लोकतंत्र की दो प्रमुख संस्थाएं न्यायपालिका और कार्यपालिका के दरम्यान रिश्ता बड़ा अजीब होता है। वे कभी एक-दूसरे को सपोर्ट करते हैं तो कभी परेशानी का सबब बन जाते हैं। खासकर न्यायपालिका। यह भी एक अजीब विडंबना है कि मोदी सरकार की गाड़ी तो न्यायपालिका के प्रांगण में फंसी है। भाजपा का भविष्य भी लगता है जैसे न्यायपालिका के रहमोकरम पर टिका है। अगर ऐसा नहीं भी है तो सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों पर भाजपा का मुस्तकबिल जरूर जुड़ गया है। अभी सरकार से जुड़े कई मामले सुप्रीम कोर्ट के पाले में हैं।
अयोध्या मामला तो सरकार के लिए इस बार गले की हड्डी बन गया है। इसके पहले तक भाजपा इस मुद्दे के साथ मनमाने ढंग से खेलती रही थी। इस दफा फंस गयी है। अयोध्या मामले की सुनवाई करते हुए 11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में इसे और आगे बढ़ाते हुए 29 जनवरी की तारीख तय की है। अयोध्या राम मंदिर मामले को लेकर पांच जजों की संवैधानिक पीठ का फिर से गठन किया जाएगा।
खास बात यह है कि दस जनवरी को सुनवाई के दौरान पांच जजों की पीठ में शामिल जस्टिस यूयू ललित ने इस मामले से खुद को अलग कर लिया। इसके बाद अब पीठ का गठन किया जाएगा। उसमें सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन ने अदालत में जस्ट्सि ललित पर सवाल उठाते हुए कहा कि 1984 में यूयू ललित अवमानना के एक मामले में कल्याण सिंह के लिए पेश हो चुके हैं। वकील राजीव धवन का कहना था कि वे पूर्व में भी अयोध्या केस से जुड़े अवमानना के मामले में बतौर वकील पेश हो चुके हैं। धवन की आपत्ति के बाद संवैधानिक पीठ के पांच न्यायधीशों मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई, जस्ट्सि एसए बोबडे, जस्ट्सि एनी रमन, जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड ने विचार विमर्श किया फिर तय हुआ कि जस्टिस ललित का सुनवाई करना सही नहीं होगा। उत्तर प्रदेश सरकार के वकील हरीश साल्वे ने कहा कि जस्टिस ललित के पीठ में शामिल होने से उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन इस तरह के सवाल उठने के बाद जस्टिस ललित ने खुद को इस मामले से अलग कर लिया।
यूयू ललित जून 1983 में बार में शामिल हुए थे। 1986 में दिल्ली आने से पहले वह दिसंबर 1985 तक बाम्बे हाईकोर्ट में प्रैक्टिस किया करते थे। 13 अगस्त 2014 को जस्टिस ललित को तत्कालीन चीफ जस्टिस एएम लेख की अगुवाई वाले कोलेजियम आर्क जज ने शामिल किया था और तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों वो नियुक्त हुए थे। साल 1986 से 1992 के बीच ललित ने भारत के अटार्नी जनरल सोली सोराबाजी के लिए काम किया। इसके अलावा कई हाई प्रोफाइल मामलों में भी पेश हो चुके हैं, जिनमें सलमान खान का ब्लैक हिरण शिकार मामले भी शामिल है।
सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक के पद पर बहाल कर दिया, इससे सरकार का आदेश निरस्त हो गया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आलोक वर्मा ने 77 दिन के बाद 9 जनवरी को सीबीआई मुख्यालय पहुंचकर कार्यभार संभाला। उन्होंने पहले दिन ही अंतरिम निदेशक एम नागेश्वर राव द्वारा जारी सभी तबादलों को रद्द कर दिया। वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच तकरार शुरू होने के बाद सरकार ने दोनों को छुट्टी पर भेज दिया था। 1986 बैच के ओडिशा कॉडर के अधिकारी राव पिछले साल 23 अक्टूबर को आधी रात के बाद वर्मा की जगह सीबीआई के अंतरिम निदेशक बने। इसके अगले ही दिन राव ने बड़े स्तर पर सीबीआई अधिकारियों के तबादले किए थे। इनमें अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले की जांच करने वाले अधिकारी जैसे डीएसपी एके बस्सी, डीआईजी एमके सिंह, संयुक्त निदेशक एके शर्मा भी शामिल थे।
सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच आरक्षण का मामला भी फंसा हुआ है। सरकार को भी लगने लगा है कि पिछले दिनों तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जो मात मिली है उसके पीछे कहीं न कहीं आरक्षण फैक्टर भी काम किया। इसलिए हाल ही में सरकार ने गरीब सवर्णो को भी आरक्षण देने की बात कही है। अब कहा जा रहा है कि सवर्ण गरीबों को आरक्षण के मामले को सुप्रीम कोर्ट में चैंलेज करने की तैयारी चल रही है। हालांकि यह चुनौती अभी नहीं, बल्कि इस आरक्षण को लेकर सरकार के नोटिफिकेशन जारी करने के बाद ही की जा सकेगी। अगर सुप्रीम कोर्ट को यह दिखता है कि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा हो रहा है और इससे संविधान की मूल भावना का ठेस पहुंची है, तो इसे उसी तरह खारिज किया जा सकता है जिस तरह 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार द्वारा लाए गए बिल का अंजाम हुआ था। आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग को दस फीसदी आरक्षण का बिल 8 जनवरी को लोकसभा और 9 जनवरी को राज्यसभा में पास हुआ था।
कहा जा सकता है कि भाजपा का भविष्य काफी हद तक अब सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर निर्भर है। यानी भाजपा नामक तोते की जान सुप्रीम कोर्ट में फंसी है। इसके फैसले पर भाजपा का खेल बन और बिगाड़ सकते हैं। जैसे राफेल में अदालत से उसे बहुत राहत मिली।