दुष्यंत मैनाली, वरिष्ठ अधिवक्ता
उच्च न्यायालय नैनीताल
जहां एक ओर स्थल चयन की कार्यवाही तेजी से गौलापार में हुई और पर्यावरण मंत्रालय की ओर से लगाई गई आपत्तियों के निराकरण का काम चल रहा था और उत्तराखण्ड की चुनी हुई सरकार के मुख्यमंत्री ने गौलापार में हाईकोर्ट की स्थापना की घोषणा डेढ़ माह पहले ही सार्वजनिक मंच से की। सक्रियता दिखाते हुए गौलापार में नियोजित विकास के लिए प्रदेश मंत्रिमंडल ने वहां फ्रीज जोन घोषित करने का निर्णय लिया, कई इलाकों में भूमि की खरीद-फरोख्त पर भी रोक लगा दी। ऐसे में इस फैसले से अचानक हाईकोर्ट का अपनी न्यायिक शक्तियों का प्रयोग कर खंडपीठ के ताजा आदेश द्वारा गौलापार की चयनित भूमि के प्रस्ताव को निरस्त कर नए स्थान के लिए ऑनलाइन वोटिंग और ऋषिकेश में बेंच की स्थापना के सुझाव के बाद, समयबद्ध रिफ्रेंडम जैसे निर्देशों के सीधे-सीधे प्रभाव के रूप में जाने-अनजाने न केवल अधिवक्ता समाज, राजनीतिक तबके बल्कि आमजन में भी वर्षों से धीरे-धीरे पाटा गया मंडलीय विभाजन, कुमाऊं-गढ़वाल के
लिए क्षेत्रवाद अब खुलकर दिखाई दे रहा है। जो पिछले कुछ वर्षों में उभारी जा रही ‘उत्तराखण्डियत’ पर भारी पड़ रहा है
किसी भी राज्य में विधानसभा, सचिवालय या हाईकोर्ट जैसे संस्थान सिर्फ इमारत भर नहीं होते, बल्कि आम लोगों की अपेक्षाओं, अभिलाषाओं और अन्याय के विरुद्ध अधिकारों की रक्षा के लिए अधिकार सम्पन्न संरक्षक भी होते हैं, साथ ही राज्यों की अस्मिता से भी भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। शायद इसीलिए शहरों या प्रदेशों के नाम मुंबई, प्रयागराज, तमिलनाडु बदल दिए जाने के बावजूद वहां की ऐतिहासिक हाईकोर्ट आज भी बॉम्बे हाईकोर्ट, इलाहबाद हाईकोर्ट और मद्रास हाईकोर्ट जैसे नामों से ही जानी जाती हैं। उत्तर पूर्वी राज्यों और हिमाचल में शिमला हाईकोर्ट पर्वतीय स्थानों में वर्षों से संचालित हैं और नैनीताल में भी पिछले 23 वर्षांे में हाईकोर्ट ने इस पर्वतीय राज्य में आम जन के मौलिक अधिकारों के संरक्षण, व्यापक जनहित, पर्यावरण संरक्षण और विधि का शासन स्थापित रखने जैसे मूल्यों के साथ हजारों ऐतिहासिक निर्णय लिए हैं जिससे यह संस्थान राज्य के आमजन में आज भी संविधान और न्याय के प्रति विश्वास का सबसे बड़ा प्रतीक है।
नैनीताल में पिछले कुछ सालों में बताए गए पर्यटन के दबाव, आवास की किल्लत या संस्थान के वृहद होते स्वरूप व अन्य कई अवस्थापना सम्बंधी कारणों से जबसे हाईकोर्ट सुविधाजनक स्थान पर स्थानांतरित करने की बात हुई तब भी आम लोगों से पत्रनुमा सुझाव मांगे गए थे लेकिन निर्णय के स्तर पर जो भी प्रक्रिया की गई वो माननीय मुख्य न्यायाधीश की प्रशासनिक शक्तियों, समस्त न्यायाधीशों की फुल कोर्ट बैठक के प्रस्ताव और राज्य सरकार की कैबिनेट द्वारा पारित प्रस्ताव के अनुरूप हुई। अंततः मार्च 2023 में केंद्रीय विधि मंत्रालय ने उत्तराखण्ड हाईकोर्ट को नैनीताल से 35-40 किलोमीटर दूर हल्द्वानी के गौलापार शिफ्ट करने की सैद्धांतिक मंजूरी भी दे दी। यहां तक कि ये प्रशासनिक फैसला अवस्थापना सुविधा और भविष्य के विस्तार की दृष्टि से ही बताया गया। महत्वपूर्ण तथ्य तो यह भी है कि माननीय उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय की तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने ही 17 जून 2020 को दिए अपने निर्णय में गढ़वाल मंडल में हाईकोर्ट की एक सर्किट बेंच स्थापना की मांग वाली ‘ममतेश शर्मा बनाम भारत संघ’ की जनहित याचिका को खारिज करते समय विस्तार से स्पष्ट किया था कि उत्तराखण्ड के दोनों मंडलों कुमाऊं और गढ़वाल के लोगों की ‘आकांक्षाओं की पूर्ति’ के लिए गढ़वाल में राजधानी और कुमाऊं में हाईकोर्ट स्थापित की गई है जिसके पीछे इस निर्णय में खंडपीठ द्वारा क्षेत्रीय संतुलन के ऐतिहासिक कारण बताए गए थे।
जहां एक ओर स्थल चयन की कार्यवाही तेजी से गौलापार में हुई और पर्यावरण मंत्रालय की ओर से लगाई गई आपत्तियों के निराकरण का काम चल रहा था और उत्तराखण्ड की चुनी हुई सरकार के मुख्यमंत्री ने गौलापार में हाईकोर्ट की स्थापना की घोषणा डेढ़ माह पहले ही सार्वजनिक मंच से की। सक्रियता दिखाते हुए गौलापार में नियोजित विकास के लिए प्रदेश मंत्रिमंडल ने वहां फ्रीज जोन घोषित करने का निर्णय लिया, कई इलाकों में भूमि की खरीद फरोख्त पर भी रोक लगा दी। ऐसे में इस फैसले से अचानक हाईकोर्ट का अपनी न्यायिक शक्तियों का प्रयोग कर खंडपीठ के ताजा आदेश द्वारा गौलापार की चयनित भूमि के प्रस्ताव को निरस्त कर नए स्थान के लिए ऑनलाइन वोटिंग और ऋषिकेश में बेंच की स्थापना के सुझाव के बाद, समयबद्ध रिफ्रेंडम जैसे निर्देशों के सीधे- सीधे प्रभाव के रूप में जाने-अनजाने न केवल अधिवक्ता समाज, राजनीतिक तबके बल्कि आमजन में भी वर्षों से धीरे-धीरे पाटा गया मंडलीय विभाजन, कुमाऊं-गढ़वाल के लिए क्षेत्रवाद अब खुल कर दिखाई दे रहा है, जो पिछले कुछ वर्षों में उभारी जा रही ‘उत्तराखण्डियत’ पर भारी पड़ रहा है।
जहां एक ओर 23 वर्षों से देहरादून में अस्थायी राजधानी के नाम पर पर्वतीय राज्य की आकांक्षा की दुहाई देकर गैरसैंण में करोड़ों रुपए का विधान भवन बनाकर कभी ग्रीष्मकालीन राजधानी के झुनझुने के साथ लावारिस छोड़ा गया है ऐसे में ताजा उभरी आशंकाएं-हाईकोर्ट के पर्वतीय क्षेत्र नैनीताल में रहने न रहने, कुमाऊं में रहने न रहने, दो बेंचों में विभाजित होने न होने, या पूरी हाईकोर्ट राजधानी के पास ऋषिकेश में स्थापित होने जैसी अनिश्चितताओं ने फिर से कथित अस्थायी राजधानी वाले इस राज्य में नैनीताल में राष्ट्रपति की अधिसूचना से सन 2000 से स्थापित हाईकोर्ट से जुड़े लोगों खासकर राज्य विभाजन के बाद इलाहाबाद से वापस लौटे अनुभवी अधिवक्ताओं की पीढ़ी की विरासत के ठीक बाद, दूसरी पंक्ति में यहां नई पीढ़ी के और संघर्षों से स्थापित हुए इस राज्य के अधिवक्ताओं और हाईकोर्ट से जुड़े कामों में रोजगार में लगे लोगों, इसके कर्मचारियों और आमजन के लिए एक नया असुरक्षा और अस्थायित्व का भाव पैदा हो रहा है। अब ताजा न्यायिक आदेश पर टिप्पणी न भी की जाए तब भी सामाजिक प्रभाव के रूप में साफ दिख रहा है कि पिछले वर्षों में चली हाईकोर्ट के स्थानांतरण की बात अब अवस्थापना सुविधा और सुगम स्थान की आकांशा, अपेक्षा की सीधी आवश्यकता के बजाय, पहाड़-मैदान की बहस से बहुत आगे अब एक अनजाने भय के रूप में कुमाऊं गढ़वाल के भावनात्मक विभाजन और बड़े संस्थानों की स्थापना में क्षेत्रीय असंतुलन के कारक के रूप में समाज में गहरी दिखाई देने लगी है, जो स्पष्ट रूप से ‘मंडलीय संतुलन’ के उन ऐतिहासिक कारणों के ठीक विपरीत है जिनका जिक्र इसी माननीय उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने अपने 17 जून 2020 के आदेश में गढ़वाल मंडल में राजधानी और कुमाऊं मंडल में हाईकोर्ट स्थापित होने के पीछे ‘क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति’ बताते हुए किया था।