जो लोग यह समझ रहे थे कि पूरी दुनिया में कट्ठरपंथी ताकतों की सत्ता में वापसी हो रही है, उन्हें मालदीव के चुनावी नतीजे ने राहत दी है। इन चुनावी नतीजों ने चीन को भी तगड़ा झटका दिया है जो पर्दे के पीछे से ऐसा जाल बुन रहा था ताकि मालदीव और नई दिल्ली में दूरी बढ़ जाए। भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिण पश्चिम में स्थित मालदीव 1200 से ज्यादा छोटे-छोटे दीपों का समूह है, जिसमें ज्यादा वीरान ही है। नीले पानी की लहरों वाला खूबसूरत समुद्री किनारा दुनिया भर के सैलानियों की पसंद है। उस मालदीव के चुनावी परिणाम बड़े बदलाव का संकेत हैं।

इसे भारत और चीन-श्रीलंका के साथ-साथ ब्रिटेन, अमेरिका और सऊदी अरब भी अपनी सांस रोके देख रहा था। हिंद महासागर के रास्ते भारत तक पहुंचने के लिए अहम मालदीव में उदारवादी सरकार का होना इन सबके लिए जरूरी था। मालदीप में यह परिवर्तन भारत के सामरिक दृष्टि के लिए भी महत्वपूर्ण है। भारत और श्रीलंका उसके सबसे नजदीकी पड़ोसी हैं। अरब में 1988 में ऑपरेशन कैक्टस के बाद से ही भारत मालदीव का बड़ा सहयोगी रहा है।

गौरतलब है कि भारत को घेरने के मकसद से चीन ने मालदीव को जरिया बनाया है। मालदीव अपने कुछ वीरान द्वीप चीन के कहे पर भी दे चुका है। खतरा यह है कि चीन इनका इस्तेमाल भारत पर निगरानी संबंधी गतिविधियों के लिए वहां सैन्य अड्डे बनाने में कर सकता है। चीन को निवर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने काफी समर्थन दिया। हाल ही में हुए आम चुनाव में चीन समर्थक अब्दुल्ला यामीन की हार हुई हैं और संयुक्त विपक्षी गठबंधन के नेता इब्राहिम मोहम्मद सालेह को 58 ़3 फीसदी मत के साथ जबरदस्त जीत मिली है। सालेह भारत के समर्थक माने जाते हैं। इसलिए भारत ने सालेह की जीत का स्वागत किया और तुरंत कहा कि यह लोकतंत्र की जीत है। लगभग चार लाख की आबादी वाला यह देश लंबे समय से भारत के प्रभाव में रहा है। लेकिन कुछ सालों से चीन ने यहां चालबाजी शुरू कर दी थी। यह देश उसके मोह में फंसता नजर आ रहा था।

मालदीव को चीन अपनी महात्वाकांक्षी परियोजना वन बैल्ट वन रोड में एक महत्वपूर्ण रूट के तौर पर देख रहा है। सामरिक दृष्टि से भी मालदीव पर चीनी मौजूदगी भारत के लिए खतरनाक है। मालदीव से लक्ष्यदीप की दूरी महज 1200 किलोमीटर है। ऐसे में भारत कतई नहीं चाहेगा कि पड़ोसी देश चीन उसके जरिए भारत के करीब पहुंचे। निवर्तमान राष्ट्रपति यामीन के शासन में चीन ने मालदीव में भारी निवेश किया। पिछले साल जब लाखों चीनी सैलानियों के साथ अगस्त महीने में चीनी नौसेनिक जहाज मालदीव पहुंचे तो भारत की चिंता गहरी हो गई।

पिछले कुछ समय से मालदीव राजनीतिक अस्थिरता या कहा जाए हलचल से गुजरा है। इसी साल फरवरी में वहां की सर्वोच्च अदालत ने पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद पर चल रहे मुकदमे को असंवैधानिक करार दे दिया था और कैद किए गए विपक्ष के नौ संसदों को रिहा करने का आदेश भी जारी किया था। लेकिन निवर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया। नतीजा वहां संकट इतना गहरा हो गया कि यामीन ने पंद्रह दिन के आपातकाल की घोषणा करते हुए संसद भंग कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायधीश अब्दुल्ला सईद और दूसरे जजों के साथ पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। तब भारत समर्थक पूर्व राष्ट्रपति नशीद ने भारत के त्वरित सैन्य कार्रवाई की मांग भी की थी। मालदीव के उस राजनीतिक संकट की जड़ें 2012 में तत्कालीन और पहले निर्वाचित राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद के तख्तापलट से जुड़ी थी। नशीद के तख्तापलट के बाद ही यामीन वहां के राष्ट्रपति बने थे। नशीद को 2015 में आतंकवाद के भरोसे में तेरह साल की जेल हुई। लेकिन वे ब्रिटेन चले गए और वहीं राजनीतिक शरण ली।

यही वह दौर था। जब मालदीव और भारत के रिश्तों में तनाव आया। दोनों देशों के दरम्यान दूरियां बढ़ी। इसका फायदा चतुर चीन ने उठाया। वैसे भी भारत पिछले एक दशक के दौरान मालदीव के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप से बचता रहा है। जिसका लाभ चीन ने लिया। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की चालाकियों को साफ तौर पर देखा जा सकता है, वह मालदीव को अपना एक सैन्य अड्डा बनाने की राह पर था। जिनपिंग का भारत दौरा मालदीव से होकर हुआ था। दोनों देशों में मैरी टाइम सिल्क रूट से जुड़े समझौते भी हुए थे। दिसंबर में दोनों के बीच बारह करार हुए। साफ है कि चीन की मालदीव में दिलचस्पी पूरी तरह रणनीति थी। वह उसके बहाने भारत को ही घेर रहा है। अब चुनावी नतीजों से भारत को राहत मिली है। चीन सकते में है। नव निर्माण राष्ट्रपति सालेह का भारत प्रेम एक बार फिर से मालदीव और भारत को पुरानी दोस्ती की राह पर वापस ले आएगा।

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