Editorial

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-137 : दूरसंचार क्रांति का दौर

गोडबोले कमेटी ने एक न्यायिक आयोग बना इस घोटाले की विस्तृत जांच किए जाने का सुझाव सरकार को दिया था। इस सुझाव को स्वीकारते हुए उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.पी. कुरदुकर को एक सदस्यीय जांच आयोग का जिम्मा सौंपा गया था। यह आयोग लेकिन तकनीकी कारणों से कभी अपनी जांच शुरू कर ही नहीं पाया। 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने इस आयोग को समाप्त करने की सिफारिश उच्चतम न्यायालय से कर आयोग को भंग कर दिया था। महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के समक्ष 1997 में एक याचिका सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन (सीटू) द्वारा महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड ओर दभोल पॉवर कम्पनी के मध्य महंगी दरों पर बिजली खरीदने के करार को समाप्त करने के लिए दायर की गई थी। इस याचिका में राज्य सरकार पर गम्भीर अनियमितताओं के आरोप लगाए गए थे। उच्च न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया था जिसके खिलाफ याचिकाकर्ताओं ने उच्चतम न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर की थी। इसी याचिका पर एक सुनवाई के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने 2018 में न्यायिक आयोग भंग किए जाने का सुझाव उच्चतम न्यायालय को दिया जिसे न्यायालय ने स्वीकार लिया था। 2018 में सीटू द्वारा दायर याचिका को भी यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अब इस मामले में अति विलम्ब हो चुका है और न्यायिक आयोग बना दूसरी जांच का कोई औचित्य नहीं रह गया हैं इस तरह से आजाद भारत का एक और घोटाला बगैर किसी तर्कसंगत निर्णय के इतिहास के पन्नों में गहरे दफन कर दिया गया। अधिक कीमत पर बिजली खरीदने का असर महाराष्ट्र राज्य बिजली निगम पर पड़ा था और वह भारी घाटे में आ गया था। निगम पर एनरॉन से एक रुपया प्रति यूनिट अधिक देने का आरोप था जिसके चलते उसे 1,700 करोड़ प्रति वर्ष का नुकसान उठाना पड़ा था। उदारीकरण और खुली अर्थव्यवस्था  ने निश्चित ही कंगाली के कगार पर पहुंच चुके राष्ट्र को आर्थिक सुदृढ़ता दी लेकिन किस कीमत पर? राव सरकार की इस नीति का एक बड़ा नकारात्मक पहलू राष्ट्रीय सम्पदा और संसाधनों को कॉरपोरेट के हवाले किए जाने की होड़ है जो वतज्मान में अपने चरम पर जा पहुंची है। कभी स्वदेशी को अपना सिद्धांत बताने वाली और विदेशी पूंजी निवेश का घोर विरोध करने वाली भाजपा के शासनकाल में राव सरकार की इस नीति का असर हवाई अड्डों, रेलवे, अस्पतालों बिजली-पानी, सभी के निजीकरण बतौर हमारे सामने है। एनरॉन के खिलाफ 1997 में पहले महाराष्ट्र उच्च न्यायालय और बाद में उच्चतम न्यायालय की दर खटखटाने वाले सीटू के पूर्व महासचिव विवेक मोन्टेरियो के शब्दों में- ‘एनरॉन’ आवाद नहीं था। एनरॉन मर सकता है, लेकिन ‘एनरानॉमिक्स’  जारी है…ऊर्जा और डिजिटल वाणिज्य के क्षेत्र में नवउदारवादी अर्थशास्त्र वैशिवक रूप से महत्व रखता है। भारत में भी, ये दोनों क्षेत्र अर्थव्यवस्था के नवउदारवादी पुनर्गठन के मूल में हैं। सार्वजनिक उपयोगिताओं का निजीकरण, ईंधन मूल्य निर्धारण और टैरिफ का तय किया जाना महा-भ्रष्टाचार का केंद्र बना हुआ है। ऊर्जा के क्षेत्र में पिछली सरकारों द्वारा किया गया भ्रष्टाचार नरेंद्र मोदी सरकार के भ्रष्टाचार समक्ष फीका है। इस सरकार द्वारा ओएनजीसी, गेल, एनटीपीसी और बीएसएनएल जैसी मुनाफे वाली और बुनियादी ढांचे से मजबूत कम्पनियों को सुनियोजित तरीके से कमजोर कर उन्हें निजी क्षेत्र के हवाले करने का रास्ता बनाया गया है। देश के आधे प्राकृतिक संसाधन जैसे कोयला, निजी कम्पनियों को सौंप दिए गए हैं। एनरॉन के साथ एक रुपए के अधिक दर से बिजली खरीदने चलते प्रति वर्ष 1,700 करोड़ का भ्रष्टाचार हुआ था। आज की परिस्थितियों में, बिजली दर में एक रुपए की वृद्धि निजी कॉरपोरेट क्षेत्र को हर वर्ष 1.5 लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त कमाई करवाती है। एनरॉन मामला बंद हो सकता है लेकिन स्पष्ट है कि यह इस प्रकार के भ्रष्टाचार का अंत नहीं है।’

आर्थिक उदारीकरण की दिशा में राव सरकार ने एक बड़ा कदम निजी क्षेत्र को बैंक स्थापित करने के लिए लाइसेंस दे उठाया गया। 1969 में निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने वाली कांग्रेस के लिए यह कदम नेहरू-इंदिरा की साम्यवादी नीति के ठीक उलट था। राव की नीतियों को लेकर पहले से ही कांग्रेस भीतर भारी बेचैनी पैदा हो चुकी थी। इसके बावजूद राव ने एक बड़ा कदम उठाते हुए दस निजी बैंकों को लाइसेंस जनवरी 1993 में जारी कर दिया।
आईसीआईसीआई, एचडीएफसी, एक्सिस समेत कई बैंक इसके बाद भारत में अस्तित्व में आए थे। 1993 में ही नागरिक उड्ययन क्षेत्र में बड़ी पहल करते हुए निजी क्षेत्र के लिए हवाई कम्पनियों को लाइसेंस जारी कर दिए गए थे। जेट एयरवेज, सहारा, मोदीलुफ्त, दमानिया और ईस्ट-वेस्ट एयर लाइंस इस नीति के चलते ही अस्तित्व में आईं थी। नरसिम्हा राव सरकार के कार्यकाल दौरान ही टेलीविजन की दुनिया में भारी बड़ा परिवर्तन आया। भारत का पहला निजी टीवी चैनल ‘जी-टीवी’ 1992 में शुरू हुआ था। राव सैटेलाइट के जरिए विदेशी टीवी चैनलों की भारतीय दर्शकों तक सीधी पहुंच को लेकर बेहद उत्साहित नहीं थे। उनके प्रधानमंत्री बनने से कुछ अर्सा पहले ही हांगकांग स्थित एक विदेशी चैनल सैटेलाइट टेलीविजन एशिया रिजन्य (स्टार टीवी) भारतीय बाजार में दमदार तरीके से प्रवेश कर चुका था। ‘स्टार्स संग 1992 में मात्र दस माह के भीतर 12 लाख दर्शक जुड़ चुके थे। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान बने भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम 1885 के अनुसार वायुतरंगो पर भारत सरकार का अधिकार था। इस दृष्टि से ‘स्टार टीवी’ का भारतीय दर्शकों से सैटेलाइट नेटवर्क के माध्यम से सीधे जुडना गैरकानूनी था। राव का मानना था कि निजी टीवी चैनलों, विशेषकर विदेशी टीवी नेटवर्क्स का भारत में प्रवेश करना बेहद खतरनाक है- (उन्होंने पी.वी. के प्रसाद (राव के मीडिया सलाहकार) को कहा ‘आप समझते नहीं है कि यह कितना खतरनाक है…कोई भी व्यक्ति एक यंत्र को अपनी छत पर लगाकर कुछ भी देख सकता है और हमारे पास इसका कोई नियंत्रण नहीं है।’ अपनी इस भावना के बावजूद राव सैटेलाइट टीवी को प्रतिबंधित करने से हिचकिचाते रहे। वह हर कीमत पर विदेशी पूंजी निवेश लाने के लिए आतुर थे। उन्हें पता था कि निजी टीवी चैनलों को प्रतिबंधित करने का नकारात्मक संदेश जाएगा। इसलिए प्रधानमंत्री ने कोई कदम नहीं उठाया और तकनीक तथा जन भावना के चलते निजी चैनलों का विस्तार होता गया। कानूनी दृष्टि से संदिग्ध स्थिति 1995 तक बनी रही। उच्चतम् न्यायालय ने 1995 में व्यवस्था दी कि वायु तरंगों पर भारत के लोगों का हक है और इसे सरकार नियंत्रित नहीं कर सकती है। इस निर्णय बाद निजी चैनल कानूनी मान्यता पर गए।)
राव सरकार का एक अहम् योगदान दूरभाष को जन-जन तक सुलभ कराने के लिए टेलीकॉम सेक्टर में भी निजी क्षेत्र को कार्य करने की अनुमति देना रहा है। 1994 में आई नई दूरसंचार नीति ने टेलीफोन और मोबाइल फोन के क्षेत्र में निजी कम्पनियों को लाइसेंस जारी कर दूरसंचार क्रांति को जन्म देने का काम किया।
1993 में राव सरकार ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापार बढ़ाने के उद्देश्य से तैयार किए जा रहे एक समझौते जिसे डंकल प्रस्ताव कहा जाता है और जो गैट (General Agreement of Tariffs and Trade) समझौते का हिस्सा था, पर हस्ताक्षर करने का निर्णय लिया। यह उस दौर में खासा विवादास्पद मुद्दा बना था। विपक्षी दलों, विशेषकर भाजपा और वामपंथी दलों ने राव सरकार पर देश हित को विश्व बैंक के हाथों गिरवी रखने का आरोप लगा नरसिम्हा राव की राजनीतिक घेराबंदी कर डाली थी। गेट विश्व के सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रों का एक समूह है जिसकी स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापारिक रिश्तों को एक स्थाई स्वरूप देने के उद्देश्य से की गई थी। वर्तमान में यही अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नाम से जाना जाता है। ऑर्थर डंकल गैट के महानिदेशक थे। उनके द्वारा अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में अंतरराष्ट्रीय व्यापार में प्रतिस्पधाज् के समान अवसर सभी देशों को उपलब्ध कराने के लिए एक वृहद प्रस्ताव तैयार किया गया था जिसे डंकल प्रस्ताव कहा जाता है। विकाशील और पिछड़े देशों  में इस प्रस्ताव का भारी विरोध उस दौर में रहा। इन देशां का मानना था कि डंकल प्रस्ताव विकसित देशों के हितों की रक्षा करने के उद्देश्य से तैयार किया गया है। 1989 में हुए आम चुनाव के समय भारतीय विपक्षी दलों के पास तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के खिलाफ एकजुट होने के लिए बोफोर्स तोप सौदे में हुए कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा था। इस मुद्दे को सामने रख अलग-अलग विचारधाराओं वाले दल अपने वैचारिक मतभेद भुला कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़े थे। 1993 आते-आते एक एकजुटता हवा हो चली थी। 1993 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार राम मंदिर आंदोलन की चमक फीकी हो जाने और कांशीराम की जाति आधारित राजनीति चलते सभी राजनीतिक दलों को भारी खतरा पैदा हो चला था। ऐसे में डंकल का मुद्दा एक बार फिर से कांग्रेस विरोधी दलों के मध्य एकजुटता का कारण बन उभरा- ‘असंतोष की लम्बी सर्दी’ बाद, वामपंथियों से लेकर घोर दक्षिणपंथी विपक्षी दलों ने अचानक अपने कदमों में बसंत खोज लिया हैं। टैरिफ और व्यापार समझौते (गैट) जिसे भारत सरकार 15 अप्रैल (1994) को औपचारिक रूप से अनुमोदित करने जा रही है, की खिलाफत एक ऐसी ताल है जो भाजपा के उग्रराष्ट्रवाद, वामपंथ के साम्राज्यवाद विरोधी लोकवाद और मध्यमार्गी दलों और हाशिए में पड़े समूहों को एक मंच में लाने का काम कर रहा है। मुख्यधारा की सत्ता राजनीति में वापसी के लिए बेताब विपक्ष इन दिनों एक ही बात पर चर्चा कर रहा हैर : डंकल का विरोध। विपक्षी की भावनाओं को सामने रखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर कहते हैं कि : ‘गेट देश को बबाज्द कर देगा क्योंकि इसके कारण अनेकों आर्थिक मुद्दों पर हमारी सम्प्रभुता खतरे में पड़ जाएगी।’

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