अमेरिका की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित शिक्षण संस्था हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को ट्रम्प प्रशासन ने भारी राजनीतिक दबाव में निशाना बना डाला है जिससे उच्च शिक्षा की स्वतंत्रता और सरकारी हस्तक्षेप पर गहरी बहस छिड़ गई है
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, जिसे 1636 में स्थापित किया गया था, केवल अमेरिका ही नहीं, दुनिया भर में उच्च शिक्षा का प्रतीक मानी जाती है। कैम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स में स्थित यह विश्वविद्यालय, विज्ञान, तकनीक, राजनीति और मानविकी के क्षेत्र में कई नोबेल पुरस्कार विजेताओं, राष्ट्रपतियों और वैश्विक नेताओं को तैयार कर चुका है। इसका नाम केवल अकादमिक उत्कृष्टता ही नहीं, बल्कि वैचारिक स्वतंत्रता और सामाजिक विमर्श में विविधता के लिए भी जाना जाता रहा है। लेकिन आज यही संस्थान अमेरिकी राजनीति के केंद्र में विवाद का विषय बन गया है।
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व वाली मौजूदा अमेरिकी सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि हार्वर्ड अब आगे किसी भी संघीय अनुसंधान फंडिंग का पात्र नहीं रहेगा। अमेरिकी शिक्षा सचिव लिंडा मैकमोहन ने विश्वविद्यालय पर आरोप लगाया है कि वह यहूदी-विरोधी घटनाओं को रोकने में विफल रहा है, विचारों की विविधता को दबा रहा है और विदेशी छात्रों को ‘हिंसक विचारधारा’ के साथ प्रवेश दे रहा है। मैकमोहन ने अपने पत्र में विश्वविद्यालय को चेताते हुए लिखा कि ‘यह संस्था अब अपने भारी भरकम एलुमनी नेटवर्क और निजी दान से ही काम चलाए, क्योंकि सरकार की ओर से अब कोई फंडिंग नहीं दी जाएगी।’
इस विवाद की शुरुआत तब हुई जब हार्वर्ड ने सरकार की कुछ मांगों को अस्वीकार कर दिया, जिनमें बाहरी एजेंसियों द्वारा छात्रों और शिक्षकों की वैचारिक जांच की बात कही गई थी। इसके बाद लगभग 2.3 अरब डाॅलर की फंडिंग पर रोक लगा दी गई। विश्वविद्यालय ने इन आरोपों को राजनीतिक प्रतिशोध बताते हुए अदालत में चुनौती दी है। हार्वर्ड प्रशासन का कहना है कि वह कानून का पालन करता है, सभी विचारों का सम्मान करता है और कट्टरता के विरुद्ध संघर्ष करता रहेगा।
यह घटना न केवल हार्वर्ड, बल्कि अमेरिका में विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को लेकर गहरे प्रश्न खड़े कर रही है। क्या शैक्षणिक संस्थानों को सत्ता के अनुरूप ढालने की कोशिश हो रही है? क्या वैचारिक असहमति को दंडित किया जा रहा है स इतिहास गवाह है कि हार्वर्ड जैसे संस्थानों ने अमेरिका के विचारशील लोकतंत्र को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन मौजूदा घटनाक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि शिक्षा भी अब राजनीतिक खेमेबाजी का शिकार बनती जा रही हैं। यहां यह गौरतलब है कि अमेरिका में शिक्षा की आजादी पर उस समय गम्भीर सवाल खड़े हो गए जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व वाली सरकार ने देश की प्रमुख शैक्षणिक संस्थाओं के खिलाफ एक के बाद एक कठोर कदम उठाए। इन संस्थानों पर यह आरोप लगाया गया कि वे यहूदी विरोधी माहौल को रोकने में विफल रहे हैं। विचारधारा के स्तर पर संतुलन नहीं रख पा रहे हैं और विदेशी छात्रों को ऐसे विचारों के साथ प्रवेश दे रहे हैं जो अमेरिका की मूल पहचान और सुरक्षा के लिए चुनौती हैं।
यह मामला केवल हार्वर्ड तक सीमित नहीं है। मार्च और अप्रैल के दौरान ट्रम्प प्रशासन ने अमेरिका की अन्य बड़ी यूनिवर्सिटियों – कोलंबिया, काॅर्नेल, नाॅर्थवेस्टर्न, प्रिंसटन और ब्राउन, के खिलाफ भी कार्रवाई की। इन संस्थानों पर करोड़ों डाॅलर की संघीय फंडिंग रोक दी गई। कारण वही, यहूदी विरोध का आरोप, डाइवर्सिटी एजेंडा पर संदेह और वामपंथी विचारों को बढ़ावा देना।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी, जहां फिलिस्तीन समर्थक छात्रों ने इजराइल के गाजा युद्ध के विरोध में प्रदर्शन किया, उस पर सबसे तीखी कार्रवाई हुई। प्रशासन ने वहां के मध्य पूर्व और अफ्रीकी अध्ययन विभाग को ‘शैक्षणिक रिसीवरशिप’ में डालने की मांग रखी, साथ ही नकाब पहनने पर प्रतिबंध और प्रदर्शनकारी छात्रों के निष्कासन की भी शर्तें रखीं।
काॅर्नेल और नाॅर्थवेस्टर्न जैसे संस्थानों की अरबों डाॅलर की फंडिंग फ्रीज कर दी गई। इन विश्वविद्यालयों पर यह आरोप लगाया गया कि वे यहूदी छात्रों की सुरक्षा को लेकर गम्भीर नहीं हैं और उनका वातावरण पक्षपाती है। ब्राउन यूनिवर्सिटी को भी चेतावनी दी गई कि यदि उनकी नीतियों में बदलाव नहीं हुआ तो 510 मिलियन डाॅलर की फंडिंग समाप्त कर दी जाएगी।
ट्रम्प प्रशासन ने इन कार्रवाइयों को ‘अमेरिकी मूल्यों की रक्षा’ और ‘घृणा के खिलाफ युद्ध’ बताया, लेकिन शैक्षणिक जगत ने इसे सत्ता की वैचारिक सेंसरशिप करार दिया। हार्वर्ड और कोलंबिया जैसे विश्वविद्यालयों ने इन आदेशों के खिलाफ न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है और कहा है कि यह न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है, बल्कि शोध और नवाचार की स्वतंत्रता को भी कुचलने वाला प्रयास है। इन विवादों का एक और पहलू विदेशी छात्रों पर केंद्रित है। ट्रम्प प्रशासन ने सैकड़ों विदेशी छात्रों के वीजा रद्द कर दिए, विशेषकर उन छात्रों के जो विश्वविद्यालयों में विरोध -प्रदर्शन या सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय थे। कई मामलों में छात्रों को डिटेन भी किया गया।
एक व्यापक योजना के तहत शिक्षा विभाग ने 60 से अधिक विश्वविद्यालयों के खिलाफ जांच शुरू कर दी है। उनका उद्देश्य है कि विश्वविद्यालयों में डीईआई (Diversity, Equity and Inclusion) जैसे कार्यक्रमों को नियंत्रित किया जाए जिन्हें प्रशासन नस्लीय भेदभाव के रूप में देखता है।
इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ट्रम्प प्रशासन उच्च शिक्षा को केवल एक शिक्षण प्रक्रिया के रूप में नहीं, बल्कि वैचारिक और राजनीतिक नियंत्रण के साधन के रूप में देख रहा है। अमेरिका जैसे लोकतंत्र में जहां विश्वविद्यालय स्वतंत्र विचार, विमर्श और शोध के केंद्र रहे हैं, वहां सत्ता का यह हस्तक्षेप केवल शिक्षा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर भी प्रश्न- चिन्ह खड़ा करता है।