लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुवांशिक संगठनों को पूरी तरह जिम्मेदार ठहराया। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, राज्य की नौकरशाही और पुलिस बल पर कठोर टिप्पणी करते हुए आयोग ने कहा- ‘कल्याण सिंह, उनके मंत्रियों और उनके चुने हुए नौकरशाहों ने मानव निर्मित और उत्प्रेरक परिस्थितियां पैदा की, जिसके फलस्वरूप विवादित ढांचे के विध्वंस के सिवा कोई दूसरा नतीजा नहीं हो सकता था। इससे दो धार्मिक समुदायों के मध्य दरार गहराई जिसके कारण देश भर में नरसंहार हुआ। इन लोगों ने हर कानूनी, नैतिक और वैधानिक दायित्यों को दरकिनार कर राज्यों को बदनाम करने तथा जानबूझ कर विनाश और अराजकता सुनिश्चित करने का काम किया।’
प्रेस/मीडिया की भूमिका पर इस आयोग ने दो बातें मुख्य रूप से चिन्हित की। पहली बात राज्य सरकार द्वारा प्रेस के प्रतिनिधियों को निष्पक्ष रूप से काम नहीं करने देना, उनका उत्पीड़न करना तो दूसरी बात प्रेस/मीडिया के एक वर्ग द्वारा भ्रामक समाचारों का प्रसारण करना। आयोग ने कहा- ‘उत्तर प्रदेश की सरकार दोषी थी। उसने मीडिया के प्रति अपनी जिम्मेदारी को ठीक वैसे ही छोड़ दिया था जैसे अपने कानून के शासन को छोड़ दिया था। उसने अपनी भूलों और चूकों के पापों के जरिए स्वतंत्र प्रेस पर हमलों को उकसाया, सहायता दी और हमलावरों को संगठित किया…उस समय मीडिया का ध्रुवीकरण हो गया था, जो किसी भी सभ्य समाज में स्वाभाविक घटना है। किसी पक्षपातपूर्ण खबर का उत्तर उसी या अन्य किसी समाचार माध्यम में उसका प्रतिवाद कर दिया जा सकता है। कटु और क्रूर कलम का जवाब कलम से ही दिया जाना चाहिए।’
बाबरी विध्वंस के बाद 14 दिसम्बर, 1992 को केंद्र सरकार ने मस्जिद गिराए जाने को एक पूर्व नियोजित षड्यंत्र मानते हुए इसकी जांच केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई के हवाले कर दी थी। सीबीआई की जांच तत्काल शुरू तो हुई लेकिन तकनीकी मकड़जाल में उलझ कर रह गई। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने के पश्चात इस मामले में दो एफआईआर दर्ज की गईं थी। पहली एफआईआर (संख्या 197/1992) उन अनाम कार सेवकों के खिलाफ थी जिन पर मस्जिद को ध्वस्त करने, लूटपाट-डकैती करने, सांप्रदायिकता फैलाने के आरोप थे। एक दूसरी एफआईआर (संख्या 198/1992) भी इसी मुद्दे पर दर्ज की गई जिसमें लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, विहिप नेता विनय कटियार, अशोक सिंघल, उमा भारती समेत कई भाजपा-विहिप नेताओं को भड़काऊ भाषण देने और कार सेवकों को उकसाने के आरोप थे। पहली एफआईआर की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी, दूसरी जांच उत्तर प्रदेश पुलिस (सीबीसीआईडी) के हवाले की गई। कार सेवकों पर दर्ज एफआईआर की सुनवाई के लिए ललितपुर (उत्तर प्रदेश का एक जिला) में विशेष अदालत का गठन किया गया था। दूसरी एफआईआर की सुनवाई रायबरेली जिले की एक विशेष अदालत में की गई। इन दो अलग-अलग एफआईआर चलते तकनीकी पेंच पैदा हो गया और अदालती सुनवाई वर्षों तक लटकी रही थी। तकनीकी पेंच सीबीआई द्वारा दोनों एफआईआर को अपनी जांच का हिस्सा बनाने चलते उपजा था। सीबीआई ने 5 अक्टूबर 1993 को दोनों एफआईआर पर एक संयुक्त आरोप पत्र दायर किया जिसे दूसरी एफआईआर (संख्या 198) के आरोपियों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में यह कहते हुए चुनौती दे दी थी कि इस एफआईआर की जांच का जिम्मा सीबीआई को नहीं सौंपा गया था। सीबीआई ने अपने आरोप पत्र में आडवाणी समेत सभी अभियुक्तों पर आपराधिक साजिश रचने की बात कही थी। इस तकनीकी पेंच के चलते राजनेताओं पर दर्ज मुकदमे की सुनवाई रायबरेली की विशेष अदालत में ही चली। 2005 में इस अदालत ने सभी राजनेताओं को पर्याप्त सबूत न होने के आधार पर बरी कर दिया था। इस आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रद्द करते हुए आडवाणी समेत सभी अभियुक्तों पर मुकदमा चलाए जाने का फैसला दिया। वर्ष 2010 में हाईकोर्ट ने सीबीआई की दलील को नामंजूर करते हुए दोनों मुकदमों को एक साथ सुने जाने से इनकार कर दिया। हाईकोर्ट के इस निर्णय को सीबीआई ने 2011 में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। वर्ष 2017 में उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को रद्द करते हुए दोनों मामलों को एक साथ सुने जाने का आदेश दिया। उच्चतम न्यायालय ने आडवाणी और जोशी समेत सभी नेताओं पर आपराधिक षड्यंत्र रचने के आरोप भी तय करने और इस पूरे प्रकरण पर सुनवाई को दो वर्ष के भीतर तय करने का फैसला सुनाया। इस दौरान केंद्र में सत्ता परिवर्तन हो चुका था और भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की सरकार सत्ता में आसीन हो चली थी। सीबीआई की लखनऊ स्थित विशेष अदालत को इन दोनों मामलों की सुनवाई सौंपी गई। सीबीआई ने कुल 49 व्यक्तियों को बाबरी मस्जिद विध्वंस का दोषी माना था। मस्जिद गिराए जाने के 28 बरस बाद आए फैसले में सभी अभियुक्तों को सबूत न होने की बात कह विशेष अदालत ने बरी कर दिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस ने भारतीय लोकतंत्र की नींव को हिलाने का काम किया था। पड़ोसी देशों संग इस घटना बाद हमारे रिश्तों में भारी तनाव देखने को तब मिला था। बांग्लादेश में हिंदूओं पर हमले, मंदिरों को तोड़े जाने की कई घटनाएं 1992 में हुईं थी। भारत-बांग्लोदश के मध्य चल रही क्रिकेट टेस्ट मैच सीरीज को तब रोकना पड़ा जब उग्र भीड़ ने ढ़ाका के बगबंधु नेशनल स्टेडियम में हमला बोल दिया था। खाड़ी के देशों ने एक सुर में इस विध्वंस की निंदा कर भारत की परेशानी बढ़ाने का काम किया था। पाकिस्तान में 7 दिसम्बर 1992 को सार्वजनिक अवकाश रखा गया। इस दिन 30 हिंदू मंदिरों को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया था। ब्रिटेन में भी मंदिरों में तोड़- फोड़ की गई थी।
बाबरी मस्जिद का विध्वंस केवल एक इमारत अथवा धार्मिक स्थल का तोड़ा जाना भर नहीं है। यह विध्वंस भारतीय संस्कृति, जिसे हम गंगा-जमुनी संस्कृति कह गर्व करते आए थे, का विध्वंस था। ऐसी ऐतिहासिक भूल जिसने हमारे सामाजिक ताने-बाने को हमेशा के लिए ध्वस्त करने का काम किया। नरसिम्हा राव भारतीय अर्थव्यवस्था को तो पटरी में लाने में तो कामयाब रहे लेकिन इतिहास उन्हें उनके इस योगदान से कहीं ज्यादा बाबरी मस्जिद प्रकरण में उनकी संदिग्ध भूमिका के लिए याद रखता है, रखता रहेगा। सोनिया गांधी का राजनीति में प्रवेश करना इस दुर्घटना से पूर्व लगभग असम्भव माना जाता था। राजीव गांधी की पत्नी ने कांग्रेस के नेताओं को दो टूक शब्दों में बता दिया था कि वे किसी भी परिस्थिति में राजनीति का मार्ग नहीं पकड़ेगीं। इस दुर्घटना ने लेकिन अराजनीतिक सोनिया को खासा विचलित करने का काम किया। इस प्रकरण से पहले सोनिया गांधी और नरसिम्हा राव के सम्बंध बेहद सौहार्दपूर्ण थे। नरसिम्हा राव की आर्थिक नीतियों से असहमत कांग्रेसी नेताओं का एक गुट जिसमें अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी और शरद पवार प्रमुख थे, लगातार नरसिम्हा राव के खिलाफ सोनिया गांधी को उकसाने का काम करते रहते थे। बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने बाद उनके प्रयास रंग लाने लगे। सोनिया गांधी ने अपनी गहन चुप्पी को तोड़ते हुए एक सार्वजनिक बयान जारी कर बाबरी मस्जिद तोड़े जाने की कठोर शब्दों में निंदा कर राव की मुसिबतों में इजाफा कर डाला- ‘बाबरी मस्जिद विध्वंस ने राव एवं सोनिया के मध्य गहरी दरार पैदा करने का काम किया। सोनिया गांधी ने राजीव गांधी फाउंडेशन की अध्यक्ष की हैसियत से इस कृत्य की कठोर शब्दों में निंदा करी। राव इस फाउंडेशन के ट्रस्टी थे।’ देश को आर्थिक बदहाली के दलदल से बाहर निकालने वाले नरसिम्हा राव पर यह आरोप स्थाई तौर पर चस्पा रहा कि उन्होंने जान-बूझकर समय रहते इस विवादित ढांचे को बचाने का प्रयास नहीं किया था। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद राव ने इस प्रकरण पर एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने अपने बचाव में कई तर्क दिए हैं लेकिन इतिहास की नजर में उनकी भूमिका संदिग्ध ही बनी हुई है। राव ने उत्तर प्रदेश में समय रहते राष्ट्रपति शासन न लगाने के कई कारण अपनी इस पुस्तक में गिनाए हैं। राव लिखते हैं- ‘मैं गिनती नहीं कर सकता कि कितने लोगों, मित्रों और विरोधियों, दोनों ने मुझसे यह सवाल किया है कि ‘6 दिसम्बर 1992 को हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस रोकने के लिए आपने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं लगाया?…मैंने अपने सहकर्मियों को अपना स्पष्टीकरण देने का भरसक प्रयास किया लेकिन वोट आधारित राजनीति चलते उन्होंने पहले से ही तय कर दिया था कि किसी एक व्यक्ति को इस ऐतिहासिक त्रासदी के लिए जिम्मेदार ठहराना होगा। यदि सफलता मिली होती तो (जैसा की शुरुआती महीनों में निश्चित रूप से लग रहा था) तो ये सभी सफलता में साझेदारी अवश्य करते। इसलिए वे दोतरफा खेल खेल रहे थे। सफलता की स्थिति में श्रेय लेने का और असफलता की स्थिति में किसी एक को बलि का बकरा बनाने का। यह एक सटीक रणनीति थी। वे असफलता के लिए मुझे जिम्मेदार ठहरा यह कह सकते थे कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के कारण कांग्रेस को मुसलमान वोट नहीं मिले। यह देखना बाकी है कि क्या भविष्य इस सम्बंध में मुझे सही ठहराएगा। यदि ऐसा हुआ यह देखना बाकी है कि भविष्य इस संबंध में मुझे सही ठहराएगाः यदि ऐसा हुआ तो निःसंदेह मुझे प्रसन्नता होगी।’
राव इस मुद्दे पर खुद को बेकसूर और बेदाग देखना चाहते थे। उनकी यह इच्छा न तो उनके जीवनकाल और न ही उनकी मृत्यु उपरांत पूरी हो सकती है। बाबरी मस्जिद प्रकरण पर उनकी भूमिका को संदिग्ध माना जाता है। बकौल कुलदीप नैयर-‘Rao’s government will always be held responsible for the demolition of Babri Masjid. The curious thing was that he was aware conscious of such an eventuality but did nothing to avent it’30 (30. Kuldip Nayar, Beyond The Lines, P.412) (राव सरकार को हमेशा ही बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाएगा। आश्चर्यजनक यह है कि वे इस घटना के घटित होने की सम्भावना से पूरी तरह परिचित थे लेकिन उन्होंने इसे रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया।)
क्रमशः