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यूनेस्को के आंगन पर लोक-संस्कृति की धूम

उत्तराखण्ड में रामायण, महाभारत की सैकड़ों विधाएं मौजूद हैं। जिसमें से कई विधाएं विलुप्ती की कगार पर हैं। परंतु कई लोगों के अथक प्रयास व दृढ़ संकल्प, निश्चय से इनके संरक्षण और विकास के लिए अभूतपूर्व कार्य कर इस लोक-संस्कृति को बचाने के लिए अहम भूमिका निभाई है। जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों व श्रद्धालुओं को यहां की लोक-संस्कृति के दर्शन कराते हैं, साथ ही वर्षों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखने का प्रयास भी करते हैं। ऐसी ही एक लोक संस्कृति है रम्माण

  • संजय चैहान

उत्तराखण्ड ने सदियों से लोक-संस्कृति, लोक-कालाओं, लोक-गाथाओं को संजोकर रखा है। विश्व प्रसिद्ध नौटी की नंदाराजात हो या फिर देवीधुरा का बग्गवाल युद्ध, गुप्तकाशी के जाख देवता का जलते अंगारों पर हैरतंगैज नृत्य, जो यहां की लोक-संस्कृति की झलक दिखलाती है। चमोली के पैनखण्डा से यूनेस्को के विश्व धरोहर बनने में रम्माण ने लोक-संस्कृति की अनूठी छटा पेश की है। उत्तराखण्ड में रामायण, महाभारत की सैकड़ों विधाएं मौजूद हैं। जिसमें से कई विधाएं विलुप्ती की कगार पर हैं। परंतु कई लोगों के अथक प्रयास व दृढ़ संकल्प, निश्चय से इनके संरक्षण और विकास के लिए अभूतपूर्व कार्य कर इस लोक-संस्कृति को बचाने के लिए अहम भूमिका निभाई है। जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों व श्रद्धालुओं को यहां की लोक-संस्कृति के दर्शन कराते हैं, साथ ही वर्षों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखने का प्रयास भी करते हैं। ऐसी ही एक लोक संस्कृति है रम्माण।

माना जाता है कि रम्माण का इतिहास लगभग 500 वर्षों से भी पुराना है. जब यहां हिंदू धर्म का प्रभाव समाप्ति पर भा तो आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा हिंदू धर्म के पुनर्जन्म हेतु पूरे देश में चार पीठों की स्घ्थापना की गई, साथ ही ज्योर्तिमठ (जोशीमठ) के आस-पास के इलाकों में हिंदू धर्म के प्रति लोगों को पुनः जागृत करने हेतु अपने शिष्यों को हिंदू देवी-देवताओं के मुखौटे पहनाकर रामायण, महाभारत के कुछ अंशों को मुखौटा नृत्य के माध्यम से गांव-गांव में भेजा गया ताकि लोक हिंदू धर्म को पुनः अपना सकें। शंकराचार्य के शिष्यों द्वारा कई सालों तक मुखौटे पहनकर इन गांवों में नृत्यों का आयोजन किया जाता रहा, जो बाद में यहां के समाज का अभिन्न अंग बनकर रह गई और आज विश्व धरोहर बन चुकी है।

रम्माण को सलूड की चैपाल से यूनेस्को के आंगन तक पहुंचा गए डाॅ. कुशल सिंह भंडारी

डुंग्रा गांव के डाॅ. कुशल सिंह भंडारी विगत 20 वर्षों से संस्कृति के संरक्षण का कार्य कर रहे हैं। शिक्षाविद और संस्कृतिकर्मी डाॅ. कुशल सिंह भंडारी जनवरी 2025 में पीएम श्री राजकीय इण्टर काॅलेज गौचर चमोली के प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्ति के बाद फरवरी 2025 से विद्या भारती शिक्षा समिति उत्तराखण्ड के प्रांतीय अध्यक्ष के दायित्व का निर्वहन कर रहें हैं। डाॅ. कुशल सिंह भंडारी को शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिष्ठित शैलेश मटियानी पुरुस्कार सहित विभिन्न अवसरों पर शिक्षा और संस्कृति के संरक्षण के लिए दर्जनों पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। वर्ष 2007 तक रम्माण सिर्फ पैनखण्डा तक ही सीमित था परंतु डाॅ. कुशल सिंह भण्डारी के मेहनत का ही नतीजा था कि आज रम्माण को वो मुकाम हासिल है। आज रम्माण विश्व फलक पर अपनी चमक बिखेरे रहा है। डाॅ. कुशल सिंह भण्डारी ने रम्माण को लिपिबद्ध कर इसे अंग्रेजी में अनुवाद किया, तत्पश्चात इसे गढ़वाल विश्वविद्याल लोक कला निष्पादन केंद्र की सहायता से वर्ष 2008 में दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र तक पहुंचाया गया। इस संस्थान को रम्माण की विशेषता इतनी पसंद आई कि उक्त संस्थान की पूरी टीम सलूड-डूंग्रा पहुंची और वे लोक इस आयोजन से इतने अभिभूत हुए कि 40 लोगों की एक टीम को दिल्ली बुलाया गया, जिन्होंने दिल्ली में अपनी शानदार प्रस्तुतियां दी। तत्पश्चात इसे भारत सरकार द्वारा यूनेस्को भेजा गया, जिसके बाद 02 अक्टूबर 2009 को यूनेस्को द्वारा पैनखण्डा के रम्माण को विश्व सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया गया। 11 व 12 दिसम्बर 2009 को आईसीएस के दो सदस्सीय दल में शामिल जापान मूल के होसिनो हिरोसी तथा यूमिको ने प्रमाण-प्रत्र ग्रामवासियों को सौंपे तो गांव वालों की खुशी का ठिकाना ना रहा। डाॅ. कुशल सिंह भंडारी के नेतृत्व में 2016 रम्माण नें गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली राजपथ परेड में दुनिया को लोक-संस्कृति के दीदार कराए। इसके अलावा 2018 में बेंगलुरू, 2018, 2019 एवं 2024 में गौचर मेले, 2023 में विरासत कार्यक्रम देहरादून और 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बद्रीनाथ आगमन पर माणा गांव में रम्माण की प्रस्तुति दी। डाॅ. कुशल सिंह भंडारी के अलावा डाॅ. दाताराम पुरोहित ने भी रम्माण को यूनेस्को तक पहुंचाने में अतुल्यनीय योगदान दिया।

रम्माण : एक नजर

इतिहास 500 वर्ष पुराना
आयोजन सलूड-डूंग्रा (पैनखण्डा), जोशीमठ, चमोली
तिथि प्रत्येक वर्ष बैशाख माह (अप्रैल)
शैली – जागर, भल्ला, गायन शैली,
वाद्य यंत्र – ढोल, दमाऊं, झांझर, मंजीरे, भंकोरे
परिधान – घाघरा, चूड़ीदार पायजामा, रेशमी साफे
नृत्य नाटिका – 18 मुखौटे, 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊं, 8 भौकरे
विशेष चरित्र – कुरू जोगी, बण्यां-बण्यांण, माल, म्योर-मुरैण नृत्य मंचन
विश्व सांस्कृतिक धरोहर घोषित – 02 अक्टूबर 2009
2016 रम्माण नें गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली राजपथ परेड में देश दुनिया को अचम्भित किया।

ऐसे होता है आयोजन!

पैनखण्डा (ज्योर्तिमठ) के सलडू-डूंग्रा गांव में रम्माण का आयोजन प्रतिवर्ष बैशाख माह में किया जाता है। एक पखवाड़े तक चलने वाली मुखौटा शैली व भल्दा परंपरा की यह लोक-संस्कृति आज पूरे विश्व में अपनी चमक बिखेरे हुए है। पांच सौ वर्ष से चली आ रही इस धार्मिक विरासत में राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान के पात्रों द्वारा नृत्य शैली में रामकथा की प्रस्तुति दी जाती है। जिसमें 18 मुखौटे 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊं, आठ भंकोरे प्रयोग में लाए जाते हैं। इसके अलावा राम जन्म, वनगमन, स्वर्ण मृग वध, सीता हरण, लंका दहन का मंचन ढोलों की थापों पर किया जाता है।

बण्यां-बण्यांण नृत्य

इसके बारे में कहा जाता है कि ये तिब्बत के व्यापारी थे जो व्यापार करने गांवों में आते थे, एक बार चोरों ने इनका सब कुछ लूट लिया जिसे इस नृत्य द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।

म्योर-मुरैण नृत्य

पहाड़ों में जंगलों में लकड़ी व घास लाने के समय जंगली जानवरों द्वारा आक्रमण किया जात है, जिसका चित्रण म्योर-मुरैण नृत्य में किया जाता है। माल-मल्ल नृत्य 1804-14 के समय गोरखा काल में स्थानीय लोगों व गोरखाओं के मध्य हुए युद्ध का चित्रण इस नृत्य में किया जाता है। कुरू-जोगीहास्य पात्र जो अपने पूरे शरीर पर कुरू (विशेष प्रकार का घास चिपकने वाला) लगाकर लोगों के मध्य जाता है। कुरू चिपकने के भय से लोग इधर-उधर भागते हैं, कुरू जोगी (साधु) अपने शरीर के कुरू को निकालकर लोगों पर फेंकता है। अर्थात कुल मिलाकर रम्माण में संस्कृति, इतिहास, जीवनशैली की अनूठी झलक देखने को मिलती है।

रम्माण के अंत में भूम्याल देवता प्रकट होते हैं और समस्त गांववासी भूम्याल को एक परिवार विशेष के घर विदाई देने पहुंचते हैं, जहां पूरे सालभर उसी परिवार द्वारा भूम्याल देवता की पूजा-अर्चना की जाती है। जिसके बाद उस घर के आंगन में प्रसाद वितरण कर इस पौराणिक आयोजन का समापन होता है।

 

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