केदारनाथ सीट पर हुए उपचुनाव ने एक बार फिर प्रदेश की राजनीति को चौंकाने का काम किया है। विगत तीन विधानसभा चुनावों में निर्दलीयों को मतदाताओं द्वारा भरपूर समर्थन मिलता रहा है जो 2024 के उपचुनाव में भी देखने को मिला है। भाजपा-कांग्रेस जैसी राजनीतिक ताकत और संसाधनों से भरपूर राष्ट्रीय दलों के खिलाफ मतदाताओं ने त्रिभुवन चौहान को तीसरे स्थान पर पहुंचा कर साफ संदेश दिया है कि बगैर संगठन और संसाधनों के भी स्थानीय मुद्दों की बात करने वाले उम्मीदवार के लिए संभावनाएं खत्म नहीं हुई हैं
बदरीनाथ और मंगलौर सीट हारने के बाद भाजपा को केदारनाथ उपचुनाव में बड़ी राहत मिली है तो वहीं कांग्रेस उम्मीदवार मनोज रावत 5622 मतों से चुनाव हार गए, जबकि निर्दलीय उम्मीदवार त्रिभुवन चौहान 9311 मत पाकर तीसरे स्थान पर रहे।
केदारनाथ सीट पर हुए उपचुनाव ने एक बार फिर प्रदेश की राजनीति को चौंकाने का काम किया है। विगत तीन विधानसभा चुनावों में निर्दलीयों को मतदाताओं द्वारा भरपूर समर्थन मिलता रहा है जो केदारनाथ उपचुनाव में भी देखने को मिला है। इस चुनाव में मतदाताओं ने त्रिभुवन चौहान को वोट देकर तीसरे स्थान पर पहुंचाकर साफ संदेश दिया है कि बगैर संगठन और संसाधनों के भी स्थानीय मुद्दों की बात करने वाले उम्मीदवार के लिए संभावनाएं खत्म नहीं हुई हैं।
केदारघाटी के देवर गांव में शिक्षक परिवार में जन्मे त्रिभुवन चौहान इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। दिल्ली और अन्य महानगरों में नौकरी करने के बाद कोरोना महामारी से कुछ ही समय पूर्व त्रिभुवन मीडिया क्षेत्र में उतरे और ‘लोकार्पण’ यूटयूब चैनल के नाम से अपना पोर्टल बनाकर प्रदेश के सामाजिक सरोकारों के मुद्दों पर काम करना आरम्भ किया। अपने ‘लोकापर्ण’ चैनल के माध्यम से प्रदेश के दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी, युवा तथा किसानों की समस्या पर अनेक वीडियो का प्रसारण करते रहे। खास तौर पर चर्चित अंकिता भंडारी हत्याकांड, पहड़ी क्षेत्रों में फैलता नशे का करोबार और युवाओं में नशे की प्रवृत्ति तथा महिलाओं की तस्करी जैसे मामलों में त्रिभुवन द्वारा कई कार्यक्रम, चर्चाएं प्रसारित की गई हैं। यही नहीं चारधाम यात्रा के दौरान केदारनाथ में घोड़ा संचालकों की दुर्दशा और वीआईपी दर्शन के साथ-साथ हैली सेवाओं के चलते केदारघाटी का बिगड़ते पर्यावरण पर भी त्रिभुवन खासे मुखर रहे हैं।
केदारनाथ सीट पर विधायक शैलारानी रावत के निधन बाद उपचुनाव की घोषणा से क्षेत्र के तमाम युवाओं द्वारा दबाव के उपरांत त्रिभुवन चौहान ने चुनाव लड़ने का निर्णय लिया जिसमें उनका साथ क्षेत्र की जनता ने भी भरपूर दिया। उनकी जनसभाओं में अच्छी-खासी भीड़ देखने को मिली। जन समर्थन का ही असर रहा कि राजनीतिक पड़ितों के बीच त्रिभुवन को तीसरी ताकत माना जाने लगा। बेरोजगार महासंघ द्वारा त्रिभुवन को समर्थन भी दिया गया और इसके अध्यक्ष बॉबी पंवार भी अपनी पूरी टीम के साथ उनके चुनाव प्रचार में केदारघाटी में घूम-घूमकर त्रिभुवन के लिए वोट देने की अपील करते रहे। युवा वर्ग में त्रिभुवन के पक्ष में बड़ा असर रहा और मदमहेश्वर घाटी, काली मठ, अगस्तमुनि और तल्ला नागपुर क्षेत्र के मतदाताओं ने त्रिभुवन को भारी मात्रा में वोटों की सौगात देकर तीसरे स्थान पर ला खड़ा किया।
केदारनाथ उपचुनाव में त्रिभुवन को मिले जन समर्थन से एक बात तो साफ हो गई है कि अगर राज्य के मतदाताओ में वैकल्पिक राजनीति का रूझान बढ़ता है तो इसका सबसे बड़ा असर कांग्रेस की राजनीति पर ही पड़ेगा। पूर्व के इतिहास को देखें तो जब-जब मतदाताओं ने भाजपा और कांग्रेस के इतर विकल्प को अपना समर्थन दिया है तो कांग्रेस को ही इसका नुकसान उठाना पड़ा है। मतदाताओं का यह ट्रेंड विधानसभा और लोकसभा चुनाव में देखने को मिला है। यहां तक कि पंचायत चुनाव और निकाय चुनावों में भी वैकल्पिक राजनीति का असर भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर ही पड़ा है। 2017 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय कुलदीप सिंह रावत 13037 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे। कांग्रेस के मनोज रावत को 13905 वोट मिले और हार-जीत का अंतर महज 868 वोटों का रहा। इसी तरह से 2022 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय कुलदीप रावत 13423 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे। कांग्रेस के मनोज रावत को महज 12557 ही वोट हासिल हुए और वे तीसरे स्थान पर खिसक गए।
वैकल्पिक राजनीति के चलते कांग्रेस पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने भारी निराश किया और कांग्रेस के उम्मीदवार निर्दलीय बॉबी पंवार के चलते चुनाव हार गए। जबकि कांग्रेस के जोत सिंह गुनसोला वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी रहे हैं और मसूरी निकाय के साथ-साथ मसूरी विधानसभा सीट से दो बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत चुके हैं। बावजूद इसके मतदाताओं ने गुनसोला की अपेक्षा निर्दलीय बॉबी पंवार पर ज्यादा भरोसा दिखाया। हार के बाद कांग्रेस आत्ममंथन करने के बजाय निर्दलीयों के सिर अपनी हार का ठीकरा फोड़ती रही है। जहां टिहरी लोकसभा सीट पर हार के लिए बॉबी पंवार को जिम्मेदार बताया गया तो केदारनाथ उपचुनाव में मिली हार का जिम्मेदार त्रिभुवन को बताया जा रहा है। कांग्रेस का मानना है कि अगर त्रिभुवन निर्दलीय चुनाव में खड़े नहीं होते तो भाजपा से नाराज मतदाता कांग्रेस के पक्ष में वोट करते जिससे मनोज रावत की जीत होती।
कांग्रेस का यह तर्क हास्यास्पद ही लगता है। यह सही बात है कि भाजपा और कांग्रेस से नाराज मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग हमेशा से चुनावों को प्रभावित करता रहा है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि नाराज मतदाता कांग्रेस के ही पक्ष में सिमट जाता और एकतरफा वोट करता। कांग्रेस से नाराज मतदाताओं का भी एक बड़ा वर्ग राज्य बनने के बाद से ही देखने को मिलता रहा है। इसी का परिणाम रहा है कि कांग्रेस अभी तक प्रदेश में 36 सीटों से ज्यादा कभी नहीं जीत पाई है जबकि भाजपा सर्वाधिक 57 सीटों और 42 सीटों पर चुनाव जीत चुकी है।
राजनीतिक जानकार इसे कांग्रेस की चुनावी हार का सबसे बड़ा फैक्टर मानते हैं। कांग्रेस के तर्क को कई जानकार पहाड़ी कहावत के तौर पर देखते हुए उन पर व्यंग कर रहे हैं। पत्रकार और ‘बारामासा’ यू ट्यूब चैनल के सम्पादक राहुल कोटियाल कांग्रेस पर व्यंग करते हुए कहते हैं कि कांग्रेस का तर्क ठीक वैसे ही है जैसे पहाड़ी कहावत में ‘‘अगर मेरी मौसी की मूछें होती तो मैं उन्हें मौसा कहता’। वे तर्क देते हैं कि जैसे भाजपा से नाराज मतदाताओं ने त्रिभुवन को वोट दिया है तो कांग्रेस से नाराज मतदाताओं ने भी त्रिभुवन के पक्ष में वोट दिया है।
राहुल कोटियाल का यह तर्क भले ही व्यंगात्मक हो लेकिन इसके पीछे प्रदेश में उभर रहे नए राजनीतिक समीकरण को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। केदारनाथ उपचुनाव में यह बात साफ हो रही है कि आज भी मतदाताओं का एक वर्ग ऐसा है जो राष्ट्रीय या स्थापित राजनीतिक दलों से ज्यादा वैकल्पिक राजनीति को चाहता है। भाजपा के लिए भी आने वाले समय में एक चुनौती हो सकती है। इस बार चुनाव में 90875 मतदाताओं में से 53526 ही मतदाताओं ने अपने मतों का उपयोग किया। जिसमें भाजपा विरोध में 27458 वोट पड़े। एक तरह से आधे से अधिक मतदाताओं ने भाजपा को नकारा है। हालांकि भाजपा को 5 हजार से ज्यादा मतों से जीत हासिल हुई है। जबकि समूची भाजपा संगठन के साथ-साथ धामी सरकार केदानाथ क्षेत्र के विकास के लिए बड़े-बड़े दावे कर रही थी। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केदारनाथ के लिए करोड़ों की योजनाओं का भाजपा जमकर प्रचार कर रही थी बावजूद इसके आधे से भी ज्यादा मतदाताओं में भाजपा का असर नहीं पड़ा।
वैकलिपक राजनीति की बात करें तो पहाड़ में हमेशा से ही वैकल्पिक राजनीति का एक ट्रेंड बना रहा। जब समूचे देश में कांग्रेस का बोलबाला था उस समय भी कांग्रेस से इतर राजनीतिक दलों और निर्दलीयों को मतदाताओं ने अपना भरपूर समर्थन और वोट देकर वैकल्पिक राजनीति को जीवित रखने का काम किया है। भले ही कई बार उनकी हार और जीत हुई हो लेकिन चुनावी रणनीति में वे अपना दमखम बनाए रखने में कामयाब हुए हैं। इसमें कई बड़े नामों को रखा जा सकता है। हेमवती नंदन बहुगुणा, बैरिस्टर मुकंदी लाल, नारायण दत्त तिवारी, प्रताप सिंह भैरव दत्त धुलिया जैसे नाम भी वैकल्पिक राजनीति के चलते ही पहाड़ो के मतदाताओ पर अपनी छाप छोड़ चुके हैं। ये सभी अपने-अपने दौर में स्थापित पार्टियों के खिलाफ चुनाव लड़े और जीते। वामपंथी दलों को भी पहाड़ के मतदाताओं ने अपना समर्थन देने में कमी नहीं की। विद्या सागर नौटियाल, कमलाराम नौटियाल का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। राज्य बनने के बाद तो उक्रांद के अलावा निर्दलीय विधायकों की जीत का एक लम्बा सिलसिला रहा है। राज्य के पहले चुनाव में उक्रांद के चार विधायकों की जीत से राज्य में मतदाताओं ने यह साबित कर दिया था कि भाजपा-कांग्रेस से इतर भी कोई राजनीतिक सोेच है जो विकल्प के तौर पर उभर रही है।
इसके चलते कई बार निर्दलीयों की बैसाखी के सहारे प्रदेश में सरकारें तक बनी हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही निर्दलीयों का भरपूर सहारा लिया है। 2007 में भाजपा की खण्डूड़ी सरकार भी उक्रांद और निर्दलीयों के समर्थन से बनी और निशंक सरकार तक होते हुए खण्डूड़ी सरकार तक खत्म हुई। 2012 में कांग्रेस की बहुगुणा सरकार का आरम्भ भी 7 निर्दलीयों के ही सहारे हुआ जो हरीश रावत सरकार तक चलता रहा। कांग्रेस के समय में तो निर्दलीयों का इतना दमखम था कि सरकार को समर्थन देने वाले निर्दलीयों ने अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए पीडीएफ नाम का संगठन तक बना लिया था और अपने हितों के अनुरूप सरकार चलाई। स्वयं हरीश रावत भी सार्वजनिक तौर पर मानते रहे हैं कि उनकी सरकार निर्दलीयों के सहारे चल रही है और कब तक सरकार सुरक्षित रहेगी इसकी चिंता रहती थी। इससे प्रदेश की राजनीति में निर्दलीयों की राजनीतिक ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है।
हालांकि वैकल्पिक राजनीति का असर ज्यादा समय तक नहीं रहा और करीब-करीब सभी निर्दलीय अंत में भाजपा या कांग्रेस में शामिल होते चले गए। उक्रांद भी इससे अछूती नहीं रही। कभी 4 विधायकों वाली उक्रांद कांग्रेस की तिवारी सरकार को परोक्ष तौर पर समर्थन देने की धारा में इतना बहती चली गई कि उसके दिग्गज नेता कांग्रेस सरकार में दर्जाधारी राज्यमंत्री तक बने, वहीं भाजपा सरकार में तो सीधे सरकार में ही शामिल हो गए। कभी सरकार बनाने वाली उक्रांद आज पूरी तरह से मतदाओं द्वारा इस कदर नकार दी गई है कि 2017 से एक भी सीट पर चुनाव जीतना तो दूर उसके उम्मीदवार जमानत तक नहीं बचा पाए। यहां तक कि उक्रांद का वर्षों से चला आ रहा चुनाव चिन्ह भी अब उससे छिन गया है।
बात अपनी-अपनी
केदारनाथ चुनाव में कांग्रेस के पक्ष मे माहौल था। भाजपा से बड़ी भारी नाराजगी जनता में थी, लेकिन भाजपा ने धनबल, पुलिस-प्रशासन का भरपूर दुरुपयोग किया। निर्दलीय उम्मीदवार को जीतने भी वोट पड़े उसमें 80 प्रतिशत वोट कांग्रेस के ही कम हुए, उसने तो भाजपा के 20 प्रतिशत वोट ही काटे हैं। आजकल ये ट्रेंड खासतौर पर भाजपा ने शुरू किया है कि अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए एक वोट कटवा उम्मीदवार खड़ा करो जिससे विपक्ष के प्रत्याशी के वोट काटे जा सकें। ये चलन लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता, लेकिन सब जानते हैं कि निर्दलीय उम्मीदवार किसका आदमी था। चुनाव प्रचार के दौरान हर कोई कह रहा था कि निर्दलीय आमुख व्यक्ति द्वारा खड़ा किया गया है। आखिर चुनाव लड़ने के लिए उसके पास इतना धन कहा से आया, किसी ने तो फंडिंग की है।
हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड
भाजपा की बी टीम थी या किसे किसने खड़ा किया? कौन फंड दे रहा था? इस बारे में तो मैं कुछ नहीं कहूंगा। केदारनाथ सीट पर उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार की हार हुई है इसके अनेक कारण हो सकते हैं जिनके बारे में मैं मीडिया में नहीं बोलूंगा, हम इस हार की समीक्षा करेंगे। केदारनाथ क्षेत्र में कांग्रेस के पक्ष में बड़ा माहौल था जो हमने केदारनाथ पैदल यात्रा के समय देखा। जनता में भाजपा के खिलाफ भारी नाराजगी थी जिसका असर चुनाव में देखने को मिला। 30 हजार मतदाता भाजपा सरकार से नाराज थे और उन्होंने भाजपा के खिलाफ वोट किया। यही नाराजगी का वोट त्रिभुवन भाई को भी बंटा। हम चुनाव प्रचार में मतदाताओं की नाराजगी को अपने पक्ष में करने से पीछे रह गए। यह जरूर है कि अगर त्रिभुवन भाई चुनाव में नहीं उतरते तो जो मतदतात भाजपा के खिलाफ है उसका वोट बंट नहीं पाता। कहा जा रहा है कि बॉबी पंवार फैक्टर के कारण त्रिभुवन को वोट पड़ा, लेकिन त्रिभुवन को ज्यादातर वोट दूरस्थ क्षेत्रों से पड़ा है। जहां युवा अपनी परीक्षा की तैयारी में लगा हुआ है, जहां बेरोजगार युवा है और उनकी नाराजगी सरकार से है उन क्षेत्रों में तो कांग्रेस को ही ज्यादा वोट मिला है।
करण माहरा, प्रदेश अध्यक्ष, उत्तराखण्ड कांग्रेस
जो भी स्थापित पार्टी चुनाव में हारती है वह आत्ममंथन करने की बजाय नए-नए तर्क देती है। किसी को भी अन्य पार्टी की बी टीम बनाकर उसको अपमानित करने का काम ऐसे दल करते रहे हैं। पूरे चुनाव प्रचार में मेरे बारे में यही कहा गया कि मैं भाजपा की बी टीम हूं और वोट काटने के लिए भाजपा ने मुझे खड़ा किया है। लेकिन मेरे क्षेत्र की जनता ने दिखा दिया कि कौन उनका अपना है और कौन उनके साथ खड़ा नहीं है। हरीश रावत जी एक बड़े नेता हैं। वे कह रहे हैं कि हम त्रिभुवन का आकलन सही ढंग से नहीं कर पाए तो यह उनको समझ में आ रहा है। उन्होंने यह भी कहा है कि त्रिभुवन को चुनाव लड़ने के लिए धन कहां से आ रहा है। मेरे पास चुनाव लड़ने के लिए धन नहीं था, मेरा सहयोग मेरे क्षेत्र की जनता और मतदाताओं ने किया और मुझे भाजपा-कांग्रेस जैसी पार्टी के सामने 9 हजार से भी ज्यादा वोट दिए। मैं क्षेत्र की समस्याओं और मुद्दों पर बात करता रहा जबकि ये लोग क्षेत्रीय मुद्दों को छूना भी नहीं चाहते थे। हमें जनता ने अपना समर्थन दिया है अब आने वाले समय में हम दिखाएंगे विपक्ष कैसा होता है। हम केदारनाथ क्षेत्र के लिए काम करते रहेंगे। अब तो हमारे पास क्षेत्र की जनता जैसा भरपूर संगठन है।
त्रिभुवन चौहान, निर्दलीय प्रत्याशी केदारनाथ