Editorial

सिर्फ विरोध के लिए विरोध जायज नहीं

‘‘मैं हमेशा विपक्ष के पक्ष में हूं लेकिन यह एक स्वस्थ विपक्ष होना चाहिए। लेकिन आज हमने सुना कि सिर्फ विरोध के लिए विरोध होना चाहिए और सरकार के खिलाफ नियमित अभियान चलाना चाहिए… मैं इसका पुरजोर विरोध करता हूं।’’

-आर.के. सिधवा, संविधान सभा की बहसें, 20 मई, 1949

लेटरल इंट्री शब्द एक बार फिर से चर्चा में है। कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी इस शब्द को हथियार बना मोदी सरकार पर हमलावर हैं। बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी राहुल गांधी की तर्ज पर इस शब्द को दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के हितों से जोड़ हो-हल्ला करने में जुट गए हैं। नेता विपक्ष और अन्य विपक्षी नेताओं के बयानों ने मुझे संविधान सभा की बहसों का स्मरण करा दिया। देश का संविधान, संविधान सभा का हिस्सा रहे उन 389 जनप्रतिनिधियों की अथक मेहनत का परिणाम है जो करीब तीन वर्षों तक आजाद भारत का संविधान कैसा हो पर माथापच्ची करते रहे। ऐसे ही एक संविधान सभा के सदस्य थे रुस्तम.के. सिधवा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव रहे सिधवा 1939-40 में करांची शहर (अब पाकिस्तान का हिस्सा) के मेयर भी रहे। संविधान सभा में वे पारसी समाज के प्रतिनिधि बतौर शामिल किए गए थे। जब लोकसभा और राज्यसभा में नेता विपक्ष की भूमिका का मुद्दा संविधान सभा तय कर रही थी तब बहुत सारे प्रतिनिधियोें ने इस बात का विरोध किया था कि नेता विपक्ष को सरकारी खजाने से वेतन इत्यादि मिलना चाहिए। आर.के. सिधवा ऐसे प्रतिनिधियों में शामिल थे। उन्होंने 20 मई 1949 को हुई बहस के दौरान कहा था कि केवल विरोध के लिए विरोध किया जाना और ऐेसे विरोध को सरकारी खजाने से वेतन देना जायज नहीं है। इन दिनों लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी और इंडिया गठबंधन के नेता ‘लेटरल इंट्री’ का विरोध कर रहे हैं। मुझे उनके विरोध से नाइत्तेफाकी है और मैं इसे ‘केवल विरोध करने के लिए विरोध’ वाली प्रवृत्ति का हिस्सा मानता हूं। ऐसा इसलिए क्योंकि मैं वर्तमान नौकरशाही की कार्यशैली को पच्चीस वर्षों से देखता आया हूं जिसकी बिना पर मैं निःसंकोच कह सकता हूं कि आजादी उपरांत भी ब्रिटिशकालीन नौकरशाही व्यवस्था को लागू रखना देश के नीति-नियंताओं की भारी भूल थी जिसका खामियाजा देश का आम आदमी प्रतिदिन भुगत रहा है। सम्भवतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सड़-गल चुकी व्यवस्था में सुधार लाने की नीयत से लेटरल इंट्री का सहारा 2019 में लिया। लेटरल इंट्री से मोदी सरकार का तात्पर्य उच्च सरकारी पदों में विशेषज्ञों की तैनाती करना था जिन्हें ‘डोमेन एक्सपट्र्स’ कह पुकारा गया। यानी ऐसे लोग जो किसी विषय विशेष के विशेषज्ञ हो उन्हें मोदी सरकार ने भारतीय नौकरशाही का हिस्सा बनने के लिए सीधे आमंत्रित किया। एक मेरी दृष्टि में बड़ा सुधारवादी प्रयास है। सरदार बल्लभ भाई पटेल भारतीय प्रशासनिक सेवा के प्रबल पक्षधर थे। 21 अप्रैल, 1947 को उन्होंने अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा ट्रेनिंग स्कूल, दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान भारतीय नौकरशाही को ‘स्टील फ्रेम आॅफ इंडिया’ (भारत का लौ कवच) कह सम्बोधित किया था। नेहरू लेकिन पटेल से इस मुद्दे पर सहमत नहीं थे। उन्होंने ब्रिटिश कालीन आईसीएस सेवा की बाबत एक बार कहा था- ‘यह न तो भारतीय है, न ही शिष्ट है और न ही इसमें सेवा भाव है’ (‘It is neither Indian, Nor Civil, Nor a Service’)।

जवाहरलाल नेहरू से लगभग हर मुद्दे पर नाइत्तेफाकी रखने वाले, उन्हें गाहे-बगाहे कोसने वाले हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री लेकिन इस एक मुद्दे पर नेहरू से सहमत नजर आते हैं। 2021 में लोकसभा में प्रधानमंत्री ने नौकरशाही को लेकर तल्ख स्वर में कहा डाला था- ‘सब कुछ बाबू ही करेंगे? आईएएस बन गए मतलब वह फर्टिलाइजर का कारखाना भी चलाएंगे। यह कौन-सी बड़ी ताकत बनाकर रख दी हमने? बाबुओं के हाथ में देश देकर हम क्या करने वाले हैं? ‘2019 में पहली बार केंद्र सरकार ने विषय विशेषज्ञों को सीधे केंद्रीय मंत्रालयों में संयुक्त सचिव, निदेशक और उपसचिव स्तर पर नियुक्ति देने का काम किया था। सरकार का सीधी भर्ती (लेटरल इंट्री) के पक्ष में तर्क है कि विषय विशेषज्ञों (डोमेन एक्सपट्र्स) को नौकरशाही में शामिल करने से न केवल सही नीतियों का निर्माण किया जा सकेगा, बल्कि नीतिगत् फैसलों को भी तेज गति से लागू किया जा सकेगा। 2019 में सरकार में शामिल किए गए विशेषज्ञों को नौकरशाही ने सहजता से स्वीकारा नहीं। ऐेसे विशेषज्ञों को इस हद तक काम करने से रोका गया कि कई वापस निजी क्षेत्र में चले गए। मोदी सरकार इस बदलाव को लाने के लिए कटिबद्ध नजर आ रही थी लेकिन राहुल गांधी ने जैसे ही इसे आरक्षण से जोड़ा, सरकार बैकफुट में आ गई और सीधे प्रधानमंत्री के निर्देश पर लेटरल इंट्री को हाल-फिलहाल स्थगित कर दिया गया है। स्मरण रहे गत् पखवाड़े केंद्रीय लोक सेवा आयोग ने लेटरल इंट्री के अंतर्गत 45 विशेषज्ञों को नौकरशाही में शामिल करने सम्बंधी विज्ञापन जारी कर न केवल ‘बाबुओं’ के मध्य खलबली पैदा कर दी है, वरन् विपक्ष भी इन 45 पदों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं होने का मुद्दा बनाकर केंद्र सरकार को घेरने में जुट गया है। इस विरोध करने के लिए विरोध समान प्रवृत्ति को मैं सही नहीं मानता। खासकर तब जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी इसे मुद्दा बनाते नजर आ रहे हैं। राहुल से मेरी और मुझ सरीखे बहुतों की उम्मीदें कुछ अलग किस्म की हैं। मुझे लगता है कि राहुल आम भारतीय राजनेताओं सरीखी संकीर्ण सोच से ग्रसित नहीं हैं और वह राजनीति में शुचिता लाने के प्रबल पक्षधर हैं। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद राहुल एक संवेदनशील नेता बतौर उभरे हैं। इसलिए उनका लेटरल इंट्री को आरक्षण संग जोड़ राजनीति करना कम से कम मुझे तो नहीं सुहा रहा है। राहुल ने लेटरल इंट्री को दलितों और आदिवासियों के हितों के खिलाफ करार दिया है। वे इसे आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ केंद्र सरकार की साजिश बता रहे हैं। राहुल गांधी का तर्क है कि लेटरल इंट्री के अंतर्गत विज्ञापित 45 पदों में भी आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। यह हास्यास्पद है। सरकार का उद्देश्य अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञों को नौकरशाही में सीधे शामिल कर उनकी योग्यता, उनके अनुभव का लाभ लेना है तो इसमें आरक्षण कहां से आ जाता है? यदि किसी विषय विशेष का विशेषज्ञ किसी दलित अथवा पिछड़ी जाति का होगा तब भी वह इस लेटरल इंट्री के जरिए केंद्र की नौकरशाही का हिस्सा बन सकता है। यहां प्रश्न योग्यता का है। योग्य व्यक्ति किसी धर्म अथवा जाति का हो इसका लेटरल इंट्री से कोई लेना-देना नहीं है। हां, यदि राहुल गांधी लेटरल इंट्री के जरिए संघनिष्ठ लोगों की नौकरशाही में प्रवेश को लेकर प्रश्न उठाते तो मैं उनका समर्थन करने को तैयार हूं। बीते दस वर्षों के दौरान यह स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा है कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार हर क्षेत्र में चाहे वह विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति हो अथवा न्यायपालिका, कार्यपालिका, यहां तक कि हर संवैधानिक संस्थाओं, केंद्रीय जांच एजेंसियों आदि में ‘समर्पित’ व्यक्तियों की निुयक्तियां करती नजर आ रही है। ऐसे में सम्भावना है कि लेटरल इंट्री के जरिए चयनित विशेषज्ञों की एक विशेषता संघनिष्ठा भी हो। यदि ऐसा है तो निश्चित ही योग्यता आधार नहीं रह जाएगी और लेटरल इंट्री का घोषित उद्देश्य हवा हो जाएगा। राहुल गांधी पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की मांग करते तो बेहतर होता। उन्होंने लेकिन इसे दलितों और आदिवासियों के हितों से जोड़ खालिस राजनीति की है। इसका लाभ भी उन्हें मिलता नजर आ रहा है। इंडिया गठबंधन तो उनके सुर से सुर मिला ही रहा है, एनडीए के सहयोगी दल भी इस प्रक्रिया के विरोध में सामने आने लगे हैं। जनता दल (यू) ने स्पष्ट तौर पर लेटरल इंट्री को सामाजिक रूप से पिछड़ों के खिलाफ करार दे दिया है तो सरकार में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान भी कह रहे हैं कि उन्हें यह फैसला मंजूर नहीं। स्वस्थ लोकतंत्र में सरकार के फैसलों पर कड़ी नजर रखना विपक्ष की जिम्मेदारी जरूर होती है लेकिन इस जिम्मेदारी का निर्वहन जिम्मेदार तरीके से किया जाना भी उतना ही अहम है। राहुल इस मुद्दे पर मुझे ऐसा करते नजर नहीं आ रहे हैं। सत्तारूढ़ दल के हर प्रयास के विरोध की राजनीति का हिस्सा बन राहुल गांधी पिछड़ों और दलितों का चैम्पियन बनने में भले ही सफल हो जाएं, इस प्रकार की राजनीति का अंत सुखद नहीं होता है। उनके पिता राजीव गांधी जब जबरन राजनीति में धकेले गए थे तब उन्होंने भी कुछ हटकर करने की ठानी थी लेकिन धीरे-धीरे वे भारतीय राजनीति के कीचड़ में धंसते चले गए। राहुल गांधी को चाहिए कि वे अपने पिता की गलतियों से सबक ले अन्यथा भले ही वे इस प्रकार की राजनीति का हिस्सा बन कांग्रेस को पुनः केंद्र की सत्ता तक पहुंचा दें, लोकतंत्र के लिए यह अच्छा नहीं होगा और इतिहास उन्हें भी सत्तालोलुप नेताओं की श्रेणी में डाल देगा जो भारत के अपराधी कहलाए जाएंगे।

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