दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ में समाचार प्रकाशित करा पाने में विफल रहे विभूति नारायण राय ने साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘चौथी दुनिया’ से सम्पर्क साधा, तब कहीं जाकर हाशिमपुरा का सच सामने आ पाया था। ‘चौथी दुनिया’ के पत्रकार वीरेन्द्र सेंगर ने इस प्रकरण की गहरी छानबीन की थी। बकौल सेंगर-मेरठ/नई दिल्ली/ 25 मई (1981) की वह दोपहर आज भी याद है। इसी दिन मोहन नगर (गाजियाबाद) के अस्पताल में जुनैद (बदला हुआ नाम) से मिला था। उसे भी पैर में गोली लगी थी। वह बेहद डरा हुआ था। मौत का खौफ उसकी आंखों में साफ नजर आ रहा था। उसके मुंह से बोल नहीं निकल रहे थे। कुछ पूछने पर वह हाथ जोड़ लेता। उसे लग रहा था कि हम लोग भी हत्यारी टोली में पीएसी वाले ही हैं। सादे भेष में उसे पकड़ने आए हैं। वह बार-बार कहते, बच्चे छोटे हैं। मुझे अब न मरना। अल्लाह ने ही मुझे बचाया था। अब न मारो। वह कातर स्वर में बोले जा रहा था। करीब दस मिनट लगे, जब उसे समझा पाया कि हम पुलिसवाले नहीं हैं, पत्रकार हैं। मेरे साथ छायाकार मित्र अभय शर्मा थे। वे फोटो बनाते रहे।
जुनैद आश्वस्त हुआ, तो उसने खौफनाक मंजर बताना शुरू किया। 36 साल बाद याददाश्त के सहारे ही इस वाक्ये को याद कर रहा हूं। चार दशक की पत्रकारिता में मैंने इतना पुलिसिया बर्बर जनसंहार अब तक नहीं देखा है। जुनैद कातर स्वर में बताता रहा, सर जी! 22 मई का मामला है। मैं हाशिमपुरा (मेरठ) का रहने वाला हूं। साइकिल पंचर की दुकान है। दंगे शुरू हुए थे। हम सब अपने दड़बो में दुबके थे। देर शाम को पीएसी के भेष में राइफलधारी जवान आए। उन्होंने घर-घर जाकर दस्तक दी। सभी मर्दों-बच्चों को बाहर निकाल खूब गालियां दीं। डंडे भी बरसाए। एक घंटे के अन्दर करीब 65 लोगों को पास के मैदान में बैठाया। इस बीच स्यापा करती हुई कुछ हमारी महिलाएं भी आ गई थीं। पीएसी के अफसर गाली बके जा रहे थे। कुछ देर बाद पीएसी वालों ने 15 साल से कम उम्र वाले लडकों और महिलाओं को भगा दिया।
इसके बाद दो ट्रकों में 54-55 लोगों को लाद लिया गया। कहा गया कि कोतवाली में पूछताछ के बाद उन्हें छोड़ दिया जाएगा। एक-दो ने सवाल करने की हिम्मत की, तो बुरी तरह पीटा गया। शाम गहराने लगी, तो दोनों पीएसी के ट्रक गाजियाबाद की तरफ चल पड़े। करीब 40 मिनट बाद एक ट्रक मुरादनगर के पास गंगनहर पर रोक लिया गया। सबको उतारा गया। हम लोग दूसरे ट्रक में थे। कुछ देर बाद ही दनादन गोलियों की आवाज आने लगी। लोगों की चीत्कार आ रही थी। हम सब सहमे थे। इस बीच एक पुलिसवाले ने जोर से कहा, आप आगे बढ़ो। इन सालों को हिंडन नदी में ठोकते हैं। हमारी बोलती बन्द थी। कुछ देर बाद ट्रक हिंडन नदी (इंदिरापुरम) के पास रुका। पांच-पांच को एक साथ हाथ में बांधा गया। फिर सिपाही फायर झोंक देते। मैं बदहवास था। गोली लग चुकी थी। जान बचाने के लिए मैंने सांस रोक ली। एक पीएसी वाले ने जोर से कहा, ‘ये भी साला 72 हूरों के पास चला गया।’
यानी उन्होंने मुझे मृत मान लिया। मैं रात खुद दर्द में टीसता रहा। डर से चिल्ला भी नहीं पा रहा था। फिर तीन-चार पुलिसवाले आए। उन्होंने ट्रक में लादकर यहां भर्ती करा दिया। जुनैद रोए जा रहा था। उसका सवाल था, साहब हमारा कुसूर क्या था? किसी ने नहीं बचाया। क्या यही कि हम गरीब हैं? मुसलमान हैं और अल्लाह के नेक बंदे हैं? मेरे पास उसके तलवारी सवालों का कोई सीधा जवाब नहीं था।
मोहन नगर के बाद एक सूत्र के हवाले से मुरादनगर में गंगनहर के उस बर्बरता स्थल पर पहुंचे। इसके बाद मुरादनगर के पास एक गांव में चुपके से इलाज कराते मोहम्मद हुसैन (बदला हुआ नाम) से मिले। मुरादनगर के एक-एक हकीम साहब की मदद से उसे शरण मिली थी। उसे गंगनहर के किनारे गोली लगी थी। उसने बताया कि सबको लाइन में खड़ा किया गया था। करीब 30 लोग रहे होंगे। उसके बाद ‘वंदेमातरम’ के नारे लगवाए गए। इसके बाद आठ-दस सिपाहियों ने अन्धाधुन्ध गोलियां चला दीं। सबको बहती हुई नहर में फेंका गया। करीब तीन किलोमीटर मैं भी बहता गया। होश लौटा, तो नहर के किनारे पड़ा था। कुछ चरवाहों ने देखा, तो मुझे बाहर निकाला गया। किसी तरह छिपते-छिपाते यहां हकीम जी ने शरण दी।
करीब 20 घंटे तक मैं अभय शर्मा के खटारा स्कूटर से गंगनहर की खाक छानता रहा। इस पूरे मामले में गाजियाबाद के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण की भूमिका ‘देवदूत’ के समान रही थी। तमाम शासकीय प्रतिरोध को नकारते हुए उन्होंने वह काम किया, जो किसी सामान्य पुलिस अफसर से अपेक्षित नहीं था। मैं उन दिनों ‘चौथी दुनिया’ अखबार में था। राजनीतिक खुलासों के लिए अखबार चर्चित था। मैं इसका स्टार रिपोर्टर माना जाता था। सो सम्पादक सन्तोष भारती, सह-सम्पादक रामकृपाल सिंह और कमर अहमद नकवी ने यह असाइनमेंट मुझे ही दिया था।
विभूति जी से मेरा पहला परिचय था। वे सन्तोष जी के मित्र थे। इसके पहले एक दो-बार दफ्तर भी आए थे। मामला परम गोपनीयता का था। यूपी शासन के तमाम दबाव के बावजूद मैंने कभी विभूति का नाम नहीं लिया था, लेकिन जब विभूति जी ने अपनी किताब में खुद हमारा जिक्र खुलकर कर दिया, तो मैं भी सूत्र की गोपनीयता के दायरे से मुक्त हुआ।
इस मामले में पीयूसीएल (मानवाधिकार संगठन) की एक जन अदालत जांच के लिए बैठाई थी। इसमें हाईकोर्ट के रिटायर जज भी थे। इनके सामने मेरी गवाही भी हुई थी। ‘चौथी दुनिया’ की खबर से तहलका मच गया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह बहुत खफा थे। कुछ दिन बाद ही यूपी निवास पर मेरी उनसे मुलाकात हुई थी। वे नाराज जरूर थे, लेकिन उन्होंने चाय पिलाई। समोसे खिलवाए। यही कहा कि यार तुमने तो पत्रकारिता कर ली। मेरा मुख्यमंत्री पद खतरे में डाल दिया। ठाकुर हो, लेकिन बिरादरी धर्म नहीं निभाते। पत्रकारिता में कैसे बहुत आगे जाओगे मैं मुस्कराता रहा। उन्होंने सन्तोष जी से शिकायत की थी, लेकिन सन्तोष जी, रामकृपाल जी मेरे रक्षाकवच बने रहे।
हाशिमपुरा काण्ड में करीब 50 लोग मारे गए थे। इसके अगले दिन (23 मई, 1987) को पीएसी और पुलिस ने मलियाना की मुस्लिम बस्ती में हाशिमपुरा से भी बर्बर गोलीकाण्ड किया था। पुलिस कस्टडी में लाए गए 22 मुसलमानों को उड़ा दिया गया था। फिर दो पुलिस अधीक्षक रैंक के अधिकारियों के नेतृत्व में चार घंटे तक बर्बरता चली। दौड़ा-दौड़ाकर लोगों को गोली मारी गई। पुलिस रिकॉर्ड में ही 68 लोग मारे गए थे।
विभूति नारायण राय और वीरेन्द्र सेंगर की बदौलत यह जघन्य अपराध सामने तो आया, लेकिन भारतीय सत्ता-व्यवस्था में गहरी पैठ बना चुकी साम्प्रदायिकता ने इसके दोषियों को हर स्तर पर, हर तरीके से संरक्षित करने का काम किया जिसका नतीजा रहा 28 बरस तक चली अदालती कार्यवाही के बाद 21 मार्च, 2015 को इस नरसंहार में आरोपी बनाए गए सभी 16 पीएसी कर्मियों की रिहाई। 31 अक्टूबर, 2018 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए इन सभी दोषी पुलिसकर्मियों को आजीवन कारवास की सजा सुनाई, लेकिन इसे अधूरा न्याय ही कहा जाएगा। नरसंहार की साजिश रचने वाले भारतीय सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी और पीएसी के वरिष्ठ अफसरों को पुलिस जांच में आरोपी ही नहीं बनाया गया था।
1987 अभी धार्मिक कट्टरपन्थ के कुछ और नमूने दिखाने को आतुर था। हाशिमपुरा नरसंहार से खासे व्यथित राजीव गांधी ने इस काण्ड के चश्मदीदों को केन्द्रीय सुरक्षा उपलब्ध कराकर देश को आश्वस्त करने का प्रयास किया था कि मुल्क का निजाम संविधान के अनुसार अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए वचनबद्ध है। अभी इस काण्ड की गूंज थमी नहीं थी कि राजस्थान के सीकर जिले में घटी एक घटना ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर समूचे देश को शर्मसार करने का काम कर दिखाया। 4 सितम्बर, 1987 को सीकर के गांव दिवकाला में 18 वर्ष की एक नवयुवती रूपकंवर ‘सती’ हो गई। इस कुप्रथा को ब्रिटिश भारत में 1829 में ही कानून बनाकर प्रतिबन्धित कर दिया गया, लेकिन इस पर पूरी तरह रोकथाम में बरसों लग गए थे। आजाद भारत में 21वीं शताब्दी की तरफ कदम बढ़ा रहा राष्ट्र का रुपकंवर काण्ड बेहद शर्मिंदगी का बायस बन उठा। भारत एक बार फिर से कट्टर हिन्दुत्व की राह इस दौर में पकड़ने लगा था। राजीव सरकार की एक के बाद एक भूलों ने दक्षिणपन्थी ताकतों को बैठे-बैठाए ऐसी खाद्य सामग्री उपलब्ध करा दी थी, जिसकी बिना पर उसे अपना लक्ष्य साधने के लिए उपजाऊ जमीन तैयार करने में आसानी हो चली थी। रूपकंवर प्रकरण इसी उग्र हिन्दुत्व की पैदाइश था, जिसे तब प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन और संरक्षण देने का काम सभी राजनीतिक दलों ने किया था। यद्यपि तत्कालीन राजस्थान सरकार ने देशभर में भारी आलोचना के दबाव में आकर अक्टूबर, 1987 में विधानसभा में एक कानून पारित कराया, जिसमें किसी विधवा को सती होने के लिए दबाव बनाने वालों को फांसी अथवा उम्रकैद का प्रावधान है, लेकिन तत्कालीन समय में खुलकर कोई भी राजनेता इस प्रकरण में बोलने से बचता रहा था। भाजपा नेता वसुंधरा राजे सिन्धिया ने तो इस काण्ड का समर्थन करते हुए इसे भारतीय संस्कृति का हिस्सा बताते हुए कुतर्क दिया था कि यह सभी हिन्दू विवाहित महिलाओं का मौलिक अधिकार है कि यदि वे चाहती हैं, तो उन्हें सती होने दिया जाए।
18 बरस की इस युवती रुपकंवर को उसके मृत पति के साथ जिन्दा जलाए जाने के जघन्य अपराध में 32 लोगों को गिरफ्रतार किया गया था। भारतीय न्याय व्यवस्था की त्रासदी का आलम यह है कि इन सभी को सीकर की जिला न्यायालय ने 1996 में बरी कर दिया। मामला 36 बरस बाद भी राजस्थान उच्च न्यायालय में घिसट रहा है। आरोपियों में शामिल प्रताप सिंह खाचरियावाल कांग्रेस की सरकार में मंत्री बने और एक अन्य आरोपी राजेन्द्र सिंह राठौड को भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार में मंत्री बनाकर ‘पुरस्कृत’ किया गया। रूपकंवर का एक मन्दिर दिवकाला गांव में बनाया गया है, जहां सती जैसी कलंकित प्रथा की बलि चढी रूपकंवर को देवी मानकर महिमामण्डित किया जाता है। रूपकंवर का भाई गोपाल राठौड पूरी निर्लज्जता से अपनी बहन की हत्या को जायज ठहराता है-‘हमारे लिए रूपकंवर देवी मां के समान हैं और बेहद आदरणीय हैं। आज भी हर साल जल झूलनी एकादशी को दिवराला में सती मेला लगता है-आस-पास के लोगों में सती के प्रति आस्था है।
राजीव गांधी सरकार से त्याग-पत्र देने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस के विरोधी दलों की धुरी बनकर उभरने लगे थे। जुलाई, 1987 में उन्हें कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया था। तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मध्य इस दौरान सम्बन्ध बेहद खराब और तनावपूर्ण हो चले थे। ज्ञानी जैल सिंह राजीव द्वारा अपनी कथित उपेक्षा और अनादर से इस कदर आक्रोशित थे कि उन्होंने प्रधानमंत्री को बर्खास्त करने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह को कांग्रेस से निष्कासित किए जाने के बाद उनके साथ आ जुड़े कई अन्य निष्कासित कांग्रेसियों ने ज्ञानी जैल सिंह को उकसाया कि वे भ्रष्टाचार के मामलों को आधार बनाकर राजीव गांधी को हटा वी.पी. सिंह को नया प्रधानमंत्री नियुक्त कर दें। हालांकि अपनी जीवनी में ज्ञानी जैल सिंह ने ऐसे सभी आरोपों को नकारा है, लेकिन उस दौरान समाचार-पत्रों में खुलकर ऐसी सम्भावना पर चर्चा होने लगी थी। स्वयं वी.पी. सिंह ने स्वीकारा था कि ज्ञानी जैल सिंह राजीव को बर्खास्त कर उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए आतुर हो उठे थे। राष्ट्रपति से इस सन्दर्भ में हुई अपनी मुलाकात का जिक्र करते हुए वी.पी. सिंह ने बाद में कहा था-
हम राष्ट्रपति भवन के किसी भी कक्ष में नहीं बैठे। जैल सिंह के अनुसार सभी कमरों में जासूसी उपकरण लगे हुए थे, हमने बाहर राष्ट्रपति भवन के गार्डन में बातचीत की। उन्होंने कहा, आप मान नहीं रहे हैं। आपको प्रधानमंत्री पद स्वीकार कर लेना चाहिए। मैं राजीव को बर्खास्त कर आपको शपथ दिला दूंगा। मैंने उत्तर दिया, ज्ञानी जी, मैं ऐसा नहीं कर सकता हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि ऐसा करना गलत होगा, मेरी अंतरात्मा इसकी इजाजत नहीं दे रही है। यह प्रकरण यहीं समाप्त हो गया, उन्होंने फिर कभी मुझसे इस बाबत कोई चर्चा नहीं की।