बचपन की स्मृतियों की अगर कोई सबसे उजली तस्वीर है तो वो है, बागेश्वर के संगम पर बाबा बागनाथ के मंदिर की सीढिय़ां। मैं उस धरती की बेटी हूं, जिसकी आस्था की पहली पाठशाला यही मंदिर रहा। जहां हर ध्वनि, हर हवा की सरसराहट में मानो भोलेनाथ की पुकार गूंजती है। यहां आकर मन खाली नहीं लौटता, बल्कि श्रद्धा, शांति और उत्तरों से भरकर लौटता है, यही इस देवभूमि की अद्भुत शक्ति है
कंचन आर्या दि संडे पोस्ट यू-ट्यूब चैनल से सम्बध
बाबा बागनाथ मंदिर बागेश्वर
बचपन से इस मंदिर की सीढिय़ां चढ़ती आई हूं, कभी मम्मी का हाथ पकड़कर, कभी अम्मा के संग तो कभी स्कूल की छुट्टियों में दोस्तों के साथ। हर बार भीतर प्रवेश करते ही मन में जो शांति उतरती थी, वो शब्दों में नहीं सिर्फ आत्मा से महसूस होती थी। मन में कितनी बार सवाल उठे, बाबा बागनाथ कौन हैं? क्यों इस संगम पर उनका इतना अद्भुत मंदिर है? लेकिन बचपन का संकोच, अनुशासन की सीख और चुपचाप मान लेने की परम्परा उन सवालों को भीतर ही दबा देती थी। फिर भी, आस्था कभी डगमगाई नहीं। मंदिर की घंटियों की ध्वनि, धूप की सुगंध, हवा में घुला चंदन और श्रद्धालुओं की मौन प्रार्थना, इन सब में एक अदृश्य दिव्यता रची-बसी है जो हर बार भीतर तक उतर जाती है।
समय बीतता गया। मैं बड़ी हुई, पढ़ाई के लिए हल्द्वानी गई। पर जब भी घर लौटी, बाबा की वह पुकार फिर गूंजने लगती और मन अनायास कह उठता, ‘मां, मंदिर जाना है…’ मां मुस्कुरातीं, ‘कल सावन का पहला सोमवार है, हम सब मिलकर जल चढ़ाएंगे, अभिषेक करेंगे।’ उस रात नींद कहां आती! आंखें बंद करते ही बाबा का चेहरा उभर आता और एक जिज्ञासा भीतर से उठती, कौन हो बाबा?
सावन के पहले सोमवार की सुबह, मंदिर की चौखट पर कदम रखते ही सांसें ठहर गईं। वो विशाल घंटी जो बरसों से देखती आई थी, आज जैसे दिल के भीतर गूंज उठी। हर दिशा से भक्त आ रहे थे, कोई गंगाजल लिए, कोई बेलपत्र, कोई चंदन लगाए, कोई नंगे पांव… ढोल-दमाऊं की आवाजें, घंटियों की मधुर ध्वनि, ‘हर-हर महादेव’ की गूंज… और हर चेहरे पर एक गहन शांति। मैं भी भक्तों की कतार में लग गई, सिर झुकाए, हाथों में पूजा की थाली लिए, मन में श्रद्धा से कहीं ज्यादा जिज्ञासा समेटे। जैसे-जैसे पंक्ति आगे बढ़ती, भीतर की कोई अदृश्य डोर मुझे खींचती जाती, मंदिर के नहीं उस रहस्य के, जिसे मैं बरसों से महसूस करती आई, पर कभी समझ नहीं पाई।
शिवलिंग के पास पहुंची तो मन की हलचल थम गई। बचपन में कितनी बार आई थी, पर आज, आंखों से आंसू बह निकले। थरथराते हाथों से जल उठाया और बाबा के शिवलिंग पर अर्पित कर दिया, हर बूंद में जैसे मेरी अनकही प्रार्थनाएं बह रही थीं। मैंने बाबा से कहा, ”हे भोलेनाथ, बचपन से आपके इस मंदिर में आती रही हूं। अब जानना चाहती हूं, वो शक्ति, वो रहस्य, वो विश्वास, जिसने पीढिय़ों से यहां तक लोगों को खींचा है।” और तभी, भीतर एक अजीब-सी शांति उतर आई, जैसे बाबा ने कह दिया हो, ”जानोगी… समय से, अनुभव से, श्रद्धा से।”
शिवलिंग के दर्शन के बाद मैं नीचे काल भैरव मंदिर पहुंची। वहां की ऊर्जा भव्य और रौद्र थी, जैसे शिव के रक्षक स्वयं उपस्थित हों। मैंने वहां भी जल चढ़ाया और मन ही मन कहा- ”हे काल भैरव, मेरी श्रद्धा की रक्षा करना, मुझे सत्य की राह पर दृढ़ बनाना।”
फिर मैं सरयू नदी के किनारे जा बैठी। बहती जलधारा को देखती रही, मन में शांति भी थी, सवाल भी। तभी एक वृद्ध पुजारी जी ने पास आकर कहा, ”बेटी, आज शिव की पूजा कर ली, अब आगे का रास्ता वो खुद दिखाएंगे।”
उनके शब्दों ने भीतर कुछ सुलगा दिया- जैसे बाबा ने ही किसी और के माध्यम से उत्तर भेज दिया हो। मेरी आंखें नम हो गईं।
बाबा बागनाथ मंदिर परिसर में लेखिका
मैंने धीरे से पूछा, ”पुजारी जी, क्या है इस मंदिर का इतिहास?” उन्होंने मुस्कुराकर बताया- ”यह वही भूमि है जहां स्वयं शिव ने बाघ का रूप धारण किया था। मार्कण्डेय ऋषि की तपस्या के चलते सरयू नदी की धारा रुक गई थी। वशिष्ठ मुनि की प्रार्थना पर महादेव बाघ बने, पार्वती गाय और उनके रंभाने से ऋषि की आंख खुली, तब सरयू प्रवाहित हो सकी। तभी से ये स्थान बागेश्वर, बागनाथ कहलाया।”
उन्होंने आगे बताया कि यह मंदिर 7वीं शताब्दी से पूजित है, चंद वंश के राजा लक्ष्मीचंद ने 1602 में इसे भव्य रूप दिया। यहां की मूर्तियां, प्रस्तर प्रतिमाएं, चैत्यगवाक्ष, द्वारशाखाएं, सब उत्तराखण्ड के गौरवशाली इतिहास की निशानियां हैं। काल भैरव को यहां बागेश्वर का कोतवाल माना जाता है, जैसे काशी में। बलिप्रथा की परम्परा हाईकोर्ट के आदेश के बाद बंद हुई, पर आज भी लोग खिचड़ी चढ़ाकर मनोकामनाएं मांगते हैं।
संध्या को सरयू घाट पर जब आरती शुरू हुई, दीपों की रेखाएं जल उठीं, घंटियों की मधुर ध्वनि गूंजने लगी, तब लगा, यह आरती सिर्फ परम्परा नहीं, मां सरयू की गोद में बैठकर आत्मा के घावों पर एक अदृश्य हाथ फिर जाने जैसा अनुभव है। उस शाम, मैंने जाना, बागनाथ सिर्फ एक मंदिर नहीं, वो इतिहास, परम्परा और दिव्यता का जीवंत प्रमाण है।
जब लौटते समय मैंने पुजारी जी से कहा, ”धन्यवाद, आपने मेरे लिए इस मंदिर को एक स्थान से अनुभव बना दिया” तो उनकी मुस्कान में जैसे आशीर्वाद छुपा था। मैं मां सरयू की लहरों की ओर चल दी… जहां अब शांति भी बोल रही थी।
ॐ नम: शिवाय।
क्रमश: (लेखिका पत्रकार हैं, उत्तराखण्ड के मंदिरों पर विशेष रूप से लिखती हैं तथा इन धार्मिक स्थलों की बाबत यू-ट्यूब के जरिए अपनी बात सामने रखती हैं।)