उत्तराखण्ड कांग्रेस की नेता और राज्य की नेता प्रतिपक्ष डाॅ इंदिरा हृदयेश के आकस्मिक निधन ने उत्तराखण्ड की राजनीति में एक शून्य पैदा कर दिया है। इंदिरा हृदयेश भले ही कांग्रेस की राजनीति से ताल्लुक रखती थीं, लेकिन उन्हें सिर्फ कांग्रेस के दायरे में बांधकर रखना उनके व्यक्तित्व के साथ अन्याय होगा। उत्तराखण्ड में कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों में वो इस वक्त वरिष्ठतम नेता थीं। जिनके जाने से सिर्फ कांग्रेस में ही नहीं वरन उत्तराखण्ड की राजनीति में भी एक बड़ा शून्य पैदा हो गया है। आज उनके जाने के बाद उत्तराखण्ड की राजनीति में उनके जैसे अनुभव, संसदीय ज्ञान और अफसरशाही से काम करा लेने की क्षमता का कोई नेता उनके कद का नजर नहीं आता। इंदिरा हृदयेश का आकस्मात जाना उत्तराखण्ड की महिला राजनीति के लिए भी खासा नुकसानदेह साबित हुआ है।

स्वाभाविक है उसके दावेदार उनके सबसे छोटे सुपुत्र सुमित हृदयेश हैं जिनकी राजनीतिक पाठशाला अपने घर से ही शुरू होती है, वो भी इंदिरा जी जैसी कद्दावर शख्सियत की पाठशाला में। चुनावों में पार्टी के अंदर अन्य दावेदार हो सकते हैं लेकिन दावेदारी विरासत संभालने की गारंटी नहीं हो सकती शायद। जैसा कि पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि उनका आशीर्वाद हमेशा सुमित के साथ रहेगा साफ इशारा करता है कि कांग्रेस के अंदर भी मान लिया गया है कि सुमित ही इंदिरा हृदयेश की राजनीतिक विरासत के स्वाभाविक हकदार है। इस बात को इससे भी बल मिलता है जब हरीश रावत के करीबी और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष, जागेश्वर से विधायक बयान देते हैं कि सुमित ही इंदिरा जी की राजनीतिक विरासत के हकदार हैं। इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए और कांग्रेस से अगले चुनाव में सुमित ही विधायक उम्मीदवार होंगे। खास बात ये है कि ये बयान कांग्रेस के उन नेताओं की तरफ से आया है जो कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में इंदिरा विरोधी गुट में शुमार होते थे।
जहां तक सुमित हृदयेश का प्रश्न है वो बचपन से ही राजनीतिक माहौल में पढ़े, पले बढ़े हैं। उत्तराखण्ड की राजनीति में उनका पदार्पण अपनी मां के सहयोगी के रूप में हुआ। पिछले दो विधानसभा चुनावों से इंदिरा हृदयेश के चुनाव की जिम्मेदारी सक्रिय रूप से लिए हुए थे। सर्वसुलभ सौम्य सुमित हृदयेश की युवाओं में खासी पकड़ उनका प्लस प्वाइंट है। 2017 के विधानसभा चुनावों में तो इंदिरा हृदयेश प्रचार के लिए चुनिंदा स्थानों पर गई थी उनके प्रचार की पूरी कमान सुमित हृदयेश ने स्वयं संभाल रखी थी। इंदिरा हृदयेश की इच्छा थी कि उनके जीवित रहते वो सुमित को विधायक के रूप में देखें। इसके लिए उन्होंने सुमित को रणनीतिक रूप से आगे बढ़ाना शुरू भी कर दिया था। हल्द्वानी के नगर निगम में मेयर के चुनाव सुमित को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाना उस दिशा में पहला कदम था। उस वक्त सुमित हृदयेश भले ही चुनाव हार गए हों, लेकिन हल्द्वानी विधानसभा के अंतर्गत आने वाले नगर निगम क्षेत्र से वो दस हजार मतों से आगे थे। अगर नगर निगम का विस्तार कर नये क्षेत्र न जोड़े गए होते तो शायद हल्द्वानी नगर निगम के मेयर सुमित ही होते। राजनीतिक ही नहीं सामाजिक रूप से भी सुमित का काफी सक्रिय रूप से जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे रहना, प्लाज्मा डोनर्स के लिए अपनी व्यक्तिगत गाड़ी उपलब्ध कराना, जिनके सामने कोरोनाकाल में आजीविका का संकट पैदा हो गया था उनके लिए राशन उपलब्ध कराना उनके सामाजिक सरोकारों की ओर इशारा करते हैं।
हल्द्वानी विधानसभा में उपचुनाव होंगे या फिर 2022 के विधानसभा चुनावों के साथ ही यहां चुनाव होंगे जानना दिलचस्प होगा। वैसे तो 12 दिसंबर 2021 से पहले हल्द्वानी विधानसभा का उपचुनाव हो जाना चाहिए, लेकिन संभव है उस वक्त तक चुनावों की घोषणा हो चुकी होगी। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के अंदर दावेदारों की कमी है लेकिन जिस प्रकार बड़े नेताओं की सहमति नजर आ रही है उससे स्पष्ट है कि हल्द्वानी विधानसभा के लिए सुमित के नाम पर नेताओं में कोई विवाद की आशंका नहीं है। हल्द्वानी विधानसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी की शुरुआत से नजर रही है लेकिन 2007 के विधानसभा चुनावों को छोड़ उसने ये सीट नहीं जीती है। भाजपा के लिए इस सीट का महत्व कितना है ये इससे साबित होता है कि पिछले विधानसभा चुनावों में हल्द्वानी की विधानसभा सीट उन चंद सीटों में शामिल थी जिनके प्रत्याशियों की घोषणा भाजपा ने अंत समय में की थी।
भारतीय जनता पार्टी के अंदरूनी सूत्रों से बात करने पर पता चलता है कि भाजपा हल्द्वानी की सीट पर ऊहापोह की स्थिति में पहले से ही थी। इंदिरा हृदयेश के निधन के बाद स्थितियां अब काफी बदल चुकी है। भाजपा के आंतरिक समीकरणों के चलते हल्द्वानी व कालाढूंगी की सीटों पर बड़ा परिवर्तन देखने को मिल सकता है। हरियाणा में अपने सांगठनिक कौशल का परिचय दे चुके उत्तराखण्ड भाजपा के महामंत्री सुरेश भट्ट भाजपा आलाकमान के विश्वसत हंै खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के। सल्ट उपचुनाव में भी सुरेश भट्ट ने जिस तरह चुनाव लड़वाया वो उनके रणनीति कौशल का परिणाम था कि भाजपा प्रत्याशी की जीत का अंतर पिछले बार के मुकाबले दोगुना हो गया। वो कालाढूंगी से इस बार भाजपा के गंभीर प्रत्याशी हैं। अगर 70 वर्ष की उम्र से ऊपर के लोगों को चुनाव में न उतारने की अपनी नीति पर भाजपा अमल करती है तो बंशीधर भगत शायद चुनाव में प्र्रत्याशी न हांे, लेकन नीति के परिवर्तन होता है तो भाजपा बंशीधर भगत को हल्द्वानी से चुनाव लड़ने को कह सकती है। इस परिस्थिति में चुनाव दिलचस्प होने की संभावना है।
फिलहाल चुनाव में अभी लंबा वक्त है लेकिन सुमित हृदयेश के सामने बड़ी चुनौती है अपने को इंदिरा हृदयेश का स्वाभाविक राजनीतिक उत्तराधिकारी साबित करने की। सुमित हृदयेश का कहना है कि वो अपनी मां के अधूरे सपने पूरे करने का पूरा प्रयास करेंगे और उनकी मां में जो समग्र राजनेता के गुण थे उन पर चलने की मजबूत कोशिश करेंगे। राजनीति में चुनाव ही किसी को कसौटी पर कसते हैं और जनता ही तय करती है और मुहर लगाती है किसी भी मुद्दे पर उस कसौटी पर अभी सुमित हृदयेश को सिद्ध करना होगा।
बात अपनी-अपनी

हरीश रावत, पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड
हल्द्वानी सीट पर सुमित ही होंगे कांग्रेस के उम्मीदवार, इंदिरा जी के स्वाभाविक राजनीतिक वारिस हैं सुमित हृदयेशा, अपनी मां की अधूरी विकास
योजनाओं को पूरा करेंगे सुमित। इंदिरा जी ने पहले ही राजनीति में सुमित को प्रवेश करवा दिया था।

गोविंद सिंह कुंजवाल, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष एवं जागेश्वर विधायक