द न्यूयाॅर्क टाइम्स ने 1976 में लिखा था कि ‘यदि भारत कभी स्वतंत्रता और लोकतंत्र की ओर लौटता है तो कोई न कोई निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना की स्मृति में एक स्मारक स्थापित करेगा।’ न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना की बाबत यह टिप्पणी इसलिए की गई थी कि क्योंकि आपातकाल के काले दौर में न्यायमूर्ति खन्ना ही थे जो तत्कालीन इंदिरा सरकार के खिलाफ डटकर खड़े रहे। इसी महान न्यायाधीश के भतीजे हैं न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, जिन्होंने अपने चाचा की न्यायप्रियता और साहसिकता को आगे बढ़ाया, भले ही उनका कार्यकाल बतौर मुख्य न्यायाधीश संक्षिप्त रहा
भारत के 51वें मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, ने 13 मई 2025 को अपने छह महीने के कार्यकाल के बाद सेवानिवृत्ति ली। हालांकि उनका कार्यकाल संक्षिप्त था, लेकिन उन्होंने न्यायपालिका में
पारदर्शिता और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए।
पारिवारिक विरासत
न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के चाचा, न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना, भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक प्रतिष्ठित नाम हैं। 1976 में, आपातकाल के दौरान, उन्होंने एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मामले में एकमात्र असहमति जताई, जिसमें उन्होंने कहा:
‘कानून और भारत का संविधान जीवन और स्वतंत्रता को कार्यपालिका की पूर्ण शक्ति के अधीन नहीं करता… बिना मुकदमे के हिरासत उन सभी के लिए घृणास्पद है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता से प्रेम करते हैं।’
उनकी इस असहमति के परिणामस्वरूप उन्हें मुख्य न्यायाधीश पद से वंचित किया गया और उन्होंने उसी दिन सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दे दिया। उनके इस साहसिक कदम की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना हुई। द न्यूयाॅर्क टाइम्स ने लिखा:
‘यदि भारत कभी स्वतंत्रता और लोकतंत्र की ओर लौटता है तो कोई न कोई निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना की स्मृति में एक स्मारक स्थापित करेगा।’
यह सिर्फ न्यूयाॅर्क टाइम्स तक सीमित नहीं रहा, अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इसे भारत में न्यायिक स्वतंत्रता की एक मशाल के रूप में देखा।
वाॅशिंगटन पोस्ट ने इसे “A Lone Voice of Conscience” कहा, जो तानाशाही के सामने खड़े होने का प्रतीक था।
1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में जस्टिस खन्ना ने यह ऐतिहासिक निर्णय दिया कि संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन वह संविधान की मूल संरचना को नष्ट नहीं कर सकती। उनकी राय ने ‘बेसिक स्ट्रक्चर’ सिद्धांत की नींव रखी जो आज भी भारतीय संविधान की व्याख्या में एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शक सिद्धांत है।
1975-77 के आपातकाल के दौरान, एडीएम जबलपुर बनाम
शिवकांत शुक्ला मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने यह निर्णय दिया कि आपातकाल के दौरान नागरिकों को बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस काॅर्पस) का अधिकार नहीं है। हालांकि जस्टिस खन्ना ने इस फैसले में एकमात्र असहमति जताई और कहा कि जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार संविधान से पहले के हैं और उन्हें आपातकाल के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता। उनकी इस असहमति को व्यापक रूप से सराहा गया और इसे भारतीय न्यायपालिका में स्वतंत्रता और नैतिक साहस का प्रतीक माना गया।
1977 में जस्टिस खन्ना को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने की परम्परा के बावजूद, सरकार ने उन्हें इस पद से वंचित कर दिया और उनके जूनियर जस्टिस एम.एच. बेग को यह पद दिया गया। इस निर्णय के विरोध में जस्टिस खन्ना ने तत्काल इस्तीफा दे दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय से सेवानिवृत्ति के बाद जस्टिस खन्ना ने कुछ समय के लिए भारत के विधि और न्याय मंत्री के रूप में कार्य किया। हालांकि उन्होंने तीन दिनों में ही इस्तीफा दे दिया। 1999 में उन्हें भारत सरकार द्वारा देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना इसी महान न्यायाधीश न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना के सगे भतीजे हैं।
न्यायमूर्ति संजीव खन्ना का न्यायिक दृष्टिकोण
- अपने कार्यकाल के दौरान न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने कई महत्वपूर्ण मामलों में निर्णय दिए:1. उपासना स्थल अधिनियम, 1991
उन्होंने आदेश दिया कि जब तक सुप्रीम कोर्ट इन मामलों की सुनवाई पूरी नहीं करता, तब तक कोई अदालत इन मुद्दों पर कोई कदम नहीं उठा सकती। यह निर्णय मंदिर-मस्जिद विवादों पर अंतरिम विराम लगाने के लिए महत्वपूर्ण माना गया।
2. वक्फ अधिनियम संशोधन
अप्रैल 2025 में वक्फ अधिनियम में किए गए संशोधनों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं। न्यायमूर्ति खन्ना की पीठ ने इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से आश्वासन प्राप्त किया कि वे इन संशोधनों को तत्काल लागू नहीं करेंगे।
3. न्यायपालिका में पारदर्शिता की पहल
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों की सम्पत्ति की जानकारी सार्वजनिक करने का निर्णय लिया, जिससे न्यायपालिका में पारदर्शिता बढ़ी। इसके साथ ही, जजों की नियुक्ति के दौरान उनके धर्म और जाति की जानकारी भी सार्वजनिक की गई।
4. मंदिर-मस्जिद विवादों पर रोक
नवम्बर-दिसम्बर 2024 में, देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ गया था, जब कुछ अदालतों ने मस्जिदों के सर्वे के आदेश दिए, यह दावा करते हुए कि उनके नीचे मंदिरों के अवशेष हैं। इस स्थिति में चीफ जस्टिस खन्ना ने हस्तक्षेप करते हुए आदेश दिया कि भविष्य में धार्मिक स्थलों के खिलाफ कोई नई याचिका दर्ज न की जाए और निचली अदालतें सर्वे आदेश या अन्य प्रभावी अंतरिम/अंतिम आदेश पारित न करें और यथास्थिति बहाल कर दी थी।
5. हाई कोर्ट के दो जस्टिस के मामले में हुआ विवाद
चीफ जस्टिस खन्ना के कार्यकाल में हाईकोर्ट के दो जस्टिस के मामले में विवाद हुआ। पहला, इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव का वीएचपी के एक कार्यक्रम में कथित आपत्तिजनक टिप्पणी का मामला था और दूसरा जस्टिस यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास पर कथित कैश बरामदगी का मामला था। चीफ जस्टिस खन्ना ने इन मामलों में त्वरित और निर्णायक कार्रवाई की, जिसमें जांच समितियों का गठन और पारदर्शिता सुनिश्चित करना था।
न्यायमूर्ति संजीव खन्ना का कार्यकाल भले ही संक्षिप्त रहा हो, लेकिन उन्होंने अपने चाचा न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना की विरासत को आगे बढ़ाते हुए न्यायपालिका में साहस, पारदर्शिता और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए। उनका योगदान भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में याद किया जाएगा।