विनीत नारायण ने सुप्रीम कोर्ट के इस रवैये पर तब प्रश्न उठाते हुए पूछा था- ‘‘जब मेरी याचिका में मांग थी कि कश्मीर के आतंविादियों को विदेशों से धन आने के इस देशद्रोही कांड की ईमानदारी से जांच करवाई जाए और दोषियों को सजा दी जाए। चिंता का कारण यह था कि दुबई और लंदन में बैठे जिन स्रोतों से कश्मीर के आतंकवादियों को धन मिल रहा था, उन्हीं स्रोतों से देश के बड़े राजनीतिज्ञों और अफसरों को भी धन मिल रहा था। सीबीआई के पास सब सबूत थे, पर वह 1991 से इस मामले को दबाए बैठी थी। कोई जांच नहीं हो रही थी। हमारी इसी याचिका पर नवम्बर 1994 में सर्वोच्च न्यायालय की जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता वाली बेंच ने जांच की मांग को तरजीह देते हुए सीबीआई की जांच अपनी देख- रेख में कराने का निर्णय भी लिया था।
मामले की सुनवाई के दौरान भी जैन-भ्रष्टाचार-आतंकवाद- हवाला कांड को दबाने की तमाम राजनीतिक कोशिशों व सीबीआई के निकम्मेपन को देखकर ही सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को स्वायत्तता के साथ असीम अधिकार भी दे दिए थे। बावजूद इसके सीबीआई के अधिकारियों ने कोई जांच नहीं की और जैन-भ्रष्टाचार -आतंकवाद-हवाला कांड में लिप्त बड़े नेताओं, अफसरों और जैन बंधुओं के निकल भागने के लिए तमाम रास्ते तैयार किए। यह बात निचली अदातल से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा दिए गए निर्णयों से साफ हो जाती है। न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने, 28 अगस्त 1998 को, एक प्रेस वक्तव्य में भी कहा, ‘हवाला मामले की पड़ताल में जांच एजेंसियों ने ठीक से काम नहीं किया। नहीं तो इस तरह सभी आरोप पत्र खारिज नहीं होते।’ इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है यह सिद्ध करने के लिए कि हवाला कांड के आरोपी राजनेताओं को साजिश करके छोड़ा गया है?
सबसे खौफनाक बात तो यह है कि हवाला केस के आतंकवाद से जुड़े पहलुओं को भी सीबीआई के आला अफसरों ने साजिशन बड़ी धूर्तता से दबा दिया। सर्वविदित है कि जैन बंधुओं के यहां 3 मई 1991 को सीबीआई ने जो छापा डाला था, वह कश्मीर के आतंकवादियों को वित्तीय मदद पहुंचाने वालों की एक श्रृंखला की खोज के दौरान पड़ा था, जिसमें भारी मात्रा में देशी और विदेशी मुद्रा पकड़ी गई थी। यह पैसा दुबई में बैठे तारिक भाई और लंदन में बैठे डाॅ. अयूब अवैध तरीके से भारत में भेज रहे थे। देश में फैल रहे आतंकवाद को मिलने वाले पैसे की इतनी संगीन जानकारी और पुख्ता प्रमाण उपलब्ध होने के बावजूद क्या यह भयावह बात नहीं है कि सीबीआई ने आतंकवाद के इस पहलू पर हवाला केस की जांच आज तक भी शुरू नहीं की है? इससे बड़ा देशद्रोह और क्या हो सकता है कि आतंकवादियों की हरकतों से रोज बम विस्फोट में बेगुनाह लोग मारे जाते हों और भारत सरकार व सीबीआई सब कुछ जानते हुए भी खामोश बैठे रहें? सर्वोच्च न्यायालय ने भी सब कुछ जानने-बूझने के बावजूद सीबीआई की इस साजिश के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। बल्कि शुरू की तेजी दिखाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय भी धीरे-धीरे ठंडा पड़ गया। अक्टूबर 1996 से तो एक के बाद एक तमाम तारीखें पड़ती गईं, किंतु आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च न्यायालय ने इस केस में पूरी ढील दे दी। मैंने हर मौके पर अनेक लिखित प्रतिवेदनों व शपथ पत्रों की मार्फत जैन- भ्रष्टाचार-आतंकवाद-हवाला कांड की जांच में जान-बूझकर की जा रही कोताही की नियमित सूचना सर्वोच्च न्यायालय को दी। पर ‘अनजान कारणों’ से इन तथ्यों की उपेक्षा कर दी गई। गनीमत है कि मेरे ये सभी प्रतिवेदन हवाला केस के ऐतिहासिक दस्तावेजों का हिस्सा हैं और उनमें निहित तथ्य कभी झुठलाए नहीं जा सकते। जिन्हें कानूनी मामलों की जानकारी है, वे कभी भी इस केस की फाइल सर्वोच्च न्यायालय से निकलवाकर सारे तथ्य जान सकते हैं।’’
सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि हवाला मामले में 18 दिसम्बर 1997 को दिए गए तथाकथित ‘ऐतिहासिक निर्णय’ द्वारा इस मामले पर खाक डाल दी गई। इस तरह न तो हवाला कांड के आरोपियों को सजा मिली और न ही सीबीआई के उन भ्रष्ट अधिकारियों को कोई सबक मिला जिन्होंने इस कांड की जांच को वर्षों साजिशन दबाए रखा और देश में आतंकवाद को बढ़ने का मौका दिया। इस तरह तो भविष्य के लिए भी यह तय हो गया कि सर्वोच्च न्यायालय की देख-रेख में भी भ्रष्ट अधिकारियों का कुछ नहीं बिगाड़ा जा सकता। आश्चर्य की बात है कि पिछले पचास वर्षों में भ्रष्टाचार शर्म की सारी सीमाएं लांघ गया, किंतु सीबीआई जैसी जांच एजेंसियां व सर्वोच्च न्यायालय आज तक एक भी बड़े भ्रष्ट नेता को सजा नहीं दिलवा सके। हवाला जैसे महत्वपूर्ण कांड पर दिया गया निर्णय भी इसी कड़ी में है। देशवासियों को इससे भारी निराशा हुई।
जैन हवाला कांड में राजनेताओं के खिलाफ अभियोग पत्र दाखिल करने का फैसला लेने वाले नरसिम्हा राव के लिए 1996 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले के कुछ महीने खासे परेशानी भरे रहे थे। कांग्रेस पार्टी पर उनकी पकड़ तेजी से कमजोर होने लगी थी और उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़े होने लगे थे। जुलाई, 1995 में देश की राजधानी दिल्ली में घटे एक जघन्य अपराध के तार एक कांग्रेस नेता से जा जुड़े थे। इस घटना ने देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल की छवि को तब भारी आघात पहुंचाने का काम किया था। इसे ‘तंदूर हत्याकांड’ के नाम से जाना जाता है। यूथ कांग्रेस के एक प्रभावशाली नेता सुशील शर्मा को अपनी पत्नी नैना साहनी की चरित्र पर शक था। उसका मानना था कि नैना साहनी का किसी अन्य व्यक्ति के संग विवाहयेत्तर सम्बंध हैं। 2 जुलाई, 1995 के दिन सुशील शर्मा ने इस शक के चलते नैना साहनी की गोली मारकर हत्या कर उसके शव को दिल्ली के एक सरकारी होटल के तंदूर में जलाने का प्रयास किया। शव पूरी तरह नहीं जल पाया था जिस चलते मामला उजागर हो गया। इस मामले में दिल्ली पुलिस और कांग्रेस की खासी छिछालेदर मीडिया में तब हुई थी। 10 जुलाई को सुशील शर्मा ने आत्मसमर्पण कर दिया था। शर्मा को निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनाई जिसे बाद में उच्चतम न्यायालय ने आजीवन कारावास में बदल दिया था। 2018 में 23 बरस जेल में बिताने बाद शर्मा को रिहा कर दिया गया। राव और कांग्रेस के लिए लोकसभा चुनावों से ठीक पहले घटा यह अपराध एक बड़ी शर्मिंदगी का कारण बना था। पंजाब इस दौरान एक बार फिर से आतंकवाद की चपेट में झुलसने लगा था। कांग्रेस और राव सरकार को एक बड़ा झटका 31 अगस्त 1995 के दिन पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की आतंकवादियों द्वारा नृशंस हत्या किए जाने से लगा। कांग्रेस के इस वरिष्ठ नेता और राज्य के मुख्यमंत्री को खालिस्तान समर्थक आतंकी संगठन ‘बब्बर खालसा इंटरनेशनल’ के आतंकियों ने चंडीगढ़ स्थित राज्य सरकार के सचिवालय बाहर मुख्यमंत्री के वाहन काफिले में बम विस्फोट कर मौत के घाट उतार दिया था। इस बम विस्फोट में 17 अन्य की भी जान चली गई थी। खालिस्तानी समर्थक आतंकियों ने राव का स्वागत 1991 में उनके सत्ता सम्भालने से ठीक पांच दिन पहले 15 जून को पंजाब के लुधियाना रेलवे स्टेशन में अंधाधुंध गोलीबारी कर 80 यात्रियों की हत्या कर दिया था। इस दौरान पंजाब पुलिस के तत्कालीन महानिदेशक केपीएस गिल आतंकियों के खिलाफ ताबड़-तोड़ कार्यवाही कर उनको पुलिस इनकाउंटर नीति के तहत मार डालने का अभियान छेड़े हुए थे जिसका पुरजोर विरोध राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों द्वारा किया जा रहा था। गिल की इस नीति से बौखलाए आतंकवादियो ने आम नागरिकों, विशेषकर हिंदुओं को अपने निशाने पर लेना शुरू कर दिया था। 17 अक्टूबर, 1991 के दिन उत्तर प्रदेश के शहर रूद्रपुर (अब उत्तराखण्ड में) में दो बम धमाके कर ‘भिंडरावाले सैफरन टाइगर्स आॅफ खालिस्तान’ नामक संगठन ने 40 निर्दोष नागरिकों की हत्या कर डाली थी। राव पर उनके विपक्षियों का आरोप था कि उन्होंने प्रधानमंत्री बनने बाद एक बार भी पंजाब का दौरा नहीं किया। मई 1995 में राव पंजाब गए जहां उन्होंने पंजाब सरकार को तोहफा देते हुए 5,800 करोड़ की भारी-भरकम राशि का कर्ज माफ करने की घोषणा करी थी। बेअंत सिंह सरकार द्वारा आतंकवाद को जड़ से समाप्त करने के प्रयासों को राव ने सराहते हुए राज्य में केंद्र सरकार की मदद से 1500 करोड़ की लागत से एक फर्टिलाइजर प्लांट लगाने और 15,00 युवाओं को स्वरोजगार के लिए एक लाख का कर्ज दिए जाने का भी ऐलान किया था। राव की इस सफल यात्रा के मात्र कुछ दिनों बाद ही आतंकियों ने मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या कर राव को यह संदेश देने का प्रयास किया कि उनकी इनकाउंटर नीति का प्रयोग असफल रहा है।
1996 के लोकसभा चुनाव 27 अप्रैल से 7 मई के मध्य कराए गए थे। इस चुनाव का नतीजा त्रिशंकु संसद के रूप में सामने आया। देश को आर्थिक बदहाली के दलदल से निकालने वाले नरसिम्हा राव को विशेषकर देश के मध्यम वर्ग ने नकार कांग्रेस को मात्र 140 सीटों में सिमटा दिया था। भारतीय जनता पार्टी 161 सीटें पा सबसे बड़ी पार्टी बन उभरी। तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने भाजपा को अल्पमत की सरकार बनाने का आमंत्रण दिया। 15 मई 1996 को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की पहली सरकार का गठन केंद्र में हुआ था। वाजपेयी को राष्ट्रपति ने दो सप्ताह के भीतर लोकसभा में अपना बहुमत साबित करने के निर्देश दिए थे। वाजपेयी ऐसा कर पाने में विफल रहे और मात्र 13 दिन बाद ही इस सरकार का पतन हो गया था और उसके बाद दो अल्पमत की सरकारों का केंद्र में गठन हुआ। कांग्रेस ने जनता दल के नेता एच.डी. देवेगौड़ा के नेतृत्व में गठित सरकार को बाहरी समर्थन दिया। यह सरकार मात्र कुछ महीनों तक चली। कांग्रेस ने दस माह के भीतर ही इस सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। देवेगौड़ा के त्याग पत्र बाद एक बार फिर से पलटी मारते हुए कांग्रेस ने इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में गठित जनता दल सरकार को अपना समर्थन दे डाला। इस सरकार का भी लेकिन कुछ माह बाद पतन हो गया था और देश में एक बार फिर से मध्यावधि चुनाव 1998 में कराए गए थे। इस मध्यावधि चुनाव में भी कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा था और भाजपा इस बार 182 सीटें जीत सबसे बड़ी पार्टी बन उभरी थी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एक बार फिर से गठबंधन सरकार का गठन केंद्र में हुआ था।
क्रमशः