Editorial

सत्ता विकेंद्रीकरण का दौर

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-112

राजीव गांधी सत्ता के विकेंद्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे। पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा उनके शासनकाल की देन और प्रमुख उपलब्धियों में से एक है। यदि आज आजाद भारत के पचहत्तरवें वर्ष में सत्ता का विकेंद्रीकरण मजबूत हुआ है और निर्वाचित 32 लाख जनप्रतिनिधियों में से 14 लाख महिलाएं हैं, जो ग्रामसभा, पंचायत, नगर पालिका स्तर पर सक्रिय हैं, तो इसका श्रेय राजीव गांधी की दूरदर्शी सोच को जाता है

राजीव प्रगतिशील सोच के युवा प्रधानमंत्री थे। शिक्षा प्रणाली को आधुनिक और सुगम बनाने के उद्देश्य से राजीव नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लेकर आए। भारत की पहली शिक्षा नीति 1968 में इंदिरा गांधी के शासनकाल में लागू हुई थी। 18 बरस बाद दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति राजीव गांधी के शासनकाल में 1986 में लागू की गई। 1987 में केंद्र सरकार ने एक महत्वाकांक्षी योजना ‘ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड’ की शुरुआत कर ग्रामीण भारत में शिक्षा को व्यापक स्तर तक घर-घर पहुंचाने का काम किया। सभी सरकारी स्कूलों में कम्प्यूटर शिक्षा को राजीवकाल में ही बतौर अनिवार्य पाठ्यक्रम लागू किया गया था। राजीव गांधी के शिक्षा के प्रति समर्पण को 1985 में स्थापित देश के पहले मुक्त विश्वविद्यालय इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) की स्थापना से समझा जा सकता है। मात्र 20 लाख के बजट से शुरू किए गए इस विश्वविद्यालय को वर्तमान में विश्व का सबसे बडा विश्वविद्यालय (विद्यार्थियों की संख्या के आधार पर) होने का गौरव प्राप्त है। राजीव का लक्ष्य हरेक भारतीय को उच्च शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराने का था। ‘इग्नू’ इस लक्ष्य को पाने में सफल रहा है। इस समय इस मुक्त विश्वविद्यालय के 69 क्षेत्रीय सेंटर, 2063 शिक्षार्थी सहायता केंद्र (लर्नर सपोर्ट सेंटर) तथा विश्व के 15 देशों में 25 विदेशी अध्ययन केंद्र हैं।

राजीव गांधी सत्ता के विकेंद्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे। पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा उनके शासनकाल की देन और प्रमुख उपलब्धियों में से एक है। संसद में पंचायती राज की स्थापना को लेकर राजीव सरकार ने 15 मई, 1989 को 64वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था। लोकसभा में भारी बहुमत से पारित इस विधेयक को हालांकि तब राज्यसभा से मंजूरी नहीं मिल पाई थी, लेकिन इस विधेयक ने आने वाले समय में पंचायतों के सशक्तिकरण, सत्ता के विकेंद्रीकरण और महिलाओं की सत्ता में सहभागिता का मार्ग प्रशस्त किया। इस विधेयक को लोकसभा में पेश करते समय राजीव गांधी ने महिला सशक्तिकरण की पुरजोर पैरवी करते हुए कहा था- ‘यह भारत की महिलाएं ही हैं, जो मां और दादी-नानी के रूप में भारत की प्राचीन संस्कृति और परम्पराओं की सम्वाहक हैं। उन्हें ही यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है कि वे हमारी महान विरासत, मूल्यों, मानकों और आदर्शों को नई पीढ़ी तक पहुंचाएं। वे मूल्य और आदर्श, जिन्होंने नाना प्रकार की रुकावटों और उतार-चढ़ाव के बावजूद हमारी सभ्यता को फलने-फूलने और जीवित रहने योग्य बनाया है। इसी नैतिक चरित्र की ताकत को महिलाएं पंचायतों में लाएंगी। आइए, हम गर्मजोशी से उनका स्वागत करें।’
राजीव गांधी केवल सूचना प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटरीकरण, औद्योगिक विकास के जरिए भारत के विकास की अवधारणा तक सीमित नहीं थे। उन्होंने महात्मा गांधी के ‘ग्राम स्वराज’ को मूर्त रूप देने के लिए ठोस कार्य किए। यदि आज आजाद भारत के पचहत्तरवें वर्ष में सत्ता का विकेंद्रीकरण मजबूत हुआ है और निर्वाचित 32 लाख जनप्रतिनिधियों में से 14 लाख महिलाएं हैं, जो ग्रामसभा, पंचायत, नगर पालिका स्तर पर सक्रिय हैं, तो इसका श्रेय राजीव गांधी की दूरदर्शी सोच को जाता है। राजीव के विशेष सचिव रहे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. मोंटेक सिंह अहलूवालिया के शब्दों में- ‘राजीव की ऊर्जा केवल उद्योगों तक सीमित नहीं थी। ग्रामीण विकास कार्यक्रमों की जमीनी हकीकत को समझने के लिए उन्होंने अपना खासा समय ग्रामीण इलाकों का दौरा करने में बिताया। उन्होंने पाया कि प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार के चलते सरकारी योजनाओं को सही तरीके से अमल में नहीं लाया जा रहा है। राजीव इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार पर रोकथाम का एकमात्र उपाय स्थानीय निर्वाचित प्रतिनिधियों को सशक्त बनाना होगा। नतीजा रहा ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायती राज प्रणाली और शहरी इलाकों में स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा देने की दिशा में उठे कदम।’ राजीव गांधी भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक खुशनुमा हवा के झोंके के समान अवतरित हुए, लेकिन उनकी और खुद उनकी ‘मिस्टर क्लीन’ छवि पर ग्रहणरूपी बादलों को मंडराने में ज्यादा देर नहीं लगी। इन बादलों के उमड़ने के दो प्रमुख कारणों-शाहबानो प्रकरण और राम मंदिर के ताले खोले जाने पर विस्तार से चर्चा इस पुस्तक में की जा चुकी है। राजीव गांधी के निकटवर्ती रहे कई लोगों का मानना और कहना है कि राम मंदिर प्रकरण में सीधे राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं थी और उन्हें उनके करीबी सलाहकार और उनकी सरकार में मंत्री रहे अरुण नेहरू ने इस विषय पर अंधकार में रखा था। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव वजाहत हबीबुल्लाह के अनुसार राजीव को राम मंदिर प्रकरण के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी। हबीबुल्लाह ने इस बाबत फैजाबाद की अदालत का फैसला आने के बाद राजीव से जानना चाहा था कि क्या इस मुद्दे को लेकर ठीक तरीके से वैचारिक मंथन किया गया था, तो राजीव का स्पष्ट उत्तर था-‘किसी भी सरकार का यह काम नहीं है कि वह धार्मिक उपासना के मामलों में दखलअंदाजी करे। मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। अदालत का निर्णय आने और उसे लागू करने के बाद ही मुझे इस बाबत बताया गया था।’

वजाहत हबीबुल्लाह के अनुसार, राजीव गांधी को शक था कि सारा खेल अरुण नेहरू के इशारे पर रचा गया। नेहरू को राजीव ने नवम्बर, 1986 में अपने मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया था। आगे चलकर यही अरुण नेहरू राजीव गांधी के खिलाफ शुरू हुए राजनीतिक षड्यंत्रों की धुरी बनकर उभरे थे, लेकिन उस पर चर्चा से पहले बात राजीव के एक अति विश्वस्त सहयोगी की, जो राजीव के खिलाफ बगावत कर अंततः ‘मिस्टर क्लीन’ की छवि को धूल- धूसरित करने में कामयाब रहे। यह व्यक्ति थे, विश्वनाथ प्रताप सिंह उर्फ वी.पी. सिंह। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) जनपद के शहर सोराओ से 1969 में पहली बार विधायक निवार्चित होने वाले वी.पी. सिंह की गिनती नेहरू-गांधी परिवार के विश्वस्तों में की जाती थी। 1971 में फूलपुर संसदीय सीट से संसद सदस्य बने वी.पी. सिंह को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1974 में केंद्रीय उपवाणिज्य मंत्री बनाया था। 1976-77 में उन्हें इस मंत्रालय का कैबिनेट मंत्री बनाया गया। 1980 में कांग्रेस की केंद्रीय एवं उत्तर प्रदेश में सत्ता में वापसी के बाद वी.पी. सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री चुने गए थे। बतौर केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की छवि एक बेहद ईमानदार राजनेता के तौर पर उभरी थी। 1983 में उन्होंने उत्तर प्रदेश में दस्यु समस्या (डकैती) को समाप्त न कर पाने की नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए त्याग-पत्र दे दिया था, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का विश्वास वी.पी. सिंह पर बना रहा और वे एक बार फिर से केंद्रीय मंत्री बना दिए गए थे।

राजीव गांधी भी विश्वनाथ प्रताप सिंह पर खासा भरोसा करते थे। उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में वी.पी. सिंह को वित्तमंत्री बनाकर स्पष्ट संदेश देने का काम किया था कि वे पारदर्शिता के साथ सरकार चलाना चाहते हैं। वी.पी. सिंह से पहले वित्त मंत्रालय प्रणव मुखर्जी के पास था। राजीव गांधी प्रणव मुखर्जी को नापसंद करते थे। इंदिरा गांधी की मृत्यु के पश्चात् प्रधानमंत्री बने राजीव ने प्रणव मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में बनाए रखा था, लेकिन 1984 के अंत में हुए आम चुनाव के बाद गठित सरकार में मुखर्जी को शामिल नहीं किया गया था। तब बतौर वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी पर रिलायंस समूह को भारी लाभ पहुंचाने वाली नीतियों को लागू करने का आरोप विपक्षी नेता लगाया करते थे। वित्त मंत्रालय में वी.पी. सिंह की आमद के बाद रिलायंस समूह को खासी परेशानियों का सामना करना पड़ा।

1958 में एक टेªडिंग कम्पनी रिलायंस कमर्शियल कॉरपोरेशन की शुरुआत धीरूभाई अम्बानी ने की थी। एक बेहद सामान्य निम्न मध्यम वर्ग परिवार में जन्मे धीरूभाई के पिता गांव के एक स्कूल में शिक्षक थे। 10वीं तक शिक्षा प्राप्त करने वाले धीरूभाई 17 वर्ष की आयु में अरब प्रायद्वीप स्थिति यमन गणराज्य के शहर अदन में नौकरी करने चले गए थे। यहां एक फ्रांसीसी कम्पनी में बतौर क्लर्क आठ बरस तक काम करने के बाद वापस लौटकर उन्होंने 1500 रुपयों की पूंजी से रिलायंस कमर्शियल कॉरपोरेशन की नींव रखी। 1967 में रिलायंस टेक्स्टाइल्स नाम से उन्होंने कपड़े का कारोबार शुरू कर अपने व्यापार को आगे बढ़ाया। 70 के दशक में इस टेक्स्टाइल कम्पनी के जरिए धीरूभाई रेयान और नायलॉन के धागों को आयात करने और उनसे कपड़ा बनाकर उसे निर्यात करने वाले सबसे बडे़ व्यापारी बनकर उभरे। उनके आगे बढ़ने की गति बेहद तेज रही, जिसके चलते उनके प्रतिद्वंद्वी व्यापारियों द्वारा उन पर नाना प्रकार के आरोप लगाए जाते थे। धीरूभाई पर आरोप लगता था कि ‘वे सरकारी तंत्र को रिश्वत देकर आयात लाइसेंस पा लेते हैं और अपने प्रतिद्वंद्वियों को नुकसान पहुंचाने की नियत से सरकारी नीतियों तक को बदलवा देते हैं। 1982 में रिलायंस ने पॉलिस्टर धागा भारत में ही तैयार करने का निर्णय लिया था। डीएमटी (Dimethyl Terephthalate) नामक एक रासायनिक यौगिक (organic compound) को आयात कर उससे इस धागे को तैयार करने का औद्योगिक कारखाना रिलायंस ने स्थापित किया। तब इस क्षेत्र में रिलायंस की प्रतिद्वंद्वी कम्पनी ऑर्केे मिल्स हुआ करती थी। इस कम्पनी ने भी पॉलिस्टर धागे का निर्माण करने के लिए बड़ा कारखाना लगाया था। ओरके डीएमटी के बजाए एक अन्य ऑर्गेनिक कपाउंड, जिसे पॉलिएस्टर चिप्स (Polyester chips) कहा जाता है, के जरिए इस धागे का निर्माण करने जा रहा था। तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने उस वर्ष के बजट में पॉलिस्टर चिप्स पर आयात शुल्क बढ़ा दिया जिसको सीधा असर ऑर्के मिल्स द्वारा तैयार धागे की कीमत बढ़ने का रहा। रिलायंस द्वारा तैयार धागे की कम कीमत के चलते ऑर्के के बजाय रिलायंस के उत्पाद की डिमांड बढ़ गई। नवम्बर, 1982 में एक बार फिर से रिलायंस को फायदा पहुंचाते हुए केंद्र सरकार ने विदेशों से आयात किए जाने वाले पॉलिस्टर धागे पर आयात शुल्क बढ़ा दिया। ऐसा तब किया गया, जब रिलायंस के कारखाने ने पॉलिस्टर धागे का उत्पादन शुरू कर दिया था।’

इंदिरा गांधी सरकार में वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी और कई अन्य शक्तिशाली मंत्रियों और नौकरशाहों के साथ धीरूभाई की घनिष्ठता रिलायंस समूह को नाना प्रकार के फायदे पहुंचाने में खासी सहायक रही, लेकिन राजीव गांधी के सत्तासीन होने और विश्वनाथ प्रताप सिंह के वित्तमंत्री बनने के बाद हालात तेजी से बदल गए। वी.पी. सिंह ने रिलायंस समूह के खिलाफ मुहिम छेड़ दी। पॉलिस्टर धागा उत्पादकों को दी जाने वाली रियायतें समाप्त कर दी गईं और पॉलिस्टर आयात पर बढ़ाए गए आयात शुल्क को वापस ले लिया गया। इसका सीधा असर रिलायंस द्वारा निर्मित धागे का मूल्य बढ़ने का रहा, जिस कारण उसकी मांग कम होने लगी। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने रिलायंस समूह द्वारा राष्ट्रीयकृत बैंकों से लिए गए ऋणों में भारी हेरा-फेरी की आशंका व्यक्त करते हुए जांच शुरू कर दी। इस जांच के दौरान पाया गया कि केनरा बैंक ने रिलायंस समूह को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से भारी गोलमाल किया है। केनरा बैंक के तीन वरिष्ठ अधिकारियों को इसके चलते निलंबित कर दिया गया था। सीबीआई, डीआरआई (राजस्व खुफिया निदेशालय), ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) ने भी टैक्स चोरी, बैंक धोखाधड़ी और धन-शोधन के मामलों को लेकर रिलायंस के खिलाफ अपनी जांच शुरू कर धीरूभाई अम्बानी को चौतरफा घेरने का काम कर डाला। अंग्रेजी दैनिक ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने तो रोजाना नए खुलासे कर रिलायंस समूह की नींव हिला डाली थी।

क्रमशः

 

 

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