बिहार में साल के अंत में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। लेकिन सभी राजनीतिक दल अभी से अपने संगठन को मजबूत करने में जुट गए हैं। इस दिशा में कांग्रेस ने अपने 40 संगठनात्मक जिलों के अध्यक्षों की जो नियुक्ति की है उनमें 14 सवर्ण बिरादरी से हैं तो पांच दलित, सात अल्पसंख्यक, 10 ओबीसी, तीन अति पिछड़ा समाज और एक वैश्य समाज से आते हैं। हालांकि यह पहला मौका नहीं है। इसके पूर्व मई 2023 में 39 जिलों में अध्यक्ष नियुक्त किए थे उनमें 25 जिलों की कमान सवर्ण अध्यक्षों को दी गई थी। इनमें 11 भूमिहार, पांच राजपूत, आठ ब्राह्माण और एक कायस्थ बिरादरी के थे। इनके अलावा चार यादव, पांच मुस्लिम, तीन पासवान और एक रविदास बिरादरी से आते थे। इन जिलाध्यक्षों में दो महिलाएं भी थी। 2023 की कमेटी की अपेक्षाकृत नई कमेटी में अगड़ों की संख्या में काफी कमी आई है। इस कमेटी ने महज चार दिनों में जिलों का आकलन करने के बाद अपनी अनुशंसा केंद्रीय हाईकमान को भेजी थी। जिसके बाद 21 नए चेहरों को पार्टी में जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गई है। जबकि 19 पुराने चेहरों को वापस जिलाध्यक्ष पद का जिम्मा दिया गया है। लेकिन इस साल बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले जिलाध्यक्षों के 14 पद सवर्णों को देने को लेकर पार्टी के भीतर और बाहर खटपट की चर्चा है। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि नए जिला अध्यक्षों को लेकर कोई शंका, विवाद नहीं है। पार्टी सबको साथ लेकर चलने में विश्वास करती है। जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में भी इसका ख्याल रखा गया है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या कांग्रेस बिहार में इस बार कमाल कर पाएगी? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि देश में मंडल की राजनीति के बाद से बिहार जैसे प्रदेश में पिछड़ी जातियों का वोट सभी राजनीतिक दलों के लिए तुरुप का इक्का साबित होता आया है। कांग्रेस भी अल्पसंख्यक, पिछड़ा, अति पिछड़ा वोट को अपना कोर वोट बताती रही है। लेकिन कांग्रेस मंडल की राजनीति के तीन दशकों के बाद बिहार में काफी कमजोर हुई है। ऐसे में वह नया दांव चलकर अगड़ी जातियों के अपने पुराने वोटरों को लुभाने में जुटी है। साथ ही दलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा का हिमायती होने का दावा भी कर रही है। बहरहाल, कांग्रेस अपने इस प्रयोग में कितना सफल होगी इसका निर्णय तो विधानसभा चुनाव के बाद पता चल पाएगा।

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