावसायिक व औद्योगिक उपयोग के लिए भूमि की खरीद में अनियमितताएं शामिल पाई गई। जानकारी के अनुसार प्रदेश के 13 जिलों में कुल 1495 प्रकरणों में भूमि खरीद की अनुमति दी गई थी। इनमें से 279 मामलों में नियमों का उल्लंघन पाया गया। सबसे अधिक मामले नैनीताल में 79, देहरादून में 78 और ऊधम सिंह नगर में 37 में पाए गए।  जिनमें देहरादून में 70, हरिद्वार में 22, और अल्मोड़ा में 8 पर मुकदमें दर्ज किए गए। इसके साथ ही दर्ज न मामलों में सरकार ने जमीन जब्त की।
गौरतलब है कि 9 नवंबर 2000 को उत्तराखण्ड के अलग राज्य बनने के बाद पहली अंतरिम सरकार के मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी पर आरोप लगे थे कि उन्होंने शिक्षण, सामाजिक एवं अन्य संस्थाओं को कौड़ियों के भाव बेशकीमती जमीन बांटी। वर्ष 2002 के बाद एनडी तिवारी सरकार ने पहली बार राज्य से बाहर के व्यक्तियों के लिए भूमि खरीद की 500 वर्ग मीटर की सीमा तय की। वर्ष 2007 में भाजपा की सरकार बनी तो
तत्कालीन मुख्यमंत्री जनरल बीसी खंडूड़ी ने इसे घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दिया। वर्ष 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने औद्योगिक निवेश को बढ़ावा देने के लिए भूमि कानून में संशोधन कराया। इसके तहत चिन्हित सेक्टर में अन्य राज्यों के उद्यमी 12.50 एकड़ से अधिक भूमि खरीद सकते थे। उत्तराखण्ड में कृषि भूमि का रकबा निरंतर घट रहा है। अब यह केवल नौ प्रतिशत के आसपास रह गया है। बादल फटना, भू स्खलन आदि तमाम प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से पहाड़ अत्यंत संवेदनशील हैं। इसलिए उत्तराखण्ड को अन्य पर्वतीय राज्यों की तरह एक सशक्त भूमि कानून की आवश्यकता थी। जिसकी वर्षों से मांग की जा रही थी।
नए कानून पर उठते सवाल
धामी सरकार के नए भू-कानून को लेकर कुछ सवाल भी उठ रहे हैं जिनमें उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 की धारा 157-बी का मामला भी है। इसके तहत, अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को अपनी जमीन गैर-सदस्यों को नहीं बेचने, उपहार देने, बंधक में देने, पट्टे पर देने या किसी अन्य तरीके से देने की अनुमति नहीं है। लेकिन उत्तराखण्ड के नए भूमि कानून के अनुसार इन दोनों जातियों की जमीनों को 30 साल के लिए कृषि, बागवानी, जड़ी-बूटी उत्पादन, वृक्षारोपण पशुपालन, मुर्गीपालन तथा पशुधन प्रजनन, मधुमक्खी पालन, मत्स्य पालन, कृषि फल प्रसंस्करण, चाय बागान एवं प्रसंस्करण तथा वैकल्पिक ऊर्जा परियोजनाओं के किसी व्यक्ति, संस्था, समिति, न्यास, फर्म, कम्पनी एवं स्वयं सहायता समूह को पट्टे पर शर्तें निर्धारित करते हुए पट्टा किराया सहित अधिकतम् 30 वर्षों के लिए दी जा सकेगी। जबकि मूल कानून में इन संवेदनशील जातियों की जमीनों को पट्टे पर देने की भी मनाही है। क्योंकि इससे जनजातियों की जमीनें जो पहले से ही अतिक्रमित हैं अब उन पर कब्जा और आसान हो जाएगा।
2018 में त्रिवेंद्र रावत के मुख्यमंत्री रहते औद्योगिक प्रयोजन के लिए जमीन की अधिकतम सीमा को खत्म करने के लिए उक्त अधिनियम में धारा 154(2) जोड़ी गई। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी जो कानून लाए हैं, उसमें 154(2) को खत्म करके, इससे मिलते जुलते प्रावधान को 154 (2 क) में लिख दिया गया है। इस धारा के तहत भूमि हस्तांतरण केवल हरिद्वार और उधम सिंह नगर जिले में होगा। प्रश्न यह है कि हरिद्वार और उधमसिंह नगर जिले की उत्पादक, उपजाऊ जमीनों की खुली लूट का रास्ता क्यों छोड़ दिया गया है?
त्रिवेंद्र रावत की सरकार ने भू उपयोग बदलने के संदर्भ में धारा 143 में उपधारा (क) जोड़कर प्रावधान किया था कि औद्योगिक प्रयोजन के लिए खरीदी गयी कृषि भूमि का भू उपयोग स्वतः ही बदल जाएगा। चूंकि इस संशोधन अधिनियम में इस पर कोई बात नहीं कही गई है तो ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या त्रिवेंद्र रावत द्वारा लाया गया यह प्रावधान अभी भी बदस्तूर जारी रहेगा।
वरिष्ठ पत्रकार और भाकपा(माले) के राज्य सचिव इंद्रेश मैखुरी का कहना है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार द्वारा उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश अधिनियम 1950) में संशोधन के लिए लाया गया विधेयक, जिस आम बोलचाल की भाषा में भू कानून कहा जा रहा है, एक ऐसा कानून है, जो जमीनों की लूट को रोकता नहीं है, बल्कि लूट के रास्ते को घुमावदार बनाता है।
नैनीताल जनपद के कृषि विशेषज्ञ तरुण जोशी कहते हैं कि लम्बे समय से उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र में भू कानून की मांग को अंतोगत्वा उत्तराखण्ड सरकार द्वारा स्वीकार करते हुए कुछ संशोधन किए गए है। उपरोक्त संशोधन राज्य के पर्वतीय क्षेत्र के 11 जिलों में लागू होंगे। बाहरी व्यक्तियों के लिए कृषि या बागवानी भूमि खरीद पर रोक लगाते हुए आवासीय भूमि की सीमा 250 वर्ग मीटर तक सीमित की गई है। संशोधनों से पर्वतीय क्षेत्र की भू समस्याओं का कुछ समाधान निकलेगा ऐसा लगता नहीं है। ये संशोधन नगरीय क्षेत्र में लागू नहीं होगा अर्थात नगरीय क्षेत्र में पहले की तरह भूमि की खरीद फरोख्त की जा सकती है।
पूर्व में आम आदमी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे हरीश आर्य कहते हैं कि उत्तराखण्ड राज्य द्वारा पूर्ववर्ती राज्य से अंगीकृत जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 की धारा 157 (ए) में अनुसूचित जातियों की जमीनों के ट्रांसफर या अंतरण पर रोक है। धारा 157-ए के अनुसार अनुसूचित जाति से सम्बंधित कोई भी भूमिधर या असामी कलेक्टर की पूर्व स्वीकृति के बिना अपनी भूमि को अनुसूचित जाति से इतर किसी व्यक्ति को हस्तांतरित नहीं कर सकता है, जबकि धारा 157-एए के तहत यह प्रतिबंध है कि अनुसूचित जाति से सम्बंधित कोई व्यक्ति अनुसूचित जाति का हो जाने पर भूमि हस्तांतरित नहीं कर सकता है।
बात अपनी-अपनी
सख्त भू-कानून की मांग लम्बे समय से उत्तराखण्ड में उठ रही थी, परंतु बजट सत्र में पारित राज्य का संशोधित भू कानून जनता की आंखों में धूल झोंकने वाला कानून है। पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री पंडित नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखण्ड राज्य से बाहर के व्यक्ति पर 500 वर्ग गज से अधिक जमीन खरीदने पर प्रतिबंध लगा दिया था। केवल उद्योग लगाने के लिए विशेष मामलों में राज्य सरकार यह अनुमति प्रदान कर सकती थी। भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर भुवन चंद्र खंडूरी का दौर आया जिन्होंने 500 वर्ग गज से गैर उत्तराखण्डी व्यक्ति को ढाई सौ वर्ग गज जमीन खरीद की अनुमति दी। परंतु 2017 में आई भारतीय जनता पार्टी की प्रचंड बहुमत और ट्रिपल इंजन की सरकार ने उत्तराखण्ड को जैसे सेल पर लगा दिया। त्रिवेंद्र रावत ने सारी शर्तों को एक तरफ रख उत्तराखण्ड की भूमि बाहरी व्यक्तियों के लिए खुली छोड़ दी और वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 2022 में लैंड यूज प्रक्रिया को बदलकर ‘करेला ऊपर से नीम चढ़ा’ की कहावत को चरितार्थ कर दिया। अब बजट सत्र के दौरान जो भू कानून पारित हुआ है उसमें एक नहीं बहुत सारे छेद हैं और यह राज्य हित में कतई नहीं है।

गरिमा माहरा दसौनी, मुख्य प्रवक्ता, उत्तराखण्ड कांग्रेस
पहाड़ी जिलों में जमीनों की खरीद फरोख्त पर रोक लग गई है। सरकार को अक्सर शिकायत आती थी कि जिला मजिस्ट्रेटों द्वारा आबंटित भूमि का दुरुपयोग होता है। इसलिए राज्य सरकार ने अब यह जिम्मेदारी स्वयं अपने हाथ ले ली है। अब उद्योग, आयुष, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा शिक्षा, उद्यान, पर्यटन, के लिए निजी न्यास, संस्था, कंपनी, फर्म, पंजीकृत सहकारी संस्था आदि के लिए भूमि का अंतरण पर पहले भी प्रतिबंध नहीं था। लेकिन अब नई व्यवस्था ये की गई है कि अगर भूमि का अंतरण जनहित में है तो जमीन चाहने वालों की वास्तविक आकलन कर भूमि अनिवार्यता प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा। साथ ही अंतरण अनुमति से पूर्व संबंधित विभागों द्वारा निवेश की मात्रा, रोजगार सृजन तथा प्लांट और मशीनरी इत्यादि के परिप्रेक्ष्य में प्रस्ताव का आकलन करते हुए भूमि अनिवार्यता प्रमाणपत्र विभागाध्यक्ष या उससे एक रैंक नीचे के अधिकारी द्वारा जारी किया जाएगा।

मोहित डिमरी, नेता, मूल निवास भू-कानून संघर्ष समिति
जमीनों की हेरा-फेरी न हो इसलिए सरकारी पोर्टल के माध्यम से भूमि खरीद की निगरानी की जाएगी। यह ऑनलाइन पोर्टल बाहरी व्यक्तियों द्वारा की गई जमीन खरीद को दर्ज करेगा, जिससे पारदर्शिता बनी रहेगी। शपथ पत्र को अनिवार्य करने से फर्जीवाड़े और अनियमितताओं में कमी आएगी। इसके अलावा, सभी जिलाधिकारियों को नियमित रूप से भूमि खरीद की रिपोर्टिंग करनी होगी। नगर निकाय सीमा के भीतर भूमि का उपयोग केवल निर्धारित भू उपयोग के अनुसार ही किया जाएगा। यदि कोई व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करता है, तो वह भूमि सरकार के स्वामित्व में चली जाएगी। नए भू-कानून का प्रभाव उत्तराखण्ड में कई सकारात्मक बदलाव लाएगा। बाहरी व्यक्तियों द्वारा अंधाधुंध भूमि खरीद पर रोक लगने से राज्य के निवासियों को सुरक्षित महसूस करने का अवसर मिलेगा।

ध्रुव रौतेला, मीडिया पैनलिस्ट, भाजपा उत्तराखण्ड
भू-कानून में त्रिवेंद्र सिंह सरकार द्वारा किए गए संशोधन तो हटा दिए मगर 202 में 143 क और ख में हुए संशोधनों का क्या हुआ? मूल अधिनियम में कुछ खास श्रेणियों के अलावा निजी तौर पर गैर कृषकों द्वारा जमीनों की खरीद पर रोक थी। लेकिन नए कानून के अनुसार जिस व्यक्ति की 2003 या उससे पहले उत्तराखण्ड में अचल सम्पत्ति थी उसे भूमिधर मान लिया गया है इसलिए उसे भी जमीनें खरीदने का अधिकार दे दिया गया है। मसूरी जैसे नगरों में अचल संपत्ति वाले लोग बड़ी संख्या में मौजूद हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों से हैं। ऐसे लोग प्रायः बड़े उद्योगपति, धनाढ्य और बड़े व्यवसायी होते हैं जो कि बड़े पैमाने पर जमीनों का व्यवसाय कर मूल निवासियों को भूमिहीन बना सकते हैं। नए कानून में यह भी प्रावधान किया गया है कि अगर धारा 129 के तहत कोई व्यक्ति विशेष श्रेणी का भूमिधर है, तो बैंक आदि का ऋण न चुका सकने पर उसकी संपत्ति की नीलामी हो जाती है तो उसकी सम्पत्ति को उसी श्रेणी का भूमिधर भी खरीद सकेगा और नीलामी में सम्पत्ति गंवाने वाला व्यक्ति बिना अनुमति के दोबारा उतनी ही जमीन खरीद सकेगा।

अनुराधा सिंह, अधिवक्ता, देहरादून
नए कानून पर उठे सवाल
  • सुरेश भाई, पर्यावरणविद्
उत्तराखण्ड जैसे हिमालयी राज्य की पहचान, संस्कृति, विरासत, मूल निवासियों की रोजी-रोटी और भू-कानून की आवाज सन् 2000 से ही बुलंद है। यह जरूर है कि सन् 2023 में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कृषि भूमि और उद्यानों की खरीद पर रोक लगाने की घोषणा भी की थी और जिलाधिकारियों को भी इस सम्बंध में निर्देश दिए गए थे।
इसके बावजूद भी लोगों का कहना था कि राज्य की कृषि भूमि की खरीद व बिक्री कम नहीं हो रही है। पृथक उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान भी पूर्वोत्तर राज्यों की तरह संविधान की धारा 371 के अनुसार यहां की जमीनों को सुरक्षित करने की मांग की गई थी। लेकिन पिछले 24 वर्षों में राज्य सरकारों ने भू-कानून को बार-बार लचीला बनाया है। जिसके कारण पर्वतीय इलाकों की खेती की जमीन कम होती गई है।
फरवरी 2025 में नए भू-कानून के तहत कुछ बदलाव उत्तराखण्ड विधानसभा में पारित किए गए हैं जिसमें कहा गया है कि नगर निकाय क्षेत्रों को छोड़कर बाकी जगह पर बाहरी राज्यों के व्यक्ति  एक ही बार में 250 वर्ग मीटर भूमि खरीद सकेंगे। लेकिन उत्तराखण्ड के 13 जनपदों में से उधम सिंह नगर और हरिद्वार में छूट दी गई है। इन दोनों जनपदों में कृषि-औद्यानिकी की जमीन खरीदने के लिए अब जिलाधिकारी के स्थान पर शासन से अनुमति लेनी पड़ेगी। शेष 11 जनपदों में 12.5 एकड़ भूमि की सीलिंग खत्म कर दी गयी है। अतः स्पष्ट है कि एक ही राज्य में अलग-अलग भू-कानून सामने आ रहे हैं जिसके कारण आमजन असंतुष्ट है। सशक्त भू-कानून की मांग जोर पकड़ती जा रही है। राज्य व्यवस्था को पुनर्विचार करने की आवश्यकता इसलिए हैं कि सन् 2004 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 की धारा 154 में संशोधन करके नियम बनाया था कि जिनके पास 12 सितम्बर 2003 से पहले अचल संपत्ति नहीं है। उन्हें कृषि या औद्यानिकी के लिए भूमि खरीद की अनुमति जिलाधिकारी से लेनी पड़ेगी। इसके साथ ही नगर निगम क्षेत्र की परिधि के बाहर 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीदने की अनुमति राज्य से बाहर के लोगों को दी गई थी। तत्कालीन सरकार के इस फैसले का प्रबल विरोध हुआ। जिसके बाद सन् 2007 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी खण्डूड़ी ने भूमि खरीद की सीमा को घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दिया था। लेकिन खण्डूड़ी सरकार का यह फैसला उन लोगों के लिए दिक्कतें खड़ी करने लगा, जो यहां उद्योग लगाना चाहते थे। इसलिए सन् 2018 में हुए इन्वेस्टर समिट से पहले ही तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भू-कानून के नियमों में बड़ा बदलाव करवाया। जमीनों को खरीदने की राह बहुत आसान कर दी गई। उन्होंने उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम 1950 में फिर संशोधन का विधेयक पारित किया। जिसमें धारा 143(क) धारा 154(2) जोड़ी गई। जिसके बाद पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त किया गया था। इसके अलावा देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर जैसे मैदानी जिलों में भूमि की चकबंदी को भी समाप्त किया गया था। इसके बाद भूमि खरीद को खुली छूट दी गई। इस फैसले से उत्तराखंडी बहुत आहत थे। जिसके बाद पता चला कि 2020 तक 1.22 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि सीमांत और छोटे किसानों के हाथ से निकल गई। उत्तराखण्ड की भूमि व्यवस्था को समझने के लिए सन् 2000 के आंकड़ों को देखें तो यहां कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज है। इनमें से 5 एकड़ से 10 एकड़ और 10 एकड़ से 25 एकड़ तथा 25 एकड़ से ऊपर की तीन श्रेणियां की जोतों की संख्या 1,08863 थी। इन 1,08863 परिवारों के नाम कुल 4,00,222 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी। इसके अलावा राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28 803 हेक्टेयर भूमि दर्ज  थी। इस आंकड़े के आधार पर यह समझना बहुत जरूरी है कि राज्य में लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के पास राज्य की आधी कृषि भूमि है। शेष 88 फीसदी कृषि आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है। इसके बावजूद भी यहां का भू-कानून इतना कमजोर है कि हर रोज राज्य में जमीन खरीदने की फाइल जमा होती जा रही है। क्योंकि दिसॅबर 2023 में देहरादून में हुई ग्लोबल इन्वेस्टर समिट में 3 लाख करोड़ से अधिक निवेश के प्रस्ताव आए हैं। यदि यह संभव हो पाया तो निवेशकों को किसी न किसी रूप में उत्तराखण्ड में जमीन खरीदना है। ऐसी स्थिति में तो यहां नदी व जल स्रोतों के किनारे, पर्वत, बुग्याल, चारागाह कैसे बचेंगे? वैसे भी प्रकृति की ये सभी धरोहरें आपदा और अन्य कारणों से भी संकट में पड़ी हुई है। जिसके कारण इस पर्वतीय राज्य की जमीन बचाने के लिए आमजन चिंतित है। जिसको लेकर  दिसंबर 2023 से सशक्त भू-कानून की मांग के लिए महारैलियां हो रही है। आगे भी जनपदवार धरने, प्रदर्शन, रैलियां लगातार चल रहे हैं।
धामी सरकार ने जन दबाव के कारण भू-कानून के विषय पर पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति गठित की थी। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 5 सितम्बर 2022 को सौंप दी थी। जिसमें सुझाव दिया गया कि प्रदेश हित में निवेश की संभावनाओं और अनियंत्रित भूमि खरीद व बिक्री के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है। इनकी संस्तुतियों को ध्यान में रख कर फिर से 2023 में तत्कालीन अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी (अब मुख्य सचिव है) की अध्यक्षता में एक ‘प्रारूप समिति’ बनाई गई थी।
उत्तराखण्ड के लोग चाहते हैं कि जिस तरह से हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री यशवंत सिंह परमार ने लैंड रिफाॅर्म एक्ट-1972 के अनुसार भूमि खरीद पर रोक लगाई थी और गैर हिमाचली नागरिक को जमीन खरीदने की इजाजत नहीं दी गई थी। कमर्शियल उपयोग के लिए जमीन किराए पर देने की स्वीकृति दी गई थी। इसमें सोच यह है कि जमीन किसानों के पास ही रहनी चाहिए। 2007 में हिमाचल में धूमल सरकार ने धारा 118 में संशोधन किया और कानून बनाया गया कि जो व्यक्ति हिमाचल में 15 वर्ष से रह रहा है। वह यहां जमीन ले सकता है। जिसकी अवधि 30 वर्ष बढ़ाई गई है। हिमाचल सरकार के इन फैसलों ने अपने यहां की जमीन को बचाया है। कृषकों को जमीन उपलब्ध करवाई है। जिसके कारण किसानों को आय भी हो रही है।
अतः उत्तराखण्ड में पानी और जवानी को बचाने के साथ ही भूमिहीन, बेरोजगारी, पलायन जैसी समस्याओं को रोकने के लिए सशक्त भू-कानून के विषय पर हिमाचल की तर्ज पर सशक्त भू-कानून की मांग की जा रही है। अतः लोग एक ही राज्य में भू-कानून को अलग-अलग रूपों में लागू करने से बहुत असंतुष्ट हैं।

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