पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-80
‘समानता की ओर’ (Towards equality) रिपोर्ट में भारतीय महिलाओं की स्थिति बाबत कहा गया- ‘While it is true that the status of women-constitutes a problem in almost all societies, and has emerged today as a fundamental crisis in human development, we found that sex inequality can not in reality had differnciated through the variety of social, economic and cultural inequalities in Indian society. The inequalities inherent in our traditional social structure, based on caste, community and class have a very significant influence on the status of women in different spheres. Socially accepted rights and expected roles of women, norms governing their behaviour and of others towards them vary among different groups and regions'(यद्यपि यह सत्य है कि लगभग सभी समुदायों में महिलाओं की स्थिति एक बड़ी समस्या रही है और आज यह मानव विकास की राह में एक खतरा बन उभर चुकी है, हमने पाया है कि लिंग भेद को हम भारतीय समाज में मौजूद नाना प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक भेदभाव से अलग कर नहीं देख सकते हैं। हमारे समाज में परम्परागत रूप से जाति, सम्पद्राय और वर्ग आधारित भेदभाव महिलाओं की स्थिति में भारी प्रभाव का बड़ा कारण है। सामाजिक रूप से स्वीकार्य महिलाओं के अधिकार और उनसे की जाने वाली अपेक्षाएं और उन संग पुरुषों का व्यवहार अलग-अलग समूहों में अपने-अपने तरीकों से मौजूद है।)
महिलाओं की आर्थिक स्थिति और उनके लिए रोजगार के अवसरों की बाबत इस रिपोर्ट में गहरी चिन्ता व्यक्त की गई थी- Estimates of employment and under-employment clearly indicate that the position is worse for women. measures to remove women’s disability and handicaps in the field of economic participation have proved extremly adequate. While several factors have handicapped and prevented women’s integration into the process of development, the lack of a well defined policy, indicating areas where they require social assistance and protection, leaves them without access to knowledge, skills and employment. Prejudices regarding women’s efficiency, productivity, capacity for skills and suitability debar them from employment in many areas, and result in wage discrimination. The criteria for determining their unsuitability for particular types of jobs are not clear or uniform’ (बेरोजगारी और कम रोजगार के उपलब्ध आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है। महिलाओं की स्थिति सुधारने और उन्हें आर्थिक रूप से सक्रिय करने के प्रयास नाकाफी रहे हैं। हालांकि महिला सशक्तीकरण और विकास प्रक्रिया में उनकी कमतर सहभागिता के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं, एक स्पष्ट नीति जिसके जरिए उन कारणों और क्षेत्रों को चिÐित किया जा सके जहां महिलाओं को सशक्त किए जाने की जरूरत है, ऐसी नीति का न होना एक मुख्य कारण है। महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह, उनकी क्षमता को कमतर आंकना महिलाओं के लिए कम रोजगार के अवसर और वर्तमान में भेदभाव पैदा करता है)।
1973 इंदिरा गांधी की लोकप्रियता में बड़ी कमी, उनकी कार्यशैली का पूरी तरह अलोकतांत्रिक होने और उनकी एवं कांग्रेस के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों में भारी भ्रष्टाचार और अनैतिकता के बढ़ने का वर्ष रहा। प्रधानमंत्री के छोटे पुत्र संजय गांधी अब सीधे तौर पर सरकार के कामकाज में दखल देने लगे थे। बकौल कैथरीन फ्रैंक कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पार्टी कोष में नकद रकम जमा कराने का लक्ष्य कांग्रेस मुख्यालय से दिया जाने लगा था। कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के मध्य पार्टी नेतृत्व की निगाहों में अव्वल बने रहने की होड़ सी लग गई थी। ज्यादा से ज्यादा धन इन मुख्यमंत्रियों द्वारा पार्टी कोष में दिया जाने लगा। इस रकम का इस्तेमाल बड़ी जनसभाएं आयोजित कराने में लगता जिनमें भीड़ को एकत्रित करने के लिए पार्टी द्वारा बसें इत्यादि किराए पर ली जाती। ऐसी जनसभाओं को इंदिरा गांधी सम्बोधित करती थीं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इस दौर में सिद्धांतों से वास्ता समाप्त हो चला था और राजनीति के जरिए अमीर और शक्तिशाली बनना एकमात्र ध्येय बन चुका था। इंदिरा अपने चारों तरफ पसर चुके भ्रष्टाचार से बखूबी वाकिफ थी लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें धन शक्ति पर जनशक्ति से ज्यादा भरोसा हो चला था। पी.एन. हक्सर सरीखे काबिल और भरोसेमन्द सलाहकारों को दरकिनार कर उन्होंने संदिग्ध छवि वाले चापलूसों की फौज अपने ईद-गिर्द तैनात कर डाली। इनमें उनके निजी सहायक यशपाल कपूर और आर.के. धवन और ललित नारायण मिश्रा तथा बंसी लाल सरीखे राजनेता शामिल थे जिनको येन-केन-प्रकारेण धन संग्रहण करने की महारथ हासिल थी। ललित नारायण मिश्रा इंदिरा सरकार में मंत्री और बिहार से राज्यसभा सांसद थे। फिरोज गांधी के करीबी रहे मिश्रा शास्त्री सरकार में उपगृह मंत्री और इंदिरा सरकार में रक्षा उत्पाद राज्य मंत्री रहे। 1970 में उन्हें इंदिरा गांधी ने प्रोन्नत कर विदेश व्यापार मंत्री बनाया था। फरवरी 1973 में वे भारत के रेल मंत्री बनाए गए थे। बतौर विदेश व्यापार मंत्री मिश्रा ने आयात-निर्यात के लिए दिए जाने वाले सरकारी अनुमति पत्रों को जारी करने में भारी भ्रष्टाचार के पनपने का काम किया। ‘लाइसेंस राज’ के नाम से कुख्यात इस प्रणाली ने इंदिरा सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार को ‘नए आयाम’ देने का रिकॉर्ड स्थापित कर डाला। बगैर मिश्रा को उपकृत किए किसी भी उद्योगपति को लाइसेंस मिलना इस दौर में असम्भव हो चला था। इसी दौर में दिल्ली से सटे राज्य हरियाणा में बंसीलाल नाम के एक जाट नेता और मुख्यमंत्री ने संजय गांधी को महत्वाकांक्षी मारुति कार परियोजना के लिए सभी नियम-कानूनों को धता बताते हुए बेहद सस्ती दरों में चार सौ एकड़ जमीन आवंटित कर डाली। इस जमीन आवंटन को लेकर विपक्षी दलों ने भारी ऐतराज किया था। बंसीलाल लेकिन अपने निर्णय पर टिके रहे संजय गांधी के करीबी बन बैठे। प्रधानमंत्री की नजरों में बने रहने के लिए उस दौर के कई बड़े उद्योगपतियों ने भी संजय गांधी की लड़खड़ाती मारुति परियोजना में बड़ा पूंजीनिवेश तब किया था। महात्मा गांधी के अत्यन्त करीबी ख्यातिप्राप्त उद्योगपति कृष्ण कुमार बिड़ला भी ऐसे उद्योगपतियों में शामिल थे। बिड़ला ने तो इंदिरा और संजय को खुश रखने की नीयत चलते 1973 में अपने स्वामित्व वाले अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ के सम्पादक बीडी वर्गीज को हटा तक डाला था। वर्गीज एक बेहद निष्पक्ष और ईमानदार सम्पादक थे जो संजय गांधी के खिलाफ लगातार लिख रहे थे। बड़े उद्योगपतियों के पूंजीनिवेश और बंसीलाल द्वारा तमाम प्रकार की मदद के बावजूद संजय गांधी की परियोजना परवान चढ़ने में पूरी तरह असफल साबित हो रही थी। तमाम प्रयासों के बावजूद संजय गांधी इस जनता कार का एक मॉडल तक तैयार नहीं कर पा रहे थे। उन्हें अब और पूंजी की आवश्यकता पड़ने लगी थी जिसके लिए सरकारी नियंत्रण वाले बैंकों से उन्होंने ऋण की दरकार लगाई। एक बार नियम-कानूनों को धता बता सरकारी बैंकों ने प्रधानमंत्री के शक्तिशाली पुत्र की असफल साबित हो चुकी परियोजना के लिए कर्ज देने में कोई हील-हुज्जत नहीं की। संजय गांधी मारुति कार की डीलरशीप देने के नाम पर ढाई करोड़ रुपया भी बाजार से उठा चुके थे। सरकारी बैंकों द्वारा एक विफल परियोजना के लिए कर्ज दिए जाने से चिन्तित रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने सभी राष्ट्रीय बैंको को पत्र लिखकर मारुति परियोजना के लिए कर्ज दिए जाने पर रोक लगा संजय की परेशानियों को बढ़ाने का काम कर दिया था। संजय ने सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया से ढ़ाई करोड़ का ऋण मांगा। सेंट्रल बैंक पहले ही मारुति कंपनी को कर्ज दे चुका था। रिजर्व बैंक के निर्देश बाद अब संजय के अत्यन्त करीबी माने जाने वाले बैंक के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक डीवी तनेजा ने ढ़ाई करोड़ रुपए का कर्जा दिए जाने से इनकार कर प्रधानमंत्री के शक्तिशाली पुत्र की नाराजगी मोल ली। संजय ने तनेजा को बर्खास्त करने की चेतावनी दे डराना चाहा लेकिन तनेजा ने रिजर्व बैंक के पत्र का हवाला दे कर्ज स्वीकृत करने से मना कर डाला। जल्द ही तनेजा को बैंक के अध्यक्ष एवं प्रबंधक निदेशक पद से हटा दिया गया। इंदिरा गांधी अब पूरी तरह से पुत्र मोह का शिकार हो चली थीं। उन्हें अपने पुत्र के खिलाफ कुछ भी सुनना-देखना गवारा न था। पीएन हक्सर उन्हें लगातार चेताने का काम कर रहे थे कि संजय गांधी की अवांछनीय गतिविधियों का खामियाजा अंततः प्रधानमंत्री के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। उन्होंने इंदिरा को यहां तक सलाह दे डाली कि कुछ समय के लिए संजय गांधी को भारत से कहीं दूर भेज देना उचित होगा ताकि मारुति घोटाले से जुड़ा मुद्दा शांत हो जाए। हक्सर को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री उनकी सलाह पर गंभीरतापूर्वक विचार अवश्य करेंगी। बरसों से इंदिरा के मुख्य सलाहकार रहे हक्सर लेकिन मां की पुत्र के प्रति अंधी ममता को समझने से चूक गए। नतीजा रहा सितंबर, 1973 में उनका प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव पद से सेवानिवृत्ति।
नाना प्रकार के भ्रष्टाचार से जुड़े आरोपों और अकाल के सम्भावित खतरे की आशंका से त्रस्त इंदिरा सरकार को अप्रैल 1973 में एक बड़ा झटका उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय चलते लगा। ‘केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार’ नामक मुकदमे को आज तक भारतीय न्यायपालिका द्वारा संविधान की रक्षा के दृष्टिगत दिया गया सबसे महत्वपूर्ण निर्णय माना जाता है। इसे मौलिक अधिकारों से जुड़ा मुकदमा कह भी पुकारा जाता है। केशवानंद भारती केरल के एक धार्मिक संस्था अदनीर मठ के पीठाधिपति थे जिन्होंने मठ की जमीन को केरल सरकार द्वारा अधिग्रहित किए जाने का विरोध करते हुए उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर करते हुए संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों, सम्पत्ति का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, सम्पत्ति अर्जित करने का अधिकार के हनन का मुद्दा उठाते हुए इंदिरा सरकार द्वारा संविधान में किए गए तीन संशोधनों 24, 25, 29 अंक को चुनौती दी थी। याचिकर्ताओं ने उच्चतम न्यायालय में दायर की गई अपनी याचिका में संसद द्वारा संविधान के मूल चरित्र में बदलाव करने की श्ािक्त को असीमित न होने की बात कही थी। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार अवश्य है लेकिन वह उसके मूल भावना संग छेड़छाड़ नहीं कर सकती है इसलिए उसके द्वारा किए गए तीन संविधान संशोधनों- 24वां, 25वां एवं 29वां असंवैधानिक होने के चलते खारिज किए जाने चाहिए। उच्चतम न्यायालय के तेरह न्यायाधीशों की पूर्ण पीठ ने इस याचिका की सुनवाई अक्टूबर 31, 1972 के दिन सुनाया। ये तीन मुद्दे थे:
1. क्या 24 एवं 25 संविधान संशोधन विधेयक संवैधानिक हैं अथवा नहीं?
2. संसद के पास क्या संविधान को संशोधित करने का असीमित अधिकार प्राप्त है या नहीं?
3. क्या संसद संविधान के किसी भी हिस्से को इस हद तक संशोधित कर सकती है कि उससे मौलिक अधिकार ही समाप्त क्यों न हो जाएं।
2. संसद के पास क्या संविधान को संशोधित करने का असीमित अधिकार प्राप्त है या नहीं?
3. क्या संसद संविधान के किसी भी हिस्से को इस हद तक संशोधित कर सकती है कि उससे मौलिक अधिकार ही समाप्त क्यों न हो जाएं।
क्रमशः

