Editorial

धर्मनिरपेक्षता को तिलांजलि

पिचहत्तर बरस का भारत/भाग-121

 

विभाजन के पश्चात् साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण कम होने के बजाए लगातार बढ़ता गया, तो इसके पीछे भी नए शासकों और शासन करने की चाह रखने वालों का स्वार्थ सबसे बड़ा कारण रहा। धर्म पर आधारित विभाजन के बाद भी साम्प्रदायिकता की आग सुलगती रही। 1962 में जबलपुर में हुए कौमी दंगों, दुर्गापुर, जमशेदपुर, रांची, पश्चिम बंगाल समेत देश के कई हिस्सों में अलग-अलग समय पर हुए दंगों के पीछे राजनीतिक शक्तियों का हाथ देखने को मिलता है। इंदिरा गांधी ने सत्ता में आने के बाद धर्मनिरपेक्षता को अपनी प्रमुख नीति बनाकर अल्पसंख्यकों को कांग्रेस की तरफ आकर्षित करने और उन्हें बतौर कांग्रेस वोट बैंक मजबूत करने की रणनीति पर अमल कर और ‘गरीबी हटाओ’ के नारे को बुलंद कर कांग्रेस के लिए अल्पसंख्यकों और दलितों का एक विशाल समर्पित वोट बैंक तैयार किया तो इसके जवाब में दक्षिणपंथी स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ ने हिंदू मतदाता को रिझाने के लिए साम्प्रदायिकता का सहारा लिया। गुजरात राज्य इस प्रकार की राजनीति के लिए प्रयोगशाला बनकर उभरा। 1969 के अहमदाबाद दंगों और उसके बाद महाराष्ट्र के भिवंडी और जलगांव में हुए कौमी दंगों के पीछे शिवसेना सरीखी दक्षिणपंथी ताकतों का हाथ सामने आया था।

साम्प्रदायिकता के उभार के पीछे राजनीतिक कारणों का होना इस बात की पुष्टि करता है कि आम जनभावनाओं को उकसाकर साम्प्रादायिकता को पैदा करने के पीछे राजनीति ही मुख्य कारण थी। भारतीय राजनीति, विशेषकर महाराष्ट्र की राजनीति को साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद के सहारे प्रदूषित करने वाली शिवसेना का उदय इसी समयकाल में हुआ था। कांग्रेस ने इस संगठन को उसके शुरुआती दिनों में संरक्षण देने का अक्षम्य अपराध किया, जिसका फल 90 के दशक में शिवसेना और भाजपा के गठबंधन रूप में सामने आया जिसने महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस को हाशिए पर डालने का काम किया।

शिवसेना का गठन 1966 में बम्बई (अब मुम्बई) के एक व्यंग्य चित्रकार (कार्टूनिस्ट) बाल ठाकरे ने किया था। ठाकरे साप्ताहिक मराठी पत्रिका ‘मार्मिक’ में गैर-मराठी, विशेषकर तमिलभाषी लोगों के खिलाफ कार्टून बनाकर क्षेत्रीयवाद को बढ़ावा देने का काम किया करते थे। 1966 में उन्होंने बतौर राजनीतिक दल शिवसेना का गठन किया और हिंसक तरीके से बेरोजगार मराठी युवाओं के बीच अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी। उन दिनों महाराष्ट्र, विशेषकर बम्बई में दक्षिण भारतीयों का बोलबाला हुआ करता था। बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान अधिकतर तमिल अथवा गुजराती व्यापारियों के थे, जो मराठी युवाओं की वनिस्पत अपने स्वजातीय को नौकरी पर रखना पसंद करते थे। ठाकरे ने ‘लुंगी हटाओ-पुंगी बाजाओ’ अभियान शुरू कर तमिल भाषियों के खिलाफ हिंसा को जन्म देकर मराठी अस्मिता के नाम पर अपनी राजनीति को चमकाने का काम किया। शुरुआती दौर में ठाकरे को महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंत राव नाइक ने कांग्रेस के राजनीतिक हित साधने के लिए खासा संरक्षण दिया था। महाराष्ट्र की कपड़ा मीलों में तब वामपंथी श्रमिक संगठन बेहद मजबूत थे। वामपंथियों को कमजोर करने के लिए वसंत राव नाइक ने ठाकरे को जमकर आगे बढ़ाया। दोनों के मध्य इस दुरभि संधि के चलते शिवसेना को तब ‘वसंत सेना’ कहकर पुकारा जाता था।

1970 में वामपंथी तब श्रमिक नेता और विधायक कृष्ण देसाई की हत्या में शिवसेना का हाथ होने और इस हत्याकांड को नाइक सरकार द्वारा दबाए जाने का आरोप कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने लगाया था।
आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव में सर्वाेदयी नेता जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी के प्रयासों से बनी जनता पार्टी में कट्टर दक्षिणपंथी जनसंघ का शामिल होना सत्ता लोलुपता के चलते वैचारिकता को हाशिए पर डाले जाने के रूप में सामने आता है। समाजवादी, पूर्व कांग्रेसी और घोर दक्षिणपंथी विचारों का यह गठबंधन इसके नेताओं की महत्वाकांक्षा के चलते मात्र ढाई बरस में ही ढह गया और 1980 में केंद्र की सत्ता में एक बार फिर से कांग्रेस काबिज हो गई। कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के अपने घोषित सिद्धांत को अब किनारे कर बहुसंख्यक आबादी को साधने की तरफ निकल पड़ी थी। बकौल असगर अली इंजीनियर- ‘1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई। हालांकि पहले की अपेक्षा कम बहुमत के साथ। इस बार उनकी नीतियों में भारी बदलाव आ गया था। मुसलमान वोट बैंक के प्रति वे अब सशंकित हो चली थीं और उन्होंने भूमि सुधारों, हरित क्रांति आदि के चलते आर्थिक रूप से मजबूत हो चले हिंदू मध्यम वर्ग को लुभाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। यह वर्ग भी आर्थिक स्थिति मजबूत होने के चलते अब राजनीतिक शक्ति की चाह रखने लगा था। श्रीमती गांधी ने इस वर्ग का विश्वास हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए। धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनके समर्पण में अब कमी आने लगी थी। अब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी पूर्व की भांति कटु आलोचक नहीं रह गई थीं …ऐसा भी नजर आता है कि उन्होंने राजनीतिक परिदृश्य में हिंदू भावनाओं के उभार का राजनीतिक लाभ लेना शुरू कर दिया था। मीनाक्षीपुरम (तमिलनाडु) में कुछ दलितों द्वारा उच्च वर्ग के उत्पीड़न से त्रस्त हो धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम की दीक्षा लेने के चलते हिंदू साम्प्रदायिकता का तापमान गहरा चढ़ गया था। आमतौर पर गैर-राजनीतिक संगठन विश्व हिंदू परिषद् मैदान में कूद पड़ा और उसने धर्मांतरण के खिलाफ बड़ा आंदोलन शुरू कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि श्रीमती गांधी ने हिंदू मतदाताओं को साधने की नीयत के चलते इस आंदोलन को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दिया था। इसके बाद हालात तेजी से बिगड़े और देशभर में एक के बाद एक कौमी दंगे होने लगे-बिहार शरीफ (1981, मेरठ (1982), बड़ौदा (1982), बम्बई-भिवंडी (1984), अहमदाबाद (1985) इत्यादि। विश्व हिंदू परिषद् ने इनमें से कई दंगों में सक्रिय भूमिका निभाई थी, विशेषकर मेरठ दंगों में। श्रीमती गांधी ने अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अथवा विश्व हिंदू परिषद् की आलोचना करनी बंद कर दी थी और वे अब ‘नरम हिंदू साम्प्रदायिकता’ की नीति पर अमल करने लगी थीं।’इंदिरा गांधी की अक्टूबर, 1984 में उनके सिख सुरक्षाकर्मियों द्वारा हत्या किए जाने के बाद दिल्ली और देश के कई राज्यों में बड़े पैमाने पर सिख-विरोधी दंगे भड़क उठे थे, जिनमें हजारों निरपराध सिखों की जान चली गई। इस दौर में साम्प्रदायिकता का विस्तार अपने चरम पर जा पहुंचा था। राजीव गांधी की दो भूलों ने इस जहर को खाद देने का काम किया। पहले मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए राजीव सरकार ने शाहबानो प्रकरण में हस्तक्षेप कर उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलट डाला, जिससे हिंदू मतदाता के मध्य कांग्रेस को लेकर नाराजगी का भाव बढ़ा। इस नाराजगी को थामने के लिए हिंदू कट्टरपंथियों के साथ एक प्रकार का समझौता कर अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद के भीतर राम मंदिर के ताले हिंदुओं को पूजा-अर्चना के लिए खोल दिए गए। दोनों ही प्रकरण धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को तिलांजलि देकर केवल वोट बैंक की राजनीति के दृष्टिगत लिए गए थे। राम मंदिर के ताले खोले जाने का निर्णय अंततः कांग्रेस के पराभव और भाजपा के राजनीतिक क्षितिज में लम्बी उड़ान भरने का कारण बना।

80 का दशक हिंसा के नाम भी रहा था। इसकी शुरुआत बिहार के भागलपुर शहर से हुई थी, जहां स्थानीय पुलिस ने अपराधियों को स्वयं ही दंडित करना शुरू कर दिया था। इसे ‘अंखफोड़वा कांड’ के नाम से जाना जाता है। बिहार पुलिस ने 1980 में 33 अंडर ट्रायल अपराधियों की आंख में तेजाब डाल उन्हें अंधा बना डाला था। इन अपराधियों में सभी निचली जाति के लोग शामिल थे। तब बिहार का उच्च वर्ग पूरी तरह इस पुलिसिया अपराध के पक्ष में खुलकर उतर आया था। 2003 में प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गंगाजल’ इसी काण्ड पर आधारित थी, जिसमें भी इस पुलिसिया हैवानियत को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया गया है। भागलपुर अंखफोड़वा कांड 1989 में उजागर हुआ था। यह चुनावी वर्ष था। इसी वर्ष यहां हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़के, जिनमें भारी संख्या में मुसलमानों का कत्ल कर दिया गया था। इन दंगों ने मुसलमानों का कांग्रेस के प्रति मोहभंग करने का काम किया।

साम्प्रदायिकता के साथ-साथ यह दशक दलित चेतना के उभरने और सत्ता में उनकी भागीदारी करने की अकुलाहट को संगठित रूप देने के नाम रहा। इस काम को अंजाम तक पहुंचाने का श्रेय मुख्य रूप से कांशीराम को जाता है।

भारत की मजबूरी है, कांशीराम जरूरी है

80 के दशक के मध्य में दलित समाज की सभाओं में लगने वाले नारे इशारा करने लगे थे कि अब देश का बहुसंख्यक दलित वर्ग सवर्ण जातियों के खिलाफ संगठित होकर अपनी राजनीतिक ताकत को पहचानने लगा है। ‘वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’, ‘अब बहुजन की बारी है, 21वीं सदी हमारी है’ और ‘क्षत्रिय, ब्राह्माण, बनिया छोड़, बाकी अब हैं डीएस-4’ जैसे नारों के पीछे खड़े व्यक्ति का नाम था-कांशीराम।

पंजाब के रोपड़ जिले के गांव पिरथपुर बुंगा में 15 मार्च, 1934 को एक सिख परिवार में जन्मे कांशीराम के पूर्वज अछूत कही जाने वाली चमार जाति से आते थे। सिख धर्मगुरु रामदास के प्रयासों से चमार जाति के लोग सिख पंथ का हिस्सा बने थे। 1958 में कांशीराम ने ‘हाई इनर्जी मैटिरियल रिसर्च लेबोरेटरी, पुणे’ में बतौर रिसर्च असिस्टेंट नौकरी की शुरुआत की। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की इस प्रयोगशाला में घटी एक घटना ने इस अनुसंधान सहायक की जीवन-दिशा बदलने का काम किया। प्रयोगशाला में बुद्ध तथा अम्बेडकर जयंती पर अवकाश रहा करता था। उच्च जाति के कर्मचारियों के दबाव में इन दो छुट्टियों को रद्द करते हुए प्रयोगशाला के प्रशासन ने गंगाधर तिलक और गोपालकृष्ण गोखले की जयंतियों पर अवकाश रखने का निर्णय ले लिया। निम्न जाति के कर्मचारियों में इस फैसले को लेकर खासा असंतोष तो था, लेकिन इसका विरोध करने का साहस वे नहीं जुटा पा रहे थे, लेकिन एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी दीनाभाना ने इस निर्णय को चुनौती दे डाली। उनके इस कदम को अनुशासनहीनता करार देते हुए उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। कांशीराम ने उन्हें अदालत जाने के लिए प्रेरित किया और अंततः लम्बी लड़ाई के बाद दीनाभाना को न केवल उनकी नौकरी वापस मिली, बल्कि बुद्ध और अम्बेडकर जयंतियों की छुट्टी रद्द करने का आदेश भी वापस ले लिया गया। इस घटना ने कांशीराम को गहरा प्रभावित करने का काम किया।

क्रमशः

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