विमल सती
स्वतंत्र पत्रकार
जुनून मन की वह उर्जा है जो राह में आने वाले हर संघर्ष को घुटने टेकने पर मजबूर कर देती है।ऐसे ही एक जुनून ने मोहम्मद इदरीश को फुटबाॅल का “बाबा” बना दिया। एक अजब बेताबी,एक बेचैनी हर एक के भीतर मौजूद रहती है परन्तु कोई इसे अपने शौक में तब्दील कर फकत बाबा बन युवाओं की जिंदगी सवांरने में अपना सर्वस्व लगा दे वह इदरीश बाबा ही हो सकते हैं। पांच दशक से फुटबाल का पर्याय बने रहे बाबा आज सुपुर्दे खा़क हो गए।
साठ-सत्तर के दशक में द्युलीखेत स्थित स्व०देव सिंह भैसोडा़ और स्व०दुर्गा दत्त भट्ट के भवनों के मध्य सड़क किनारे जूते गांठने का कार्य करता युवा इदरीश एक दिन जूते सी ते -सीते खुद की जिंदगी को फुटबाॅल के संग सी लेगा ये उसके खास शागिर्दों ने भी सपने में भी नहीं सोचा था,लेकिन ये एक जुनून ही था जो खुद को तो भीतर से तराशता ही दूसरों को तराशने की भी प्रेरणा देता है।
सड़क किनारे लोहे की रांपी पर जूता रखकर ठोकते तो कभी चप्पलों पर धागे टांकते इदरीश की फुटबाॅल के खेल की ओर मुड़ने की भी अलग कहानी है।इदरीश के पास अकसर फौजी स्टड (फुटबाॅल शूज़)की मरम्मत के लिए आया करते थे,तब चमडे़ के इन फुटबाॅल जूतों को आम बोली में गटांम कहते थे,इदरीश इनके तले की गिट्टिक ठोकते -ठोकते अकसर यह सोचते कि आखिर इनसे खेला कैसे जाता होगा।कभी वह इनको चुपचाप पहनकर खडे़ होकर एक खिलाडी़ होने का अहसास पाते तो कभी फौजियों से उत्सुकतावश फुटबाॅल पर चर्चा भी कर लेते।बाद में इदरीश को सेना में जूतासा़जी का सेवाकार्य भी मिला जिसे उन्होंने थोडे़ वक्त तक किया।कुछ वक्त बाद फुटबाॅल के शौकीन लड़के भी फुटबॉल की मरम्मत के लिए उनके पास जुटने लगे,बस..यहीं से इदरीश में फुटबाॅल के प्रति अनुराग जगने लगा। जूते गांठते इदरीश ने बहुत जल्दी लड़कों से दोस्ती गांठ ली,अब वह अकसर मैदान पर दिखने लगे।इदरीश को देखकर लगता कि वो फुटबाल के लिए ही बने हैं,क्योंकि पैरों से फुटबाॅल की दोस्ती कुछ ऐसी हो गई थी कि कुछ दिनों में वो अन्य खिलाडि़यों को बताने लगे थे कि दूसरे खिलाडि़यों को कैसे छकाना हैऔर मौकों को कैसे गोल में बदलना है। उनकी रणनीति दूसरी टीमों पर भारी पड़ने लगी।1970में इदरीश ने युवा खिलाडि़यों को जोड़कर ऐरो क्लब की स्थापना की और उसे अपने कौशल और खिलाडि़यों के परिश्रम से इलाके की सिरमौर टीम बना दिया।ये इदरीश का त्याग और परिश्रम ही था कि उन्होंने एक ऐसी फुटबाॅल टीम बनाई जो बहुत जल्दी ही राज्य की उम्दा टीमों में शुमार हो गई।
फुटबाॅल के प्रति हद दर्जे की दीवानगी ने इदरीश में घरबार, विवाह के प्रति विछोह पैदा कर दिया उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह फुटबाॅल को समर्पित कर दिया इस फकतपन के कारण उन्हें साथी “बाबा” कहकर संबोधित करने लगे। 1980-90के दशक में “बाबा”फुटबाॅल की कहानी के ऐसे नायक बन गए जिसमें हार न मानने की जिद अंतस में स्थायी रूप से भरी थी।ये उनका निस्वार्थ त्याग ही था कि उन्होंने अनेकों युवाओं को राज्य, देश व सेना की टीमों में चमकने का अवसर दिया।ऐसे खिलाडि़यों की लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने “बाबा”की बदौलत अपना कॅरियर संवारा और राज्य और शहर का नाम रोशन किया है। “खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब..पढो़गे लिखोगे बनोगे नवाब”वाले दौर में “बाबा” ने युवकों के जीवन में बदलाव लाते हुए बताया कि फुटबाॅल में भी कामयाबी और तरक्की के अवसर हैं।
“बाबा”और उनकी ऐरो क्लब टीम ने चार दशक तक अपने शानदार खेल से राज्य के विभिन्न शहरों में होने वाले छोटे-बडे़ टूर्नामेंट्स में प्रतिभाग करते हुए जबर्दस्त धूम मचायी। “बाबा” रानीखेत में फुटबाॅल का बडा़ आयोजन करने की हसरत कब से दबाए बैठे थेऔर आखिर यह हसरत 1993 में पूरी हुई जब बाबा ने 43साल से बंद रानीखेत कप को स्व.गौरी लाल साह की अंधेरी कोठरी से ढूंढ निकाला।पहले रानीखेत कप राज्य स्तरीय टूर्नामेंट 1946से1949तक आयोजित होकर बंद हो चुका था।स्व.गौरी लाल साह के भाई नवीन साह और जगदीश साह ने यह कप बाबा को सौंप दिया और 1993में बाबा ने रानीखेत फुटबाल संघ के बैनर पर रानीखेत कप राज्य फुटबाॅल टूर्नामेंट की शानदार शुरूआत करायी।बाबा की बदौलत रानीखेत में फुटबाॅल खिलाडि़यों की वर्ष दर वर्ष खेप तैयार होती गई,मैदान के अभाव के बावजूद बाबा ही थे जिन्होंने फुटबाॅल के खेल को जीवित रखा।इन वर्षों में हमने खेल मैदान के अभाव के बीच फुटबाॅल खेल,खिलाडी़, और उनका हौसला बढा़ते,अपनी उम्र की परछाई को पछाड़ते – दौड़ते बाबा को देखा,नहीं दिखे तो सम्मान के लिए बढे़ वो हाथ जो क्षेत्र के बच्चों को खिलाडी़ बनाने का एकमेव लक्ष्य लेकर चले बाबा की पीठ सहला सके।सच बाबा तुम यूं ही चले गए,अपना सबकुछ देकर बिना किसी ताज के, मेरे बे-ताज फुटबाॅल कोच।
(लेखक “प्रकृत लोक” पत्रिका के सम्पादक हैं)