हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक प्रो. नामवर सिंह के निधन से साहित्य का एक ऐसा कोना सूना हो गया जो कभी नहीं भर सकता। ‘वाद-विवाद-संवाद’ के पैरोकार को अब सुना नहीं जा सकेगा। साहित्यिक-गोष्ठियों की कुर्सियां इसलिए नहीं भरी रहेंगी कि अभी नामवर को बोलना है। उनके भाषण से पहले और भाषण के बाद जो हलचल और कौतूहल पैदा होता रहा, वह अब कभी नहीं हो सकेगा। अपने ‘समय का सूर्य’ सदा के लिए अस्त हो गया। नामवर सिंह ने उन्नीस फरवरी 2019 को लंबी बीमारी के बाद एम्स में अंतिम सांस ली। रह गई हैं अब उनकी यादें। उनकी बातें। उनके विचार, जिसे सदियों तक मथा जाता रहेगा और उससे निष्कर्ष निकालने का श्रमसाध्य उपक्रम जारी रहेगा।
प्रो ़ नामवर सिंह किसी नाम से मोहताज नहीं रहे। अपने जीते-जी उन्होंने साहित्य की दुनिया में जो मुकाम हासिल किया वह बहुत कम को नसीब हो पाता है। उन्होंने पिछले छह दशकों से हिंदी आलोचना की दुनिया में एकछत्र राज किया। उन्हें चुनौती देने की बात तो दूर, उनके आस-पास टिके रहने का साहस भी किसी के नहीं किया। उनके ज्ञान के आगे उनके प्रशंसक-विरोधी नतमस्तक रहे। उन्हें सुनने और उस सुने को गुनने में ही अपनी भलाई देखी।
नामवर सिंह की बौद्धिक जगत में सर्व-स्वीकार्यता किसी को भी चकित कर सकती है। उनका किसी सभा गोष्ठी में शामिल होना ही किसी खबर से कम न था। देश-विदेश में हजारों गोष्ठियों-सभाओं को संबोधित करने वाले नामवर से शायद ही कोई ऐसा विषय अछूता रहा हो जिस पर ‘वाद-विवाद- संवाद’ न हुआ हो। मंच पर कहे गए उनके वाक्य सुर्खियों में तब्दील होते रहे। बौद्धिक जगत में नामवर का कद निरंतर बढ़ता गया। एक बार जब वे बोलने के लिए उठ खड़े होते समूचे हॉल में खामोशी पसर जाती। रह जाता तो उनका रौबदार व्यक्तित्व। खनकदार आवाज, गहरे निष्कर्ष।
उदयपुर कॉलेज से शुरुआती शिक्षा प्राप्त करने के बाद नामवर सिंह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र बने और उन्हें गुरु मिले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। उन्हीं के निर्देशन में उन्होंने पीएचडी पूरी की और फिर उसी विश्वविद्यालय में अध्यापन शुरू किया। लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था। वे 1959 में सीपीआई के टिकट से चुनाव में कूदे और हारे। फिर विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें बाहर का रास्ता भी दिखा दिया। संघर्ष के उन दिनों में नामवर कभी दयनीय नहीं दिखे बल्कि उनमें ओज और प्रभावी होता गया। सागर विश्वविद्यालय, जोधपुर विश्वविद्यालय से हटाये जाने के बाद उन्हें ठौर मिला जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में। उन्हें वहां भारतीय भाषा केंद्र को स्थापित करने के साथ-साथ प्रोफेसरी का पद भी मिला। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की कक्षाओं में नामवर का स्वर गूंजने लगा। छात्रों को नामवर सिंह के रूप में एक ऐसा प्राध्यापक मिला जिसने ज्ञान की कठोर भूमि को न केवल उर्वरा बना दिया था बल्कि उसे सहजता से ग्रहण करने की तमीज भी विकसित कर दी। कहते हैं दूसरे विषय के छात्र भी अपने विषय की कक्षाएं छोड़कर नामवर सिंह को सुनने के लिए लालयित रहते थे। बेंच में बैठने की जगह न भी मिले तो कोई गरज नहीं, जमीन पर बैठकर, खिड़की से अपने कान सटा कर उनकी बातों को सुनते थे। आज उनके पढ़ाए गए सैकड़ों छात्र देश के तमाम विश्वविद्यालयों में नामवरियत की मिसाल पेश कर रहे हैं।
हिंदी आलोचना पर नामवर सिंह का प्रभाव कुछ इस तरह से रेखांकित किया जाता है मानो उनके बनाए प्रतिमान किसी के लिए मापदंड हों। उनसे आगे जाने की बात तो दूर, उनके आस- पास ठहरना भी किसी के लिए गर्व का विषय हो सकता है। नामवर ने जितना अस्वीकार का साहस दिखाया है पिछले सात-छह दशकों में वह दुर्लभ है। साहित्य आलोचना में उनकी सक्रियता ने गहरा असर छोड़ा है। साहित्य के मूल्यांकन में उन्होंने कभी मुंह दिखाई न की। रचना के प्रति सहृदय रहे लेकिन रचनाकारों के प्रति कभी उदार नहीं रहे। साहित्य की कसौटी में पहले कसकर परखा और फिर निष्कर्ष निकाला। इसी वजह से उन्होंने जितने प्रशंसक बनाए, उतनी ही संख्या में विरोधियों की भी एक लंबी कतार तैयार की। उनसे चाहे लाख कोई असहमति रखे लेकिन उनकी मेधा का लोहा हर किसी ने माना।
नामवर सिंह के पढ़ाकू स्वभाव के कारण ही उन्हें किसी ने ‘पुस्तक पकी आंखें’ कहा तो किसी ने ‘पुस्तक भक्षी’। प्रोफेसर नामवर सिंह की स्मृति का हर कोई कायल था। उनकी स्मृति का ही कमाल था कि किसी भी विषय या मुद्दे पर अचूक उदाहरण के माध्यम से अकाट्य तर्क गढ़ दिया करते थे जिसे मान लेने के आलवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बच पाता था। उन पर अनेक आरोप मढ़े गए लेकिन नामवर आरोपों से कहां विचलित होने वाले थे। सही वक्त आने पर अपने ऊपर लगे आरोपों का सटीक जवाब भी दिया। नामवर सिंह ने हिंदी आलोचना को दुरूहता की परिधि से बाहर निकालकर उसमें रचना-सी ताजगी प्रदान की। हिंदी आलोचना को आधुनिकता के साये में सींचा। आलोचना के घिसे-पिटे औजारों को खारिज कर नए औजार विकसित किए। हिंदी साहित्य में अपभ्रंश का योगदान, इतिहास और आलोचना, छायावाद, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां, कविता के नये प्रतिमान और दूसरी परम्परा की खोज जैसी नायाब पुस्तक के लेखक नामवर सिंह की अंतिम यात्रा एक मुकम्मल यात्रा है। जिनके बौद्धिक ताप को साहित्य जगत लंबे समय तक महसूस करेगा।