मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में ‘ऊर्जावान और विजनरी’ नेता बताया। राष्ट्रीय मीडिया और विभिन्न राजनीतिक विश्लेषणों में धामी को देश के सबसे प्रभावशाली मुख्यमंत्रियों में गिना जाता है। उनकी कार्यशैली, युवाओं से जुड़ाव और संवाद क्षमता की अक्सर सराहना होती है। परंतु आश्चयज़्जनक रूप से, दिल्ली से लगातार संकेत मिल रहे हैं कि उन्हें कैबिनेट विस्तार की अनुमति नहीं दी जा रही। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का उन्हें समर्थन तो है लेकिन व्यावहारिक फैसलों जैसे कैबिनेट का विस्तार तथा संगठनात्मक फेरबदल में उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता न दिए जाने चलते राजनीतिक अस्थिरता का माहौल लगातार बना हुआ है। राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी, कैबिनेट मंत्री धन सिंह रावत और त्रिवेंद्र सिंह रावत की महत्वाकांक्षाएं आसमान छू रही हैं। इस तरह का अंदरूनी घात-प्रतिघात और क्षेत्रीय खींचतान का खामियाजा विकास कार्यों को भुगतना पड़ता है
देवभूमि की संज्ञा से विभूषित उत्तराखण्ड राजनीतिक अस्थिरता का स्थायी केंद्र बन चुका है। जो भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में स्थिर और प्रगतिशील शासन का वादा करके सत्ता में आई थी, अब उसी आरोपों और सत्तांतर संघर्षों से घिरी दिखाई दे रही है, जिनका शिकार कभी कांग्रेस हुआ करती थी। पिछले दो दशकों में इस राज्य ने जितनी बार मुख्यमंत्री बदले हैं, शायद ही किसी अन्य राज्य में इतनी बार नेतृत्व बदला हो। विशेषकर भारतीय जनता पार्टी की सरकारों में नेतृत्व परिवर्तन एक रणनीति, प्रयोग और संतुलन साधने का माध्यम बनता जा रहा है। राज्य के भीतर- विशेषकर भाजपा की खांटी जमात में एक प्रकार का मौन लेकिन सशक्त असंतोष जन्म ले चुका है। यह असंतोष सत्ता में मूल भाजपा कार्यकर्ताओं की उपेक्षा, कांग्रेस मूल के नेताओं के वर्चस्व, मंत्रियों के भ्रष्टाचार और कुमाऊं-गढ़वाल के मध्य गहराती क्षेत्रवाद की खाई और वरिष्ठ भाजपा नेताओं की आकाश छूती महत्वाकांक्षा का नतीजा है।
गौरतलब है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में ‘ऊर्जावान और विजनरी’ नेता बताया था। राष्ट्रीय मीडिया और विभिन्न राजनीतिक विश्लेषणों में धामी को देश के सबसे प्रभावशाली मुख्यमंत्रियों में गिना जाता है। उनकी कार्यशैली, युवाओं से जुड़ाव और संवाद क्षमता की अक्सर सराहना होती है। परंतु आश्चयज़्जनक रूप से, दिल्ली से लगातार संकेत मिल रहे हैं कि उन्हें कैबिनेट विस्तार की अनुमति नहीं दी जा रही। यह परिस्थिति न केवल उनकी प्रशासनिक क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि कहीं न कहीं उनके अधिकार सीमित करने की योजना चल रही है। यह ‘चाणक्य नीति’ का एक क्लासिक उदाहरण है- जब किसी राजा की शक्ति से डर लगे तो उसे सम्मान देकर, पर पीछे से उसकी शक्तियां छीनने का प्रयास किया जाता है। चाणक्य कहते हैं: ‘राजा को सदैव चौकन्ना रहना चाहिए, क्योंकि सबसे बड़ा खतरा उसके दरबार से ही उत्पन्न होता है।’
नेतृत्व परिवर्तन-एक परम्परा
उत्तराखण्ड में यकायक नेतृत्व परिवर्तन भाजपा की सत्ता शैली का हिस्सा बन गया है। 2009 में जब जनरल खण्डूड़ी को हटाकर निशंक को लाया गया तो पार्टी ने सोचा था कि युवा नेतृत्व संगठन को ऊर्जा देगा। लेकिन जल्द ही उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार और प्रशासनिक विफलता के आरोप लगने लगे। पार्टी के भीतर असहमति इतनी बढ़ी कि उन्हें हटाकर खण्डूड़ी को ही वापस लाया गया।
2011 में ‘खण्डूड़ी है जरूरी’ नारा देकर वापस लाए गए जनरल ने भी अपने पिछले कार्यकाल के दाग धोने की नीयत से लोकायुक्त और कठोर ट्रांसफर नीति जैसे विधेयक लाकर सत्ता वापसी का प्रयास किया जरूर लेकिन वे खुद भीतरघात का शिकार होकर कोटद्वार से विधानसभा चुनाव हार गए और उनकी पार्टी भी सत्ता से बाहर हो गई।
2017 में एक बार फिर से भाजपा को प्रचंड जीत मिली तब राज्य की कमान त्रिवेंद्र सिंह रावत को सौंप गई थी। उनकी प्रशासनिक सख्ती, कुछ हद तक पारदर्शिता और नौकरशाही पर पकड़ तो थी, लेकिन संवादहीनता और संगठन के संग टकराव उनके विरुद्ध गया। 2021 में उन्हें बजट सत्र के बीच हटाया जाना स्पष्ट करता है कि भाजपा के लिए नेतृत्व एक स्थिर चेहरा नहीं, बल्कि चुनावी गणित का पेंच है।
असंतोष का नया अध्याय शुरू
गत् सप्ताह संसद में हरिद्वार सांसद और पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा गंगा में अवैध खनन का मुद्दा उठाया गया। यह एक सामान्य पर्यावरणीय चिंता से कहीं अधिक है। जब उनसे पूछा गया कि राज्य के खनन सचिव ब्रजेश संत अवैध खनन से इनकार कर रहे हैं तो उनका तल्ख उत्तर था ‘शेर कुत्तों का शिकार नहीं करता।’
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह केवल नौकरशाही नहीं, सीधे-सीधे मुख्यमंत्री धामी और उनकी सरकार पर हमला है। रावत ने ‘शेर कुत्तों का शिकार नहीं करता’ जैसे अमर्यादित शब्दों का प्रयोग कर न केवल नौकरशाही की गरिमा पर प्रश्नचिन्ह लगाया, बल्कि राज्य की राजनीतिक मर्यादाओं को भी क्षतिग्रस्त किया।
भाजपा की खांटी जमात बनाम कांग्रेस मूल के नेता
पुष्कर सिंह धामी का मंत्रिमंडल मूल भाजपा कार्यकर्ताओं से अधिक कांग्रेस से आए नेताओं से भरा दिखता है, जो पार्टी के अंदरूनी ढांचे को असहज बना रहा है। सात सदस्य धामी मंत्रिमंडल में वर्तमान में मात्र तीन खांटी भाजपा मूल के नेता शामिल हैं जबकि चार मंत्री सुबोध उनियाल, सतपाल महाराज, रेखा आर्य और सौरभ बहुगुणा कांग्रेस से दल-बदलकर भाजपा में शामिल हो मंत्री बने हैं। इन सभी कांग्रेसी मूल के मंत्रियों पर न केवल भ्रष्टाचार के आप लगातार लगते रहे हैं, बल्कि उनकी कार्यशैली भी मूल भाजपाइयों को अखरती है। इन चेहरों के बढ़ते वर्चस्व से पुराने, जमीनी भाजपा नेताओं को अपनी उपेक्षा और अपमान का भाव है। यह आंतरिक संघर्ष अब संगठनात्मक एकता को चुनौती देता है।
नाराजगी के अन्य मुद्दे
अंकिता भंडारी हत्याकांड : यह एक सामान्य हत्या नहीं, बल्कि सत्ता संरक्षित अपराध का प्रतीक बन गया ऐसा अपराध है जिसने जनता को न्याय के लिए सड़कों पर उतर कर सरकार को झकझोरने के लिए मजबूर कर दिया। राज्य सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि वह किसी ‘वीआईपी’ को बचाने के लिए इस मामले की सीबीआई जांच से कतरा रही है।
शराब नीति पर महिलाओं और सामाजिक संगठनों में आक्रोश
खनन और शराब नीति : सरकार की शराब नीति पर महिलाओं और सामाजिक संगठनों में व्यापक आक्रोश तो है ही बागेश्वर में बड़े पैमाने पर खडिय़ा खनन में पाई गई अनियमिततायों ने उत्तराखण्ड का नाम देश ही नहीं विदेश में भी बदनाम कर दिया है। हालात इतने विकट हैं कि हाईकोर्ट को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा है और हाईकोर्ट के चलते वर्तमान में बागेश्वर में पूरी तरह खडिय़ा खनन पर रोक लग गई है। बेरोजगारी, पलायन और महंगाई: युवा, किसान, व्यापारी सभी निराश हैं। पहाड़ खाली हो रहे हैं और सरकार ने अब तक कोई दीर्घकालिक समाधान नहीं दे पा रही है।
असंतुष्टों की तिकड़ी धन सिंह रावत, त्रिवेंद्र सिंह रावत और अनिल बलूनी
मुख्यमंत्री धामी कुमाऊं से हैं। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का उन्हें समर्थन तो है लेकिन व्यवहारिक फैसलों जैसे कैबिनेट का विस्तार तथा संगठनात्मक फेरबदल में उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता न दिए जाने चलते राजनीतिक अस्थिरता का माहौल लगातार बना हुआ है। राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी, कैबिनेट मंत्री धन सिंह रावत और त्रिवेंद्र सिंह रावत की महत्वाकांक्षाएं आसमान छू रही हैं। इस तरह का अंदरूनी घात-प्रतिघात और क्षेत्रीय खींचतान का खामियाजा विकास कार्यों को भुगतना पड़ता है। राजनीतिक स्थिरता के अभाव में प्रशासनिक मशीनरी भी भ्रमित है और अफसरशाही स्पष्ट रूप से दो खेमों में बंटी नजर आ रही है – एक मुख्यमंत्री धामी के प्रति वफादार तो दूसरी असंतुष्ट नेताओं के इशारे पर काम करने वाली। भाजपा के लिए यह आत्मचिंतन का क्षण है कि क्या वह केवल सत्ता की राजनीति कर रही है या भविष्य के उत्तराखण्ड का कोई ठोस स्वरूप भी तय कर रही है। यदि नहीं तो आने वाला समय एक और सत्ता प्रयोग, एक और असंतुलित नेतृत्व और एक और जन असंतोष का दस्तावेज होगा।