दिल्ली की राजनीति में हाल ही में आम आदमी पार्टी का मेयर चुनाव से पीछे हटना कई सवाल खड़े कर रहा है। पार्टी ने जिस तरह बिना लड़ाई लड़े मैदान छोड़ दिया, उसे लेकर सत्ता गलियारों में तरह-तरह की चर्चाएं हो रही हैं। सवाल उठ रहा है कि क्या आम आदमी पार्टी को अपने ही पार्षदों पर भरोसा नहीं रहा? या फिर पार्टी को अंदेशा था कि क्राॅस वोटिंग की स्थिति में बड़ी राजनीतिक हार का सामना करना पड़ सकता है? आम आदमी पार्टी के भीतर से छनकर आ रही खबरों के मुताबिक पार्टी नेतृत्व को यह आशंका थी कि कुछ पार्षद भाजपा के सम्पर्क में हो सकते हैं। हाल के महीनों में दिल्ली नगर निगम में ‘आप’ के भीतर गुटबाजी की खबरें आम रहीं, कई पार्षदों की नाराजगी भी सार्वजनिक रूप से सामने आई। ऐसे में पार्टी के रणनीतिकारों ने जोखिम लेने के बजाय चुनाव से दूरी बनाना ही बेहतर समझा। पार्टी नेतृत्व जानता था कि अगर क्राॅस वोटिंग होती और भाजपा उम्मीदवार मेयर बन जाता तो केवल मेयर पद ही नहीं, बल्कि आम आदमी पार्टी की पूरी राजनीतिक साख को गहरी चोट लगती।
चुनाव से किनारा करना भले ही एक रणनीतिक फैसला दिखाया गया हो, लेकिन असलियत में यह आप की संगठनात्मक कमजोरी को उजागर करता है। कभी जमीनी कार्यकर्ताओं और पारदर्शी राजनीति के दम पर उभरी आम आदमी पार्टी अब खुद अंदर से दरकती नजर आ रही है। पार्षदों पर नियंत्रण कमजोर पड़ा है, गुटबाजी बढ़ी है और संगठनात्मक अनुशासन ढीला हो गया है। खासकर केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद पार्टी में नेतृत्व का संकट और भी गहरा गया है। कई स्थानीय नेता अब खुले तौर पर यह कहने लगे हैं कि केंद्रीय नेतृत्व से संवाद लगभग समाप्त हो गया है, और पार्टी केवल ष्संकट प्रबंधन मोडष् में चल रही है।
केजरीवाल की गिरफ्तारी ने पार्टी को न केवल प्रशासनिक स्तर पर झटका दिया है, बल्कि नैतिक दबाव भी बढ़ा है। दिल्ली की जनता के बीच आम आदमी पार्टी की उस ‘ईमानदार विकल्प’ वाली छवि में भी दरारें दिखने लगी हैं, जिस पर उसने अपना पूरा राजनीतिक अस्तित्व टिका रखा था। इससे पहले भी शराब नीति घोटाले और फंडिंग विवादों ने पार्टी के चरित्र को लेकर गंभीर सवाल उठाए थे, लेकिन इस बार हालात कहीं अधिक जटिल हैं।
भाजपा ने आप के इस फैसले को ‘जनता से भागने’ वाला कदम बताते हुए राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश तेज कर दी है। वहीं कांग्रेस भी अब दिल्ली में मुस्लिम और वंचित वर्गों के बीच अपना आधार बढ़ाने के प्रयास में है, जिससे आप पर दोहरी चुनौती आ रही है। विपक्ष के इन हमलों ने यह साफ कर दिया है कि आम आदमी पार्टी को अब न सिर्फ भाजपा से बल्कि कांग्रेस से भी सधी हुई लड़ाई लड़नी होगी।
स्पष्ट है कि आम आदमी पार्टी अब एक बेहद संवेदनशील मोड़ पर खड़ी है। यदि वह समय रहते अपने संगठन को दुरुस्त नहीं करती, जमीनी कार्यकर्ताओं का भरोसा नहीं लौटाती और शीर्ष नेतृत्व में विश्वसनीयता बहाल नहीं करती तो वह धीरे-धीरे एक ऐसी पार्टी बन सकती है जो अपने ही आदर्शों के बोझ तले बिखर जाएगी। आंदोलन से सत्ता तक का सफर भले ही तेज रहा हो, लेकिन सत्ता से संघर्ष की यात्रा कहीं अधिक कठिन और दुरूह होगी।
सत्ता के गलियारों में फिलहाल एक ही फुसफुसाहट है – आम आदमी पार्टी को अब अपनी सबसे बड़ी जंग अपने भीतर से लड़नी होगी। अगर यह लड़ाई वह हारती है, तो आने वाले सालों में दिल्ली और राष्ट्रीय राजनीति में एक बड़ी खाली जगह बनने वाली है, जिसे भरने के लिए पुराने और नए दोनों विरोधी तैयार बैठे हैं।