“Sit in the corner of the Court room till the rising of the Court and pay a fine of Rupees Two Lacs.” (कोर्ट कक्ष के कोने में जाकर बैठ जाओ, जब तक अदालत बैठी है और दो लाख का जुर्माना भी दो) मेघालय उच्च न्यायालय ने आठ मार्च यानी महिला दिवस के दिन ‘द शिलांग टाइम्स’ की दो महिला पत्रकारों को कोर्ट की अवमानना का दोषी मानते हुए कठोर सजा सुना डाली। महिला दिवस के दिन दो महिला पत्रकारों को दी गई यह सजा अभिव्यक्ति के अधिकार और मीडिया के नैतिक आचरण पर बड़ा सवाल खड़ा करती है। मेघालय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मोहम्मद याकूब मीर एवं न्यायमूर्ति सुदीप रंजन सेन की पीठ ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि यदि दो लाख रूपए की जुर्माना राशि नहीं दी गई तो दोनों महिला पत्रकारों को 6 माह की कैद के साथ-साथ ‘द शिलांग टाइम्स’ अखबार का प्रकाशन भी बंद हो जाएगा। अदालत के इस आदेश को लेकर मीडिया में भारी खलबली है। कई प्रेस संगठनों ने इस आदेश पर अपनी चिंता व्यक्त की है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने अपने बयान में न्यायपालिका से आग्रह किया है कि वह अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल सर्तकता से करे। गिल्ड ने लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता का मुद्दा भी अपने बयान में उठाया है। मुझे इस प्रकरण के चलते उत्तराखण्ड राज्य की पहली विधानसभा का वह नोटिस याद हो आया जिसमें मुझे तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष की अवमानना का दोषी मानते हुए राज्य विधानसभा में पेश होने को कहा गया था। नए बने राज्य में वह अपनी तरह का पहला वाक्या था जिसमें बगैर किसी वाजिब आधार के विधानसभा अध्यक्ष की अवमानना संबंधी नोटिस जारी कर प्रेस की स्वतंत्रता पर कुठाराघात का प्रयास किया गया था। यह दीगर बात है कि मैं पूरे पांच साल लगातार नोटिस मिलने के बाद भी विधानसभा में पेश नहीं हुआ। मैं पेश होना चाहता था लेकिन केवल नोटिस भेजकर हर सत्र में खानापूर्ति का काम किया गया और लगातार मुझ पर तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष से माफी मांगने का दबाव बनाया गया। बाद के बरसों में तो अवमानना के मुकदमों की मानो बाढ़ सी आ गई। आज भी कुछेक मुकदमे चल रहे हैं। इसलिए जब समाचार पढ़ा कि दो महिला पत्रकारों को सजा सुनाई गई तो पूरे प्रकरण को जानने की चेष्टा की। जितना समझा हूं उससे लगता है कि सजा अपराध की बनिस्पत कहीं कठोर है। फिर प्रश्न लोकतंत्र में मीडिया के दायित्वों और उसकी नैतिकता से भी जुड़ता है इसलिए चुनावी दौर और वर्तमान माहौल में भी जरूरी लगा कि इस पर कुछ लिखा जाए। मेघालय हाईकोर्ट ने जिन दो पत्रकारों को सजा सुनाई उनके नाम पेट्रिसिया मुकहिम और शोभा चौधरी हैं। पेट्रिसिया ‘द शिलांग टाइम्स’ की संपादक और शोभा चौधरी प्रकाशक हैं। ‘द शिलांग टाइम्स’ एक साप्ताहिक समाचार पत्र है जिसका प्रथम अंक 10 अगस्त, 1945 को निकला था। यानी समाचार पत्र काफी पुराना और मेघालय का प्रतिष्ठित अंग्रेजी साप्ताहिक है। 10 दिसंबर, 2018 के अपने अंक में इस अखबार में एक खबर प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था। ‘When Judges judge for them selves’ यानी जब न्यायाधीश स्वयं के लिए ही न्यायाधीश बन जाते हैं। इस खबर में मेघालय हाईकोर्ट के न्यायाधीश एसआर सेन के उस आदेश की चर्चा की गई जिसमें उन्होंने हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को विशेष सुविधाएं, जिनमें मेडिकल सुविधा, टेलीफोन-इंटरनेट की मुफ्त उपलब्धता, सरकारी प्रोटोकाल, सरकारी गेस्ट हाउस में ठहरने की व्यवस्था, घर में काम करने के लिए सहायक एवं अस्सी हजार तक की कीमत का मोबाइल उपलब्ध कराने के निर्देश राज्य सरकार को दिए थे। ‘द शिलांग टाइम्स’ ने 6 दिसंबर, 2018 को इस आदेश की बाबत एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें मुख्यतः अदालत के आदेश का ही जिक्र था। 10 दिसंबर, 2018 को ‘When Judges judge for them selves’ शीर्षक से एक और रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इसमें आदेश की बात करते हुए लिखा गया कि जज सेन शीघ्र ही रिटायर होने वाले हैं। इस खबर में जज सेन के रिटायर होने से ठीक पहले रिटायर्ड जजों को सुविधाएं दिए जाने के खिलाफ कुछ नहीं कहा गया है। खबर में यह भी उल्लेख है कि इस आदेश के जरिए जज सेन पुरानी परंपरा को ही पुनः स्थापित कर रहे हैं, लेकिन जज सेन को यह अवमानना लगी। चूंकि शीर्षक कुछ इस तरह का इशारा करता है कि न्यायपालिका खुद के लिए ही फैसले कर रही है और खबर में सेवानिवृत्त न्यायधीशों को दी जाने वाली सुविधाओं का जिक्र करते हुए यह लिखा गया कि स्वयं निर्णय देने वाले न्यायाधीश जल्द ही सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं इसलिए निश्चित ही खबर का संदेश न्यायपालिका, विशेष रूप से न्यायमूर्ति सेन के खिलाफ जाता है। मेघालय हाईकोर्ट ने इस खबर का स्वतः संज्ञान लेते हुए ‘द शिलांग टाइम्स’ के खिलाफ अवमानना का मुकदमा शुरू कर डाला। हालांकि अखबार ने बगैर शर्त माफीनामा अदालत में पेश किया, लेकिन उसे अस्वीकारते हुए न्यायमूर्ति सेन और न्यायमूर्ति मीर ने अपना फैसला सुना डाला। यहां यह उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति सेन का यह अंतिम आदेश है। वे इस आदेश के बाद सेवानिवृत्त हो गए। न्यायमूर्ति सेन की नाराजगी पेट्रिसिया की सोशल मीडिया में पोस्ट की गई कुछेक टिप्पणियों को लेकर भी थी जो बकौल न्यायमूर्ति सेन मेघालय हाईकोर्ट की कार्यशैली को गलत ढंग से चित्रित करती हैं। अदालत का यह आदेश मेरी समझ से कुछ ज्यादा ही कठोर है। एक इतने पुराने समाचार पत्र को बंद करने की बात कई कारणों से गले नहीं उतरती। पहला प्रश्न प्रेस की स्वतंत्रता से जुड़ा है। स्वयं सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि उसके फैसलों की आलोचना की जा सकती है। लोकतंत्र की यही खूबसूरती भी है और ताकत भी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था भी है कि कोर्ट के आदेश की आलोचना करते समय उसमें मंशा यानी जज का कोई मोटिव नहीं जोड़ा जा सकता। इस दृष्टि से ‘द शिलांग टाइम्स’ की खबर का शीर्षक और खबर में यह लिखा जाना कि रिटार्यड न्यायाधीशों को सुविधाएं देने संबंधी आदेश देने वाले जज स्वयं रिटायर हो रहे हैं यह इशारा करता नजर आता है कि न्यायमूर्ति सेन ने खुद की सेवानिवृत्ति को ध्यान में रखते हुए ऐसा आदेश पारित किया है। यदि ऐसा है भी तब भी बड़ा मुद्दा, बड़ा प्रश्न लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ की स्वतंत्रता से बड़ा नहीं है। न्यायमूर्ति सेन ने अपने आदेश में अखबार की संपादक पेट्रिसिया मुकहिम पर टिप्पणी करते हुए कहा कि वे न्यायपालिका को अपने तरीके और इच्छानुसार काबू में करना चाहती है। यहां प्रश्न उठता है कि किसी की आलोचना करना क्या उसको काबू करने से जुड़ता है। यदि ऐसा मान लिया जाए तो लोकतंत्र में हमें मिले सबसे बड़े अधिकार का क्या होगा? हमारा संविधान का अनुच्छेद 19 हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने यह अधिकार देते समय कुछ पाबंदियां भी लगाई हैं जिनमें से एक है अदालतों की अवमानना। इस अधिकार के मूल में अंग्रेज साम्राज्य के समय बना एक एक्ट रहा है ‘Hate speech law section 295(A)’, लेकिन उस पर चर्चा फिर कभी। अदालत के आदेशें की समीक्षा करना मीडिया के दायित्वों में आता है। जब निचली अदालतों के फैसले को हम उपरी अदालतों में चुनौती देते हैं तो उसका सीधा अर्थ यही होता है कि हम संबंधित अदालत के फैसले से सहमत नहीं हैं। असंख्य बार ऊपरी अदालत अपने से निचली अदालत के फैसले को पलट देती हैं। स्वयं मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायधीशों को जेड और वाई श्रेणी की सुरक्षा दिए जाने संबंधी आदेश को सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुका है। जाहिर है इस आदेश के खिलाफ दोनों पत्रकार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती हैं। बहुत संभावना है कि सुप्रीम कोर्ट उन्हें राहत भी दे दे। प्रश्न लेकिन आम आदमी को मिलने वाली सुविधाओं में लगातार हो रही कटौती का भी है। सरकारी कर्मचारियों की पेंशन को बंद किया जा चुका है। रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली इस पेंशन से उनका स्वाभिमान जुड़ा है। हमारे अर्धसैनिक बलों की लंबे अर्से से मांग है कि उन्हें सेना समान सुविधाएं दी जाएं। बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ते का प्रश्न उठता है तो किसानों को उनकी लागत का वाजिब मूल्य एक बड़ा मुद्दा है। एक बड़ा प्रश्न मीडिया की निष्पक्षता में लगातार आ रही गिरावट का भी है। अखबारों में खबरें कम हैं पैड न्यूज ज्यादा। चैनलों का हाल तो बेहद खराब हो चला है। खुलकर सरकारी भोंपू बन कर रह गए इन चैनलों को देख घबराहट सी होती है कि क्या वाकई इस मुल्क की प्रेस, इस मुल्क का मीडिया स्वतंत्र हैं? हमारी वायुसेना ने पाकिस्तान के भीतर घुसकर जैश ए मोहम्मद के आतंकी ठिकानों को नेस्तानाबूद किया। यह हमारे लिए सुकून और गर्व की बात है। लेकिन इन चैनलों ने इसे ऐसे पेश किया कि मानो अब से पहले यानी नरेंद्र मोदी के राज से पहले कभी हमारी सेना ने ऐसा कुछ किया ही नहीं। जो हुआ नमो के चलते हुआ। इससे भी अधिक चिंताजनक मीडिया का युद्ध उन्माद पैदा करना रहा। ऐसे में इन दो पत्रकारों को सुनाई गई सजा लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांत और गर्त में जा रहे मुल्क के मीडिया की नीयत पर कई प्रश्न खड़ा करती है जिनके उत्तर यदि समय रहते न तलाशे गए तो भविष्य आज से भी ज्यादा भयावह होना पक्का है।
अभिव्यक्ति का अधिकार और मीडिया
