दिल्ली-एनसीआर में पिछले कुछ दिनों से प्रदूषण कोहरे की तरह चारों तरफ फैला हुआ है। अत्यधिक प्रदूषण के कारण दिल्ली में स्कूल भी बंद कर दिए गए हैं। बाहर की हवा में सांस लेने से लोगों के गले में दर्द, सर दर्द, नाक में जलन और आँखों में जलन हो रही है। कई रिपोर्ट्स में कहा गया है कि दिल्ली के बढ़ते प्रदूषण में सांस लेना एक समय में 10 सिगरेट पीने के बराबर हो गया है। इससे सबसे ज्यादा मुश्किल में वह लोग हैं, जो सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं। कुछ लोगों में यह प्रदूषण सांस की बीमारियों की नई स्थितियां पैदा करने लगी है। ऐसे हालातों में प्रदूषण हटाने के लिए बारिश बड़ा वरदान मानी जाती है जिससे फैले प्रदूषण को धोकर हवा को साफ कर देती है लेकिन मौसम विभाग के अनुमान कहते हैं कि दिवाली से पहले तो बारिश की कोई संभावना नहीं दिख रही है। इसलिए दिल्ली में सरकार कृत्रिम बारिश की तैयारी में जुटी हुई है। इस कृत्रिम बारिश को करने के लिए कानपुर आईआईटी से मदद ली जा रही है।
दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दो एक बार तब कृत्रिम बारिश कराने की चर्चा की थी, जब दिल्ली में कम बारिश हो रही थी या गरमी के मारे बुरा हाल हो गया था। वैसे भारत के पास कृत्रिम बारिश कराने की तकनीक मौजूद है, और हमारे देश में कई जगहों पर समय समय पर ऐसी बारिश कराई भी जा चुकी हैं। कृत्रिम बारिश कराई जाती है जब प्रदूषण कम करने के लिए कोई और रास्ता नजर नहीं आ रहा होता है। इससे हवा में मिला प्रदूषण पानी के साथ मिलकर जमीन पर आ जाता है, और हवा एकदम साफ हो जाती है। जो लोगों के स्वास्थ्य के लिहाज से बहुत निजात दिला सकती है।
पिछले साल गर्मी से तपते संयुक्त अरब अमीरात ने ड्रोन के जरिए बादलों को इलेक्ट्रिक चार्ज करके अपने यहां आर्टिफिशियल बारिश करवाई थी। हालांकि ये बारिश कराने की नई तकनीक ईजाद की गई है। इसमें बादलों को बिजली का झटका देकर बारिश कराई जाती है। इलेक्ट्रिक करंट से बादलों में घर्षण होता है। इस योजना के बाद दुबई और आसपास के शहरों में जमकर बारिश हुई थी। 50 के दशक में भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रयोग करते हुए महाराष्ट्र और यूपी के लखनऊ में कृत्रिम बारिश कराई गई थी। दिल्ली में भी 02-03 साल पहले वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कृत्रिम बारिश की तैयारी कर ली गई थी, जिसका उपयोग अब करने की तैयारियां की जा रही हैं।
कैसे होती है कृत्रिम बारिश
कृत्रिम बारिश करना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसमें सबसे पहले मौजूदा बादलों में केमिकल डाल कर बादलों में पानी की बूंदों को बढ़ाया जाता है जिससे बादल बारिश के लिए पूरी तरह तैयार हो जाते हैं। पुरानी और सबसे ज्यादा प्रचलित तकनीक में विमान या रॉकेट के जरिए ऊपर पहुंचकर बादलों में सिल्वर आयोडाइड मिला दिया जाता है। सिल्वर आयोडाइड प्राकृतिक बर्फ की तरह ही होती है। इसकी वजह से बादलों का पानी भारी हो जाता है और बरसात हो जाती है।
कुछ जानकार कहते हैं कि कृत्रिम बारिश के लिए बादल का होना जरूरी है। बिना बादल के क्लाउड सीडिंग नहीं की जा सकती है। बादल बनने पर सिल्वर आयोडाइड का छिड़काव किया जाता है। इसकी वजह से भाप पानी की बूंदों में बदल जाती है। इनमें भारीपन आ जाता है और ग्रैविटी की वजह से ये धरती पर गिरती है। वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर के 56 देश क्लाउड सीडिंग का प्रयोग कर रहे हैं।
क्या है क्लाउड सीडिंग
कृत्रिम बारिश की ये प्रक्रिया बीते 50-60 वर्षों से उपयोग में लाई जा रही है। इसे क्लाउड सीडिंग कहा जाता है। क्लाउड सीडिंग का सबसे पहला प्रदर्शन फरवरी 1947 में ऑस्ट्रेलिया के बाथुर्स्ट में हुआ था। इसे जनरल इलेक्ट्रिक लैब ने अंजाम दिया था। 60 और 70 के दशक में अमेरिका में कई बार कृत्रिम बारिश करवाई गई। लेकिन बाद में ये कम होता गया। कृत्रिम बारिश का मूल रूप से प्रयोग सूखे की समस्या से बचने के लिए किया जाता था। चीन कृत्रिम बारिश का प्रयोग करता आ रहा है। वर्ष 2008 में बीजिंग ओलंपिक के दौरान चीन ने इस विधि का प्रयोग 21 मिसाइलों के जरिए किया था। जिससे अत्यधिक बारिश के खतरे को टाल सके। चीन अब भी इस विधि का प्रयोग प्रदूषण से निपटने के लिए करता है।
दिल्ली में कृत्रिम बारिश की तैयारी