पड़ताल
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2022 के अनुसार, उत्तराखण्ड की 11 जेलों में कुल क्षमता 3,741 कैदियों की है, लेकिन इनमें 6,921 कैदी बंद हैं, जो क्षमता का 185 प्रतिशत है। यह देश में सबसे अधिक ओवरक्राउडिंग दरों में से एक है। इसके अलावा उत्तराखण्ड की जेलों में चिकित्सा सुविधाओं की भी कमी है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 10 स्वीकृत पदों के मुकाबले, राज्य में केवल 01 डाॅक्टर उपलब्ध है, जो 6,921 कैदियों की देखभाल करता है। जेल अधिकारियों के पदों में भी 77.1 प्रतिशत रिक्तियां हैं जो देश में सबसे अधिक हैं। भारत में जेलों की स्थिति लम्बे समय से चिंता का विषय रही है। जेलों में भीड़भाड़, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा और विचाराधीन कैदियों की भरमार प्रमुख समस्याएं हैं
भारत में जेलों की स्थिति लम्बे समय से चिंता का विषय रही है। जेलों में भीड़भाड़, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, और विचाराधीन कैदियों की भरमार प्रमुख समस्याएं हैं। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2020 के अनुसार देश की जेलों में बंद 69 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं, अर्थात वे अपने मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसके अलावा जेलों की क्षमता से अधिक कैदियों का होना एक आम समस्या है। 2016 में राष्ट्रीय स्तर पर जेलों की आॅक्यूपेंसी दर 114 प्रतिशत थी, जो 2019 में बढ़कर 119 प्रतिशत हो गई।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलना करें तो, भारत की जेलों में प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर 33 कैदी हैं, जो ब्राजील और रूस जैसे देशों की तुलना में कम है। हालांकि यह आंकड़ा जेलों में भीड़भाड़ की समस्या को कम नहीं करता। इसके विपरीत कई विकसित देशों में जेलों की स्थिति बेहतर है, जहां कैदियों के लिए पर्याप्त स्थान, स्वास्थ्य सुविधाएं, और सुधारात्मक कार्यक्रम उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए, स्विट्जरलैंड में 1891 में पहली खुली जेल की स्थापना की गई, जहां कैदियों को अधिक स्वतंत्रता और सुधार के अवसर प्रदान किए जाते हैं।
उत्तराखण्ड राज्य की जेलों की स्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2022 के अनुसार उत्तराखण्ड की 11 जेलों में कुल क्षमता 3,741 कैदियों की है, लेकिन इनमें 6,921 कैदी बंद हैं, जो क्षमता का 185 प्रतिशत है। यह देश में सबसे अधिक ओवरक्राउडिंग दरों में से एक है। इसके अलावा, उत्तराखण्ड की जेलों में चिकित्सा सुविधाओं की भी कमी है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 10 स्वीकृत पदों के मुकाबले, राज्य में केवल 01 डाॅक्टर उपलब्ध है, जो 6,921 कैदियों की देखभाल करता है। जेल अधिकारियों के पदों में भी 77.1 प्रतिशत रिक्तियां हैं जो देश में सबसे अधिक हैं। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (प्दकपं श्रनेजपबम त्मचवतज) टाटा ट्रस्ट की एक पहल है, जो सेंटर फाॅर सोशल जस्टिस, काॅमन काॅज, और काॅमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव जैसे संगठनों के सहयोग से तैयार की गई है। पहली बार यह रिपोर्ट वर्ष 2019 में प्रकाशित हुई थी, और तब से यह न्याय प्रणाली के चार प्रमुख स्तंभों-पुलिस, न्यायपालिका, जेल और कानूनी सहायता-का विश्लेषण करती आ रही है। रिपोर्ट का उद्देश्य राज्यों की न्याय वितरण क्षमता का आकलन करना और सुधार के लिए आवश्यक क्षेत्रों की पहचान करना है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जेल में बंद कैदियों के मानवाधिकारों के सरंक्षण का कार्य करता है। आयोग के आदेशानुसार जेल में होने वाली प्रत्येक मौत की सूचना देने के लिए जेल प्रशासन बाध्य है। जेल में मृत्यु होने के उपरांत आयोग जेल प्रशासन से कैदी से सम्बंधित तमाम दस्तावेज मंगवाता है ताकि इस बात का पता लगाया जा सके कि उसके साथ कोई मारपीट तो नहीं हुई थी या उसके इलाज में कोई लापरवाही तो नहीं की गई थी। कैदी की मृत्यु के पश्चात मजिस्ट्रेट द्वारा मृत्यु के कारणों की जांच भी आयोग द्वारा मजिस्ट्रेट से कराई जाती है। देशभर की जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों का होना, जेल में कैदियों के मानवाधिकारों के उल्लंघन का आधारभूत कारण है। आयोग समय-समय पर अपनी टीमें भेजकर जेल के कैदियों की स्थिति की जांच भी करता है।
लाल बहार, डिप्टी सुपरिटेंडेंट पुलिस, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
प्रदेश में इस समय 11 जेलें हैं। नई जेलों के न बन पाने से इनमें धारण क्षमता से अधिक कैदी बंद हैं। प्रदेश में अभी जो 11 जेलें हैं उनमें ऊधमसिंह नगर जिले में सितारगंज में खुली जेल, सितारगंज में ही केंद्रीय कारगार है। इसके अलावा सात जेलें अल्मोड़ा, नैनीताल, देहरादून, पौड़ी, टिहरी, चमोली व हरिद्वार में हैं। इनमें चमोली की जेल सबसे नई है। यह 2011 में बनी थी। इसके अलावा दो उप जेल हैं जो हल्द्वानी व रुड़की में हैं। पिथौरागढ़ की जेल वर्षों से निर्माणाधीन है। इसमें से तीन जेलें 100 वर्ष से भी अधिक पुरानी हैं। इन सभी जेलों में 3741 कैदी रखने की क्षमता है लेकिन इसके सापेक्ष यहां 7075 कैदी बंद हैं।
सरकार ने वर्ष 2015 से 2017 के बीच चम्पावत, उत्तरकाशी, बागेश्वर व रूद्रप्रयाग में नई जेल स्वीकृत की थी। प्रदेश की सभी जेलों में सात साल से कम सजा पाने वाले कैदियों की संख्या 740 है। अभी पूर्व में हाईकोर्ट ने प्रदेश की जेलों में सीसीटीवी व रहने की व्यवस्था आदि सुविधाओं को लेकर एक जनहित याचिका में सुनवाई की थी जिसमें सरकार को निर्देशित किया गया था कि जेलों में सुविधाओं की स्थितियों को सुधारा जाए।
यह माना जाता रहा है कि जेलों में वर्षों से कैदियों के मानवाधिकारों की अवहेलना होती रही है। जेल की अपनी एक नियमावली होती है, इसका पालन जरूरी होता है लेकिन देखा गया है कि इसका पालन नहीं हो पाता। शायद ही कैदियों के मानवाधिकारों की रक्षा होती है, अगर होती तो फिर उन्हें एक ही जगह भेड़-बकरियों की तरह नहीं ठूंसा जाता। कैदी भी एक तरह से मैन पावर हैं। अगर उनकी क्षमता का उपयोग किया जाए तो यह आर्थिकी के दष्ष्टिकोण से काफी कारगर साबित हो सकता है। हालांकि देहरादून स्थिति सुद्धीवाला जेल में बेकरी उत्पादों को बनाने की बात सामने आई है। सभी जेलों में इस तरह की पहल की जाए तो यह जेलों व कैदियों के जीवन में कई तरह के बदलाव ला सकता है। लेकिन इसके लिए कैदियों को प्रशिक्षण देना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा। कैदियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को बाजार में जगह बनाने के लिए कम मूल्य पर बेचा जा सकता है। इसी तरह कपड़े सिलवाने का काम किया जा सकता है। कैदियों की रुचि के अनुसार उन्हें काम दिया जा सकता है। लेकिन फिलहाल जेलों में क्षमता से अधिक कैदी चुनौती बन रहे हैं। जेलों में मूलभूत सुविधाओं की कमी के साथ ही मानवाधिकारों के मामले भी सामने आ रहे हैं। इसके अलावा जेल मैन्यूल पर भी सवाल उठते रहे हैं। जेल में कैदियों की आत्महत्या भी इसमें शामिल है। अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक समिति ने तो जेलों में अप्राकष्तिक मौतों को रोकने के लिए आत्महत्यारोधी बैरक बनाने की आवश्यकता पर बल दिया था। दिल्ली हाईकोर्ट का तो यह भी कहना है कि सलाखों के पीछे भी कैदी के संवैधानिक मूल अधिकार बने रहते हैं। पीने का पानी, स्वच्छता, शौचालय व उनका रखरखाव पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है। कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य की जांच कराने की भी जरूरत है। प्रदेश में कैदियों को स्वरोजगार से जोड़ने के लिए उत्तराखण्ड की जेलों में बेकरी स्थापित करने की पहल भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है। हालांकि प्रदेश में जेलों की सुरक्षा के लिए अब नए सिरे से कार्ययोजना बनाने की बात की सरकार की तरफ से की जा रही है। पूर्व में हरिद्वार जेल से दो कैदी भाग गए थे। उत्तराखण्ड की जेलों में हाल के वर्षों में कैदियों के बीच हिंसक घटनाएं और अन्य आपराधिक गतिविधियां सामने आई हैं।
अप्रैल 2020 में, हल्द्वानी जेल में दो कैदियों के बीच विवाद के बाद एक कैदी ने दूसरे कैदी की हत्या कर दी थी। यह घटना जेल के भीतर सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाती है। फरवरी 2023 में देहरादून की सुद्धोवाला जेल में दो कैदियों के बीच बिस्तर लगाने को लेकर विवाद हुआ, जो बाद में हिंसक संघर्ष में बदल गया। एक कैदी ने दूसरे पर कैंची से हमला कर उसे गम्भीर रूप से घायल कर दिया था। फरवरी 2023 में, हल्द्वानी जेल में एक कैदी ने पूड़ी-सब्जी न मिलने पर सुरक्षाकर्मियों से मारपीट की। यह घटना जेल में कैदियों की मांगों और प्रशासन के बीच तनाव को दर्शाती है। अक्टूबर 2024 में, हरिद्वार जिला जेल से दो कैदी रामलीला के मंचन के दौरान फरार हो गए। इनमें से एक हत्या का दोषी था, जबकि दूसरा अपहरण के मामले में विचाराधीन था। इस घटना के बाद जेलर समेत छह कर्मियों को निलम्बित किया गया था।
इसके बाद कहा गया कि जेलों में सीसीटीवी कैमरों की संख्या बढ़ाई जाएगी, वहीं निगरानी तंत्र को भी मजबूत किया जाएगा। जेलों में क्या-क्या खामियां हैं, इसकी भी पड़ताल की जाएगी ताकि कैदी आसानी से फरार न हो सके। तारबाड़, बंदीरक्षकों की निगरानी आदि प्रमुख बिंदुओं पर भी काम किया जाएगा। धरातल पर यह घोषणाएं भले ही यह नहीं उतर पाई हों लेकिन दूसरी तरफ एक नई चुनौती सामने आई है कि कोरानाकाल में पैरोल व अंतरिम जमानत पर जेलों से बाहर रहने वाले कैदियों ने सरेंडर नहीं किया है। 80 से अधिक कैदी अभी भी बाहर हैं। 512 से अधिक कैदी कोराना काल में अंतरिम जमानत पर बाहर थे। अगर यह सब कैदी दुबारा से जेल में आते हैं तो जेलों में कैदियों की संख्या और बढ़ जाएगी।
कोई भी व्यक्ति जन्मजात अपराधी नहीं होता और यह भी जरूरी नहीं है कि वह भविष्य में भी अपराधी ही रहेगा। लेकिन अपराध किया है तो उसे सजा जरूर मिले लेकिन उसकी मैन पार का इस्तेमाल उसकी आर्थिकी की बेहतरी के लिए किया जा सकता है। जेलों में कौशल विकास बेहद जरूरी है। ताकि वह जेल से रिहा होने के बाद कैदी अपने परिवार के साथ बेहतर जिंदगी जी सकें। इसके अलावा जैल मैनुएल को कड़ाई से लागू किया जाना जरूरी है। कैदियों के मानवाधिकारों की रक्षा बेहद जरूरी है।
एड. मनोहर चन्द्र, कानूनविद्, दिल्ली हाईकोर्ट
इन जेलों में बंद कैदियों में से 37 प्रतिशत ऐसे हैं तो सजायाप्ता हैं लेकिन 63 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं। अगर विचाराधीन कैदियों के मामलों पर तेजी से सुनवाई अमल में लाई जाए तो जेलों की स्थितियों में सुधार हो सकता है। जेलों में क्षमता से अधिक कैदी रखने से जेल प्रशासन को भी परेशानी होती है। कैदियों को भी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। इससे महिला कैदियों को भी फजीहत का सामना करना पड़ता है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि निर्माणाधीन जेलों का निर्माण शीघ्र पूरा किया जाय तो नई जेलों का भी तेजी से निर्माण हो। राज्य में जेल सुधार के प्रयास भी जारी हैं। उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने हाल ही में जेल सुधारों के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं, जिसमें समय से पहले रिहाई के पात्र कैदियों की रिहाई, भीड़भाड़ कम करने के लिए उपाय और कैदियों के कल्याण के लिए विभिन्न पहल शामिल हैं। हालांकि इन सुधारों के बावजूद, उत्तराखण्ड की जेलों में बुनियादी ढांचे की कमी, कर्मचारियों की कमी और भीड़भाड़ जैसी समस्याएं बनी हुई हैं, जिन्हें तत्काल समाधान की आवश्यकता है।
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय में जेलों की दशा और दिशा को लेकर एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें राज्य की जेलों में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया गया था। इस याचिका पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश राघवेंद्र सिंह चैहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने सुनवाई की थी।
उच्च न्यायालय ने जेल सुधार के संदर्भ में अन्य महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। उदाहरण के लिए, सितारगंज जेल की निरीक्षण रिपोर्ट के बाद, न्यायालय ने उन कैदियों की पहचान की, जिन्होंने अपनी सजा के 14 वर्ष पूरे कर लिए हैं और ‘उत्तराखण्ड राज्य (न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास की सजा से दंडित दोषियों की सजा माफी/समय से पहले रिहाई के लिए) स्थायी नीति, 2022’ के तहत रिहाई के पात्र हैं। इस पहल के परिणामस्वरूप, 204 दोषियों की सूची तैयार की गई, जिनमें से 74 की रिहाई की संस्तुति की गई, जबकि न्यायालय ने 71 अन्य दोषियों की भी रिहाई का आदेश दिया, जो समय से पहले रिहाई के योग्य नहीं पाए गए थे। इसके अतिरिक्त नैनीताल जिला जेल में भीड़भाड़ की समस्या को देखते हुए, न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए जनहित याचिका दायर की थी। इसमें कैदियों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को ध्यान में रखते हुए, राज्य सरकार को निर्देश दिया गया कि वे उन विचाराधीन कैदियों की स्थिति रिपोर्ट प्रस्तुत करें, जो जमानत मिलने के बावजूद जमानत बांड न भर पाने के कारण जेल में बंद हैं। न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद, ऐसे 27 में से 25 विचाराधीन कैदियों को व्यक्तिगत बांड पर रिहा किया गया।
हाईकोर्ट ने सुझाए सुधार
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने वर्ष 2021 में प्रदेश की जेलों की दुर्दशा का स्वतः संज्ञान लेते हएु राज्य सरकार को कड़े दिशा-निर्देश जारी किए थे। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति राघवेंद्र सिंह चैहान एवं न्यायमूर्ति आलोक वर्मा की पीठ ने तब कठोर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘सजा का सुधारवादी सिद्धांत स्पष्ट रूप से सिखाता है कि किसी अपराधी को सुधारना और उसे समाज के योगदानकर्ता सदस्य के रूप में समाज में वापस लाना वास्तव में सम्भव है। लेकिन किसी अपराधी को सुधारने के लिए पूर्ण, व्यवस्थित और सहानुभूतिपूर्ण प्रयास करना होगा। आखिरकार कोई व्यक्ति जन्मजात अपराधी नहीं होता है, लेकिन परिस्थितियों के कारण, कई बार उसके नियंत्रण से परे, एक व्यक्ति धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से अपराधी बन जाता है।
चूंकि सजा का प्रतिकारात्मक सिद्धांत अब प्रचलन में नहीं है, यह सजा का सुधारात्मक सिद्धांत है, जिसे वर्तमान में दुनियाभर में और देश के भीतर लागू किया जा रहा है। बेंच इस बात से आश्चर्यचकित है कि उत्तराखण्ड में कैदी बिना उचित सुविधाओं के और अपने कौशल को उन्नत करने के किसी भी प्रयास के बिना जेल में बंद हैं। हालांकि राज्य का दावा है कि उसके पास सजा को छोटा करने की नीति है, जिसे 09 फरवरी, 2021 को प्रख्यापित किया गया था, लेकिन उक्त नीति भी खामियों से भरी है। ‘इसलिए, उच्च न्यायालय ने माना कि उक्त नीति पर भी राज्य द्वारा फिर से विचार करने और फिर से जांच करने की आवश्यकता होगी।’
न्यायालय ने दुर्गम पहाड़ी जिलों के कैदियों को उनके घरों से कोसों दूर मैदानी जिलों की जेल में स्थानांतरित करने की प्रवृत्ति को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का करार देते हुए कहा कि ‘किसी कैदी को उसके परिवार से अलग करना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। इस प्रकार यह जरूरी है कि एक कैदी को यथासम्भव उसके पारिवारिक स्थान के करीब रखा जाए। ऐसे में यह काफी आश्चर्य की बात है कि इस राज्य के पर्वतीय जिलों टिहरी, चमोली और पौड़ी से कैदियों को हरिद्वार और देहरादून में स्थानांतरित किया जा रहा है। कहने की जरूरत नहीं है, इस तरह का कदम एक कैदी के परिवार को पहाड़ी इलाकों से यात्रा करने और एक रिश्तेदार से मिलने और बातचीत करने में सक्षम होने के लिए मैदानी इलाकों में आने के लिए मजबूर करता है, जो अब एक कैदी है। प्रथम दृष्टया, यह परिवार के मौलिक अधिकारों और कैदी के बातचीत करने और सौहार्दपूर्ण, सामाजिक और पारिवारिक सम्बंध बनाए रखने के मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा।’’
उच्च न्यायालय ने इस सुनवाई के दौरान यह तय किया था कि कोर्ट अपनी निगरानी में जेलों की दशा सुधारने का काम करेगा। वर्ष 2024 में इसी के अंतर्गत उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को कई महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किए। इन दिशा-निर्देशों में जेल के बजाय मामूली जुर्म वाले कैदियों को पैरोल पर छोड़ने, स्वास्थ्य सेवाओं में व्यापक सुधार करने, हर जेल में डाॅक्टरों की नियुक्ति करने तथा नियमित तौर पर कैदियों की स्वास्थ्य जांच शामिल है। हाईकोर्ट ने जेलों में शौचालयों की सफाई इत्यादि की उचित व्यवस्था बनाने पर जोर दिया है। हाईकोर्ट ने यह भी तय किया है कि समय-समय पर जेलों का निरीक्षण न्यायिक अधिकारी किया करेंगे। न्यायालय ने राज्य सरकार को जेलों की व्यवस्था दुरुस्त रखने के लिए एक पृथक निगरानी व्यवस्था बनाए जाने का भी निर्देश दिया है।
सबसे पहले हमें यह समझना चाहिए कि किसी को जेल क्यों भेजा जाता है और उसे सजा क्यों मिलती है। उसे उस जुर्म की सजा मिलती है जो उसे समाज से अलग कर देती है। सजा भी इसलिए होती है कि जब वो जेल से निकले तो एक अच्छा इंसान बनकर निकले जो हमारे समाज में अच्छी तरह से रह सके। लेकिन आज की स्थिति ने जेलों की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वहां पर एक इंसान कैदी बनकर तो जाता है लेकिन शायद एक हैवान बनकर ही वापस आता है जो समाज के लिए और घातक बन जाता है। एक कैदी को जेल में रहने के लिए सरकार इतना खर्च करती है कि उसे बेहतर इंसान बनाया जा सके। लेकिन कुछ रसूखदार लालची लोगों के चलते जेल एक व्यापार का अड्डा बन गई है। ऐसे बहुत से लोग हमारे सम्पर्क में भी आए थे जो किसी न किसी मुकदमें में जेल गए थे और उन्होंने अपना अनुभव हमें बताया कि जेल में ऐसी कोई सुविधा नहीं है जो वहां न मिलती हो। बस आपको उसकी कीमत चुकानी होती है और वह कीमत भी एक का दस ली जाती है। जेलाों की बहुत बुरी स्थिति जहां कैदियों का भी मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। मैं सिर्फ इतना ही चाहती हूं कि जो भी कैदी सजा काटने के लिए जेल जाए वो वहां से बेहतर इंसान बनकर निकले। जेलों में उन्हें न केवल काम सिखाया जाए बल्कि उनके प्रोपर काउंसलिंग भी की जानी चाहिए जिससे उनका शोषण न हो सके। हमें अपने समाज को अच्छा बनाना है न कि अपराध और अपराधी बढ़ाकर उसकी स्थिति और भी खराब करनी है।
शिवानी जैन, मानवधिकार कार्यकर्ता एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष ‘उजागर फाउंडेशन’