डंकल प्रस्तावों को लेकर तीसरी दुनिया के देशों में प्रतिरोध के स्वर काफी हद तक जायज थे। वर्तमान समय में जब पूंजीवादी व्यवस्था लगभग पूरे विश्व को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है, डंकल प्रस्ताव का नकारात्मक पहलू ज्यादा स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी- लेनिनवादी) के मुखपत्र ‘जनशक्ति’ के एक संपादकीय में व्यक्त आशंकाएं आज पूरी तरह सच प्रमाणित हो चली हैं- ‘डंकल प्रस्ताव तीसरी दुनिया के देशों के लिए कई क्षेत्रों में घातक प्रभाव डालने वाले हैं : व्यापार से संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार (TRIPS- Trade related Intellectual Property rights), व्यापार से संबंधित निवेश के उपाय (TRIMS-Trade Related Investment Measures) और अन्य सेवाओं में सामान्य व्यापार समझौता (GATS-General Agreements on Trade Services) तथा कृषि क्षेत्र में हस्तक्षेप के साथ-साथ टैरिफ और व्यापार के सामान्य समझौते (GATT) के नियमों में प्रस्तावित संशोधन तथा इस प्रस्ताव के अंतर्गत विवादों को निपटाने की प्रणाली में प्रस्तावित बदलाव इत्यादि सभी तीसरी दुनिया के हितों के खिलाफ हैं। डंकल प्रस्ताव में व्यापार से संबंधित बौद्धिक संपदा बदलाव कुछ और नहीं, बल्कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की वैश्विक आवश्यकताएं हैं जो विश्व भर के बाजार में अपना कानूनी एकाधिकार स्थापित करना चाहती हैं। इन हितों की रक्षा के उद्देश्य से कुछ विषयों को पेटेंट से बाहर रख किसी भी देश के सम्प्रभु अधिकार में कटौती की गई है। दवाओं, फार्मास्यूटिकल्स खाद्य पदार्थों और रसायनों में पेटेंट लागू करना इन वस्तुओं को सस्ती और बेहतर बनाने वाली प्रक्रिया से वंचित रखने का काम करेगी। यह प्रस्ताव अनुवांशिक क्षरण के लिए मृत्यु के वारंट समान है। कृषि के लिए डंकल प्रस्ताव न केवल तीसरी दुनिया के किसानों के लिए बल्कि इन देशों की अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी हैं। डंकल प्रस्ताव न केवल भारत की आंतरिक कृषि नीति पर हस्तक्षेप करता है, बल्कि यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त करने पर जोर देकर गरीब और वंचित वर्ग को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के सम्प्रभु अधिकार जैसे नीतिगत मामलों में भी हस्तक्षेप करता है। यदि भारत सरकार इस प्रस्ताव को स्वीकारती है तो भारतीय किसानों के लिए वे दिन दूर नहीं होंगे जब वे खुद को अपने पूर्वजों समान स्थिति में पाऐंगे, जिन्हें नील और अफीम की खेती करने और उसे कोड़ियों के भाव ईस्ट इंडिया कम्पनी को बेचने के लिए मजबूर किया जाता था.. संक्षेप में, डंकल ड्राफ्ट ‘गैट’ का उन क्षेत्रों में विस्तार करता है जो पूरी तरह से किसी भी देश की आंतरिक नीति का हिस्सा हैं। ऐसा कर डंकल ड्राफ्ट इन देशों की सम्प्रभुता का अतिक्रमण करता है। यह एक अंतरराष्ट्रीय शक्ति केंद्र है जो साम्राज्यवादी राष्ट्रों के हितों की रक्षा करने और तीसरी दुनिया के देशों के शोषण का परिचायक है।’
नरसिम्हा राव सरकार की सबसे बड़ी समस्या लोकसभा में बहुमत न होना था। विपक्षी दलों द्वारा सरकार की आर्थिक नीतियों को मुद्दा बना सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना राव काल में एक परम्परा बनता जा रहा था। 1992 का हर्षद मेहता घोटाला, राव सरकार की आर्थिक नीतियों और जून 1993 में हर्षद मेहता द्वारा सीधे प्रधानमंत्री को एक करोड़ की रिश्वत दिए जाने के आरोप ने विपक्षी दलों को भ्रष्टाचार, आर्थिक उदारीकरण और नरसिम्हा राव के मध्य दुःरभि संधि साबित करने का एक मौका उपलब्ध करा दिया। भाजपा एवं वामपंथी दलों ने 26 जुलाई, 1993 को राव के त्याग पत्र की मांग करते हुए लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश कर राव सरकार को एक बार फिर से गम्भीर संकट में डाल दिया था। इस प्रस्ताव पर 28 जुलाई को लोकसभा में बहस बात मतदान कराया गया। विपक्षी दलों की उम्मीदों को तब भारी झटका लगा जब उनके गठबंधन का हिस्सा रहे झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदो और जनता दल (अजीत सिंह) के सात सांसदों ने राव सरकार के पक्ष में मतदान कर इस अविश्वास प्रस्ताव को सफल होने से रोक दिया। विपक्षी दलों ने राव की इस जीत को शर्मनाक बताते हुए उन पर संसद सदस्यों को खरीदने का आरोप लगाया था। तात्कालिक तौर पर राव पर इन आरोपों का असर भले ही नहीं पड़ा, उनके प्रधानमंत्री पद से हटने बाद इस प्रकरण की सीबीआई द्वारा जांच कराई गई जिसने राव पर लगे आरोपों की पुष्टि कर पूर्व प्रधानमंत्री को न केवल गहरे कानूनी पचड़े में उलझाने का काम किया, बल्कि भारतीय राजनीति में गहरे पसर चुके भ्रष्टाचार के आरोपों की भी पुष्टि कर भारतीय लोकतंत्र और राजनीति को गहरे शर्मसार कर डाला। 1996 में राव के प्रधानमंत्री न रहने बाद यह मामला सीबीआई को सौंपा गया था। राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा नामक एक संगठन ने सीबीआई को भेजे अपने शिकायती पत्र में यह आरोप लगाया था कि जुलाई 1993 में लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और उनके सहयोगियों ने आपराधिक साजिश रची थी और झारखंड मुक्ति मोर्चा तथा जनता दल (अजीत सिंह) के संसद सदस्यों को सरकार के पक्ष में मतदान करने के लिए भारी-भरकम रकम रिश्वत में दी थी। सीबीआई ने अपनी जांच में इस आरोप को सत्य बताते हुए राव और कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं तथा सरकार के पक्ष में मतदान करने वाले सांसदों को दोषी करार दिया था। दिल्ली की सीबीआई अदालत में इस मामले की सुनवाई शुरू हुई जिसके खिलाफ राव व अन्य अभियुक्त पहले दिल्ली उच्च न्यायालय और वहां से याचिका खारिज होने बाद उच्तम न्यायालय की शरण में गए थे। पूर्व प्रधानमंत्री को इस मामले में गिरफ्तारी से बचने के लिए जमानत तक लेनी पड़ी थी। यह आजाद भारत का पहला ऐसा मामला था जब कोई पूर्व प्रधानमंत्री जेल जाने की कगार तक जा पहुंचे थे। राव ने दिल्ली उच्च न्यायालय के बाद उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की। न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष दो महत्वपूर्ण बिंदुओं पर बहस हुई। पहला बिंदु था कि क्या संविधान के अनुच्छेद 105(2) के अंतर्गत संसद सदस्यों पर रिश्वत लेने अथवा देने के आरोप चलते आपराधिक मुकदमा चलाए जाने से छूट मिली हुई है? और दूसरा बिंदु यह कि क्या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 संसद सदस्यों पर भी लागू होता है क्योंकि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम अनुसार संसद सदस्य लोक सेवक की श्रेणी में नहीं आते हैं। संविधान पीठ के समक्ष यह भी तय करने की जिम्मेदारी थी कि सांसदों के भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में उन पर अभियोग दर्ज कराने के लिए किस प्रकार की और किस स्तर की सहमति आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 1998 में अपना फैसला सुनाया जो आधा-अधूरा और अजीबो- गरीब किस्म का फैसला था। इस फैसले के चलते झारखंड मुक्ति मोर्चा, जनता दल (अजीत) के सांसदों तथा राव व अन्य अभियुक्त दोषमुक्त करार दे दिए गए। न्यायालय ने सांसदों को लोक सेवक की श्रेणी में रखते हुए उन पर मुकदमा चलाए जाने के लिए लोकसभा अध्यक्ष तथा राज्यसभा सदस्यों के लिए राज्यसभा के अध्यक्ष से सहमति लेने की व्यवस्था तो दी लेकिन संविधान के अनुच्छेद 105(2) का हवाला देते हुए किसी भी सदस्य के लोकसभा अथवा राज्यसभा में किए गए कृत्य अथवा आचरण पर आपराधिक मुकदमा न चलाए जाने को सही करार दे डाला।