Uttarakhand

धामी का मास्टर स्ट्रोक

‘‘मैं अजय टम्टा ईश्वर की शपथ लेता हूं’’ का दृश्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल में टम्टा द्वारा मंत्री पद की शपथ लिए जाने के साथ ही प्रदेश की राजनीति में खासी हलचल पैदा कर गया। तमाम बड़े और दिग्गज नेताओं के बजाय मृदभाषी, मिलनसार और अनुभवी राजनेता अजय टम्टा को अपने मंत्रिमंडल में शामिल करके पीएम मोदी ने एक साथ कई राजनीतिक समीकरणों को तो बैठाया ही है, साथ ही प्रदेश में अनेक पावर सेंटरों के उभरने की आशंकाओं को भी शुरू होने से पहले ही खत्म कर दिया। इससे यह साबित हो गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धाकड़ धामी को प्रदेश में खुलकर राजनीतिक बैटिंग करने के लिए अभय दान दे दिया है और धामी के सामने किसी भी प्रकार के पावर सेंटर उभरने की आशंकाओं को पूरी तरह से खत्म कर दिया है

पृथक उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद अजय टम्टा प्रदेश से छठवें सांसद हैं जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान मिला है। पूर्व में 2016 में मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में टम्टा को केंद्रीय कपड़ा राज्य मंत्री बनाया गयाा था। माना जाता रहा है कि जातिगत समीकरणों को साधने के साथ-साथ सीएम धामी को खुलकर बैटिंग करने देने के लिए ही उनके प्रतिद्वंदी समझे जाने वाले नेताओं को नजरअंदाज कर पीएम मोदी ने अजय टम्टा को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शमिल किया है। प्रदेश में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ठाकुर हैं तो भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र प्रसाद भट्टा ब्राह्माण चेहरे हैं, साथ ही वे अब राज्यसभा सांसद भी हैं जिसके चलते अजय टम्टा दलित वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर मोदी सरकार में मंत्री बनाए गए हैं।

मौजूदा समय में प्रदेश से पांचों सीटों पर भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की है। इसमें लगातार चार बार सांसद का चुनाव जीत कर संसद में पहुंचने वाली टिहरी सीट से महारानी माला राजलक्ष्मी, पौड़ी सीट से भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता अनिल बलूनी, हरिद्वार सीट से पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत और नैनीताल से पूर्व केंद्रीय राज्य रक्षामंत्री अजय भट्ट जैसे दिग्गजों को नकारते हुए मोदी सरकार में अजय टम्टा को सड़क परिवहन राज्य मंत्री बनना अपने आप में ही चौंकाता है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में सरकार भले ही किसी भी दल की क्यों न रही हो, मुख्यमंत्रियों के सामने कोई न कोई पावर सेंटर बना रहा, फिर चाहे वह सरकार और संगठन के बीच ही क्यों न हो। जिसके चलते सरकार के कामकाज पर भी इसका बड़ा प्रभाव देखने को मिलता रहा है।

सरकारों में कई पावर सेंटर होना कोई नई बात नहीं है लेकिन इन पावर संेटरों से कई बार एक तरह से समानांतर सरकार या संगठन उभरता देखा गया है। राज्य की पहली अंतरिम सरकार में तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी और भाजपा के दिग्गज नेता भगत सिंह कोश्यिारी के बीच पावर सेंटर को लेकर सरकार और संगठन के विवाद सामने आते रहे थे जिसमें कोश्यारी स्वामी सरकार पर भारी रहे और आखिरकार नित्यानंद स्वामी को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा और कोश्यारी मुख्यमंत्री बने।

प्रदेश की पहली निर्वाचित कांग्रेस की एनडी तिवारी सरकार भी अपने अंतर्द्वंदों और अपनी ही पार्टी के पावर सेंटर से पूरे पांच साल तक उलझती ही रही। तत्कालीन समय में मुख्यमंत्री एनडी तिवारी और प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत के बीच आपसी मतभेद इतने बढ़ चुके थे कि वे मनभेद तक पहुंच चुके थे। 2002 से 2007 तक, जब तक राज्य में चुनाव नहीं हुए, पूरे पांच साल कांग्रेस सरकार और संगठन के बीच तलवारें खिंची रही। एक तरह से कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच तिवारी और रावत खेमा बन उभरा था जिसका बड़ा असर तिवारी सरकार की कार्यकुशलता पर पड़ा था। सरकार के आधे मंत्री हरीश रावत की बातांे को ज्यादा तरजीह देते थे न कि मुख्यमंत्री की। यहां तक कि विधायकों में भी दो फाड़ होने चलते कई बार एनडी तिवारी के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र तक दिए जाने की चर्चाएं तैरती रहती थी।

2007 में भाजपा की सरकार बनी। उक्रांद और निदर्लीय विधायकों के सहारे बनी इस सरकार के मुख्यमंत्री बीसी खण्डूड़ी को भी दो-दो पावर सेंटरों से जूझना पड़ा जिसमें एक रमेश पोखरियाल ‘निंशक’ और भगत सिंह कोश्यारी थे। हालांकि खण्डूड़ी को भाजपा संगठन से कोई चुनौती तो नहीं मिली लेकिन उन्हें सरकार और पार्टी भीतर विरोध का सामना निरंतर करना पड़ा। खण्डूड़ी ने अपने राजनीतिक कौशल से भगत सिंह कोश्यारी को राज्यसभा भेजकर अपने समानांतर बन रहे पावर सेंटर को कमजोर करने का भरपूर प्रयास किया जिसमें वे कुछ हद तक सफल रहे लेकिन कोश्यारी के बाद तत्कालीन प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ कोश्यारी की भूमिका में आ गए। इसका बड़ा असर यह हुआ कि 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पांचांे सीटांे पर हार गई जबकि 2007 में पौड़ी लोकसभा उपचुनाव भाजपा जीत चुकी थी। परंतु महज दो वर्ष के भीतर ही भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा।

इस हार का ठीकरा मुख्यमंत्री बीसी खण्डूड़ी के सिर फोड़ा गया और उनको मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा। निश्ंाक को मुख्यमंत्री बनाया गया। दिलचस्प बात यह है कि निशंक भी अपनी सरकार के दो वर्ष तक पावर सेंटर से ही जूझते रहे और इस बार पावर सेंटर की भूमिका फिर से कोश्यारी के हाथों में आई जिसका समर्थन खण्डूड़ी भी करते रहे। इसका यह असर हुआ कि निश्ंाक को भी अचानक से मुख्समंत्री पद से हटना पड़ा और खण्डूड़ी को फिर से मुख्यमंत्री बनाया गया।

2012 में प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ तो कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी। इस दौरान मुख्यमंत्री बनने से लेकर सरकार के कामकाज तक पावर सेंटरों के बीच सरकार और संगठन उलझता ही रहा। हरीश रावत और तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बीच कई विवाद सामने आते रहे। टिहरी लोकसभा उपचुनाव में विजय बहुगुणा के पुत्र साकेत बहुगुणा की करारी हार से दोनों नेताओं के बीच मतभेद बुरी तरह से सामने आ गए। हरीश रावत विजय बहुगुणा पर हमेशा भारी पड़े और अपने रिश्तेदार महेंद्र सिंह महरा को राज्य सभा भेजने में कामयाब रहे। यहां तक कि बहुगुणा मंत्रिमंडल में अपने समर्थकों को मंत्री पद दिलावने में भी कामयाब रहे। विजय बहुगुणा सरकार और संगठन के बीच सामांजस्य तक नहीं बैठा पाए और महज दो वर्ष के भीतर उनको भी मुख्यमंत्री पद से चलता करके हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना दिया गया।

सरकार में पावर सेंटर की सबसे बड़ी ताकत हरीश रावत सरकार के दौरान ही सामने आई जब कांग्रेस के 9 विधायकों ने अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और विधानसभा सत्र के दौरान सरकार के खिलाफ लामबंद हो गए। इसका यह असर हुआ कि राज्य को पहली बार राष्ट्रपति शासन के दौर से गुजरना पड़ा। हालांकि हरीश रावत सरकार को न्यायालय से राहत मिली और राष्ट्रपति शासन हटाया गया। हरीश रावत फिर से मुख्यमंत्री बने लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सबसे बड़ी पराजय देखने को मिली और भाजपा को पहली बार प्रचंड बहुमत मिला, फिर भाजपा की सरकार बनी।

2017 में भाजपा की दो तिहाई बहुमत से सरकार बनी और त्रिवेंद्र रावत मुख्यमंत्री बने। दिलचस्प बात यह है कि त्रिवेंद्र के मुख्यमंत्री बनने के तीन माह भीतर ही उनको हटाए जाने की चर्चाएं शुरू हो गई थी जो उनके हटने के बाद ही शांत हुई। इस चार साल के दौरान कई पावर सेंटर भी खूब उभरे। तत्कालीन आबकारी और वित्त मंत्री स्वर्गीय प्रकाश पंत, शहरी विकास मंत्री मदन कौशिक, भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया सलाहकार अनिल बलूनी से लेकर प्रशासनिक व्यवस्था तक जिसमें मुख्य सचिव और अपर मुख्य सचिव के बीच पावर सेक्टरों से सरकार और स्वयं मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत उलझते ही रहे और आखिरकार गैरसैंण में बजट सत्र के दौरान ही उनको मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र देने को विवश होना पड़ा।

अब मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की बात करें तो ऐसा नहीं है कि धामी सरकार में कोई पावर संेटर नहीं पनपा है। इस सरकार के पहले कार्यकाल में धामी को हटाए जाने की बातें भी खूब हुई हैं जिनको हवा भाजपा के बड़े नेता ही दे रहे थे। 2022 के विधानसभा चुनाव में धामी की करारी हार के बाद इन नेताओं ने पुरजोर ताकत लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की पहली पसंद होने के चलते धामी को हारने के बावजूद मुख्यमंत्री बनाया गया।

इस लोकसभा चुनाव के दौरान भी धामी के खिलाफ कई चर्चाएं सामने आती रही। यहां तक कि चुनाव प्रचार के दौरान अनिल बलूनी को केंद्र सरकार में मंत्री पद मिलने की बात कर इशारा भी जमकर किया गया। चर्चाएं तो यहां तक हुई कि अनिल बलूनी अगर हार गए तो प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे, अगर जीत गए तो केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनेंगे।

अब त्रिवेंद्र रावत, अनिल बलूनी और अजय भट्ट तीनों ही लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में पहुंच चुके हैं। राजनीतिक जानकारों की मानंे तो इन तीनों नेताओं में से किसी एक नेता को मोदी मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता तो निश्चित ही प्रदेश की राजनीति में इनका और भी ज्यादा प्रभाव देखने को मिल सकता था। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत कई बार सरकार के कामकाज पर इशारों-इशारों में सवाल खड़े कर चुके हैं जिसमें जोशीमठ आपदा और चारधाम यात्रा की अव्यवस्था शामिल है।

अनिल बलूनी राज्य के विकास को लेकर कई बड़े-बड़े दावे करते रहे हैं जो लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिल चुके हैं। अब तीनों ही नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने से कम से कम मुख्यमंत्री धामी के लिए बड़ी राहत की बात देखी जा रही है। धामी सरकार के दूसरे कार्यकाल में उनको किसी बड़े पावर सेंटर से तो नहीं जूझना पड़ेगा, यह अजय टम्टा के मंत्री बनने से साफ हो गया। दिल्ली दरबार पर पकड़ रखने वालों का कहना है कि मुख्यमंत्री धामी ने टम्टा के लिए जबर्दस्त बैटिंग कर पार्टी आलाकमान को यह समझा पाने में सफल रहे कि बलूनी अथवा त्रिवेंद्र को केंद्र में मंत्री बनाए जाने से प्रदेश की राजनीति में समानांतर पावर सेंटर उठ खड़ा होगा जो अंततः राजनीतिक अस्थिरता का कारण बनेंगे।

अजय से बंधी उम्मीदें
16 जुलाई 1972 को मनोहरलाल टम्टा के घर जन्में अजय टम्टा छात्र जीवन से ही राजनीति संग जुड़ गए थे। वे अखिल भारीतय विद्यार्थी परिषद से जुड़े और फिर भाजपा में शामिल हुए। 29 वर्ष के राजनीतिक सफर की शुरुआत 23 वर्ष में की और तब से लेकर अब तक टम्टा 9 बार चुनाव लड़े हैं जिनमें छह चुनावों में उनकी जीत हुई है। 1996 में जिला पंचायत सदस्य से अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत करने वाले टम्टा 1997 में जिला पंचायत उपाध्यक्ष बने और 1999 में जिला पंचायत अध्यक्ष। वर्ष 2000 में भाजपा से टिकट न मिलने पर पार्टी से बगावत करके निदर्लीय ही सोमेश्वर विधानसभा सीट से चुनाव लड़े लेकिन कांग्रेस के प्रदीप टम्टा से चुनाव हार गए। इसके बाद अजय टम्टा भाजपा में वापस आए और 2007 और 2012 में सोमेश्वर विधानसभा सीट से लगातार दो बार विधायक निर्वाचित हुए। 2008 में खण्डूड़ी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। 2010 में टम्टा को उत्तराखण्ड अनूसचित जाति, जनजाति मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। 2011 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य नियुक्त किए गए। 2009 में पहली बार अल्मोड़ा लोकसभा सीट से चुनाव लड़े लेकिन जीत नहीं पाए। 2014 में अल्मोड़ा संसदीय सीट से चुनाव जीतकर सांसद बने। 2016 में मोदी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार में केंद्रीय कपड़ा राज्यमंत्री बनाए गए। 2019 में फिर से अल्मोड़ा सीट से सांसद का चुनाव जीते और 2024 में हैट्रिक लगाते हुए तीसरी बार लगातार सांसद का चुनाव जीते। पृथक उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद बीसी खण्डूड़ी, बच्ची सिंह रावत, हरीश रावत, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, अजय भट्ट के बाद अजय टम्टा प्रदेश से छठे सांसद हैं जो केंद्रीय मंत्रिमंडल में शमिल किए गए हैं।

टम्टा के सड़क एवं परिवहन राज्यमंत्री बनने से प्रदेश में दोहरी खुशी देखी जा रही है। एक तो टम्टा को मोदी सरकार में दूसरी बार मौका दिया गया है। दूसरा जिस विभाग से प्रदेश जूझता रहा है वही सड़क और परिवहन मंत्रालय का जिम्मा टम्टा को मिलना प्रदेश के लिए कई आशाएं जगा रहा है। आज भी ऑल वेदर रोड के अलावा कई ऐसे मार्ग हैं जिनके निर्माण में पेंच और विवाद हैं। साथ ही प्रदेश के कई ऐसे दुर्गम इलाके भी हैं जहां तक सड़कें नहीं पहंुच पाई हैं। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी भी उत्तराखण्ड में सड़कों के निर्माण के लिए पहल कर चुके हैं और मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में गडकरी को फिर से वही विभाग मिले हैं जिसमें अब अजय टम्टा की भी भूमिका होने से प्रदेश को दोहरा लाभ मिलने की उम्मीद जगी है।

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