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फिर गूंजा सत्ता हस्तांतरण का राग

कर्नाटक की राजनीति में एक बार फिर हलचल तेज हो गई है और इस बार यह हलचल विपक्ष में नहीं, बल्कि सत्ता पक्ष कांग्रेस के भीतर है। गत सप्ताह मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार दिल्ली आए। आधिकारिक तौर पर उनके दौरे को कर्नाटक के विकास और नई योजनाओं की चर्चा बताया गया, लेकिन राजनीतिक गलियारों में असली चर्चा राज्य में सम्भावित नेतृत्व परिवर्तन की रही।

जब मई 2023 में कांग्रेस ने भारी जीत दर्ज की थी, तभी यह सत्ता साझेदारी की सहमति बनी थी कि सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री और शिवकुमार को उपमुख्यमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन कार्यकाल के बीच में सत्ता का हस्तांतरण होगा। अब लगभग डेढ़ साल बीतने पर, वह ‘‘बीच का समय’’ नजदीक आता दिख रहा है।

दिल्ली दौरे में शिवकुमार की प्रियंका गांधी से मुलाकात को उनके शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा जा रहा है। प्रियंका गांधी पार्टी के आंतरिक मामलों में अहम भूमिका निभा रही हैं, और शिवकुमार का उनसे मिलना कई संदेश दे गया। दूसरी ओर, कर्नाटक भवन में बने मुख्यमंत्री स्वीट में शिवकुमार का रुकना एक प्रतीकात्मक घटना बन गई, जिसने राज्य से दिल्ली तक सियासी चर्चाओं को और हवा दी।

सिद्धारमैया खेमा इसे राजनीतिक दबाव बनाने की कोशिश मानता है, जबकि शिवकुमार समर्थकों का कहना है कि अब समय आ गया है कि उन्हें वह जिम्मेदारी मिले, जो उन्हें पहले से आश्वस्त की गई थी। उनके समर्थक यह भी दावा करते हैं कि शिवकुमार की संगठन पर मजबूत पकड़ और जमीनी लोकप्रियता का कांग्रेस को पूरा लाभ मिलना चाहिए।

कांग्रेस आलाकमान के लिए यह संतुलन साधना आसान नहीं है। राज्य में महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की समस्याएं और सांप्रदायिक तनाव जैसी चुनौतियां सरकार के सामने पहले से हैं। लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन ने दबाव और बढ़ा दिया है। ऐसे में अगर पार्टी में आंतरिक खींचतान खुलकर सामने आती है, तो यह विपक्ष के लिए बड़ा मौका बन सकता है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि फिलहाल नेतृत्व परिवर्तन टालना कांग्रेस के लिए व्यावहारिक हो सकता है, लेकिन शिवकुमार की महत्वाकांक्षाओं को लम्बे समय तक रोक पाना मुश्किल होगा। खुद शिवकुमार ने पिछले वर्षों में अपनी छवि एक कुशल रणनीतिकार, संकटमोचक और संसाधन जुटाने वाले नेता के रूप में स्थापित की है, जो पर्दे के पीछे से खेल की दिशा बदल सकते हैं।

कर्नाटक कांग्रेस की यह खींचतान केवल राज्य तक सीमित नहीं रहेगी। राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष की एकता के प्रयासों में कांग्रेस की भूमिका अहम है, और अगर उसकी सबसे बड़ी राज्य सरकार में अस्थिरता बढ़ी तो राष्ट्रीय राजनीति में भी इसका असर पड़ेगा। आलाकमान के सामने सवाल यही है – सत्ता संतुलन का क्या नया फाॅर्मूला बनेगा और क्या पार्टी नेतृत्व समय रहते कोई स्पष्ट निर्णय ले पाएगा? सबकी निगाहें अगले कुछ हफ्तों पर टिकी हैं। या फिर यह केवल राजनीतिक सोशियोलाॅजी कर रह जाएगा।

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