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पांच माह तक चली चुनावी प्रक्रिया

आधे से अधिक सीटों पर मतदान हो चुका है। इसी के साथ कई नेताओं का भविष्य ईवीएम में बंद हो गया है। जहां मतदान होना बाकी है, वहां उम्मीदवार अपने प्रचार में पसीना बहा रहे हैं। बड़े नेताओं के भाषण, रैलियां और चुनावी दौरे चरम पर हैं। देश की आम जनता भी पूरी तरह चुनावी मोड में है। देश भर में चुनाव को लेकर क्या चल रहा है, इस बारे में सड़कों, मुहल्लों आदि से ज्यादा लोग फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे माध्यमों से जान ले रहे हैं। अपने पसंदीदा नेेताओं के भाषण और साक्षात्कार आदि को भी सोशल मीडिया पर लोग देेख-सुन ले रहे हैं। लेकिन आजाद भारत में जब पहला आम चुनाव हुआ था तो नेताओं के साथ-साथ चुनाव आयोग की भी अग्नि परीक्षा हो रही थी। बहुत कम लोगों को पहले आम चुनाव के बारे में जानकारी होगी। पहली बार आम चुनाव कैसे हुए थे। पहला चुनाव कितने दिनों में हुआ। कितनी पार्टियों ने उसमें किस्मत आजमाई थी। इस तरह के कई सवाल लोगों के दिलो- दिमाग में हो सकते हैं। तो आइए, इस बार देश के पहले चुनाव से जुड़ी कुछ दिलचस्प घटनाओं को जानते हैं।
सन् 1950 में संविधान लागू होने के बाद 1951 में देश में पहली बार आम चुनाव हुआ। यह चुनाव 1952 तक चला। अक्टूबर 1951 में आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई। वह पांच महीने तक चली और फरवरी 1952 में खत्म हुई। ऐसे अधिकतर लोग पहले आम चुनाव को 1952 के चुनाव के रूप में ही जानते हैं, जबकि उस चुनाव की प्रक्रिया अक्टूबर 1951 में ही शुरू हो गई थी। पहली बार जब चुनाव हुए तो कुल 4500 सीटों के लिए वोट डाले गए। इनमें से 489 लोकसभा की और बाकी विधानसभा सीटें थीं।
वर्ष 1951 के आम चुनाव में 14 राष्ट्रीय पार्टीयों, 39 राज्य स्तर की पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों ने किस्मत आजमाई। इन सभी दलों के कुल 1874 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे थे। राष्ट्रीय पार्टियों में मुख्य तौर पर कांग्रेस, सीपीआई, भारतीय जनसंघ और बाबा साहेब अंबेडकर की पार्टी शामिल थी। इसके अलावा भी अकाली दल, फाॅरवर्ड ब्लाॅक जैसी पार्टियां चुनाव में शामिल हुई थी।
लोकसभा की 489 सीटों में से 364 कांग्रेस के खाते में गई थी, यानी जवाहर लाल नेहरू की अगुवाई में कांग्रेस को संपूर्ण बहुमत मिला था। कांग्रेस के बाद सीपीआई दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी जिसे 16 सीटें मिली, सोशलिस्ट पार्टी को 12 और 37 सीटों पर निर्दलियों ने जीत दर्ज की थी। भारतीय जनसंघ ने 94 सीटों पर चुनाव लड़ा और तीन ही सीटें जीती।
पहले चुनाव के दौरान कुल 17 करोड़ वोटर थे, लेकिन मतदान सिर्फ 44 फीसदी ही हुआ था। चुने गए 489 सांसदों में से 391 सामान्य, 72 एससी और 26 एसटी से थे। तब मतदाता की उम्र भी 18 साल नहीं थी, 21 साल से ऊपर के लोगों को ही वोट देने का अधिकार था।
पहले चुनाव के समय सुकुमार सेन देश के पहले चुनाव आयुक्त थे, चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग को भी काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। तब ईवीएम को लेकर लड़ाई नहीं होती थी, क्योंकि ठप्पा लगाने के लिए कोई दूसरा आॅप्शन ही नहीं था और बैलेट पेपर से मतदान होता था। पहले चुनाव में ढाई लाख मतदान केंद्र बने, साढ़े सात लाख बैलेट बाॅक्स बनाए गए, तीन लाख से ज्यादा स्याही के पैकटों का इस्तेमाल हुआ। इतना ही नहीं चुनाव आयोग को करीब 16000 लोगों को अनुबंध के तहत 6 महीने काम पर लगाना पड़ा। तब देश की साक्षरता काफी कम थी, इसलिए आयोग की तरफ से गांव-गांव में नुक्कड़ नाटक करवाकर लोगों को वोट डालने के लिए कहा गया।
  • सबसे पहला वोट हिमाचल की छिनी तहसील में पड़ा, दिन था 25, अक्टूबर 1951।
  • फरवरी 1952 में चुनाव खत्म हुए।
  • जवाहरलाल नेहरू उत्तर प्रदेश की फूलपुर सीट से भारी मतों से जीते। लेकिन उनसे भी ज्यादा मतों से जीतने वाले उम्मीदवार थे सीपीआई के रवि नारायण रेड्डी।
  • आचार्य कृपलानी फैजाबाद से हार गए।
  • भीमराव अंबेडकर बाॅम्बे की रिजर्व सीट पर एक छोटे से कांग्रेसी उमीदवार से हार गए। वे 1954 में भंडारा (महाराष्ट्र) में हुए उपचुनाव में भी हार गए। संसद में उन्होंने राज्यसभा से एंट्री की।
 
पहले चुनाव आयोग की जीवटता
भारत के गणतंत्र बनने के एक दिन पहले चुनाव आयोग का गठन हुआ था। सुकुमार सेन पहले मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किए गए। सेन बेहद काबिल आईसीएस अधिकारी के अलावा गणित के विद्वान थे। उन्होंने नेहरू की जल्दबाजी की आदत को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। जवाहर लाल नेहरू 1951 की शुरुआत में ही चुनाव चाहते थे। आजादी के बाद पहला चुनाव था। आजादी के पहले ब्रिटिश हिंदुस्तान के 11 प्रांतों में चुनाव होता था। रियासतों की जनता तब तक चुनाव प्रक्रिया से महरूम थी। एकीकरण के बाद यह उसके लिए पहला अवसर था। इस पहले चुनावी दंगल का दायरा एक लाख वर्ग मील में फैला हुआ था। तब देश की कुल 36 करोड़ आबादी में से लगभग साढ़े 17 करोड़ लोग बालिग थे। लगभग 4500 सीटों के लिए चुनाव होने थे जिनमें लोकसभा की 489 थी और अन्य राज्य विधानसभाओं की।
इस पहले चुनाव में तो तजुर्बेकार अंग्रेज भी नहीं थे। लेकिन सुकुमार सेन और उनके साथी अधिकारियों का ही जीवट था कि इस पूरी प्रक्रिया को बेहद ईमानदार तरीके से अंजाम दिया। समस्याओं से निपटने के लिए कुछ बेहद दिलचस्प तरीके ईजाद किये गये। जहां ज्यादातर लोग पढ़ नहीं पाते थे वहां पार्टी नाम की जगह चुनाव चिन्ह दिए गए। लोगों की सुविधा के लिए पोलिंग बूथ पर हर पार्टी के चुनाव चिन्ह वाला बैलेट बाॅक्स रखा गया।
रामचंद्र गुहा अपनी पुस्तक में लिखते हैं, ‘एक समस्या इस बात की भी थी कि जनगणना के वक्त तब अशिक्षित महिलाएं अपना नाम ‘फलां की मां’ या ‘फलां की पत्नी’ ही बताती थीं। इस कारण मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने निर्णय लिया कि ऐसी कुल 28 लाख महिलाओं के नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए जाएं और अगले चुनावों तक इस समस्या से निजात पायी जाए। चुनावों की प्रक्रिया को समझाने और चुनाव होने की खबर देने के लिए आयोग ने रेडियो और फिल्मों का सहारा लिया।

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