प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए मिशन 300 पर विचार-मंथन कर रहे हैं। इसके लिए जनसंपर्कों का दौर चल रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत को इससे कोई सरोकार नहीं है। हालांकि देवभूमि का दुर्भाग्य है कि अलग उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद यह देश-दुनिया में सिर्फ यहां के सत्तानवीसों के गलत कारनामों की वजह से चर्चा में रही है। लेकिन अब दुनिया यह भी देख चुकी है कि यहां के मुख्यमंत्री किस तरह जनता दरबार का दिखावा करते हैं और कैसे अपने दरबार में जायज बात करने पर आम लोगों को अपमानित करते हैं। मुख्यमंत्री भी वे जो खुद को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में संस्कारित एवं दीक्षित होने का दावा करते रहे हैं। हिन्दुत्व की विचारधारा में विश्वास करने वाली पार्टी की छत्र छाया में अागे बढे हैं।
समझ से परे है कि वर्षों तक संघ और भाजपा में रहते मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र ने कैसे संस्कार लिये कि अपने राज्य की उस विधवा शिक्षिका का दर्द सुनने का धैर्य भी उनके भीतर नहीं है, जो 25 वर्षों तक दुर्गम क्षेत्र में अपने बच्चों से दूर रहकर बच्चों को शिक्षा देती रही। समाचार माध्यमों में जो वीडियो शेयर किये जा रहे हैं उन्हें देखने पर कोई भी कह सकता है कि मुख्यमंत्री जिस भाषा में शिक्षिका को धमका रहे हैं वह किसी भी दशा में मुख्यमंत्री पद की गरिमा के अनुरूप मर्यादित भाषा नहीं कही जा सकती। यहां तक कि शारीरिक रूप से अस्वस्थ और नशे में चूर किसी आम व्यक्ति से भी इस तरह की धमकी भरी भाषा की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
खैर, अब तीर कमान से निकल चुका है। भाजपा को मुख्यमंत्री के इस व्यवहार से काफी राजनीतिक नुकसान हो चुका है। अब पार्टी चाहे तो डैमेज कंट्रोल का रास्ता अपना सकती है। इसके लिए सबसे पहले मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को जन भावनाओं का सम्मान करते हुए शिक्षिका से माफी मांगनी होगी और उसकी समस्या का अविलंब समाधान करना होगा। इसके साथ ही सत्ता एवं विपक्ष के उन नेताओं और नौकरशाहों की सेवारत पत्नियों को अनिवार्य रूप से दुर्गम में भेजा जाए जो देहरादून में डेरा जमाए हुई हैं। कर्मचािरयों के स्थानांतरण में जब तक पारदर्शिता नहीं होगी तब तक डैमेज कंट्रोल की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। सच तो यह है कि यदि स्थानांतरण में पारदर्शिता होती, सत्तानवीसों की नीति और नीयत में जरा भी ईमानदारी होती तो आज प्रदेश में जो हुआ, वह नहीं होता। जब तक नीति और नीयत में ईमानदारी न हो तब तक जनता दरबारों का कोई औचित्य नहीं। यह सिर्फ ढोंग ही समझे जाएंगे। भाजपा आलाकमान के लिए सोचने का वक्त है कि आखिर उत्तराखण्ड ने उसे जो जनादेश दिया है, क्या उसका यही हश्र होना चाहिए। अगर आलकममान इस पर गंभीर नहीं होता है तो 2019 में उत्तराखंड की पांच लोकसभा सीटों के साथ ही देशभर की उन 35 सीटों पर भी भाजपा की दिक्कतें बढ़ सकती हैं जहां उत्तराखंड के प्रवासी निर्णायक भूमिका में हैं।