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इक्कीसवीं सदी में भी जारी है डयन कुप्रथा

‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो’ के आंकड़ों मुताबिक साल 2000 से 2016 के बीच देश के विभिन्न राज्यों में डायन करार देकर 2,500 से ज्यादा लोगों को मार दिया गया। वहीं ‘दैनिक भास्कर’ की हालिया एक रिपोर्ट अनुसार असम में 2011 से लेकर 2019 तक डायन होने के शक में 107 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है। असम ही नहीं देशभर में कई ऐसे राज्य हैं जहां महिलाओं को डायन बिसाही, जादू टोना के नाम पर प्रताड़ना का दंश झेलना पड़ता है जिस दौरान कभी-कभी यह उनकी मौत की वजह भी बन जाती है। एनसीआरबी की रिपोर्ट मुताबिक साल 2022 के दौरान देश में 85 महिलाओं को डायन बता कर मौत के घाट उतार दिया गया। इनमें से 74 मामले आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा से सामने आए हैं

भारतीय समाज में शोषित और कमजोर वर्ग की महिला को जादू-टोना, डायन कुप्रथा के नाम पर प्रताड़ित करना, महिलाओं पर शारीरिक व मानसिक अत्याचार करने का एक अनोखा तरीका है। देश के कई राज्यों में डायन प्रथा के खिलाफ कानून होने के बावजूद अब तक इस सामाजिक कुरीति पर अंकुश नहीं लग पाया है। आज भी न जाने कितनी ही महिलाएं इस अंधविश्वास का शिकार होती रही हैं। ताजातरीन प्रकरण असम के सोनितपुर जिले का है जहां 35 वर्ष की एक आदिवासी महिला को नशे में धुत गांव के कुछ लोगों द्वारा 24 दिसंबर की रात को उसके घर में जिंदा जला दिया गया। पुलिस के अनुसार जादू-टोना करने के संदेह में महिला की हत्या की गई जिसमें कुल 6 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। मृतक की पहचान राम की पत्नी संगीता के रूप में हुई।

‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट अनुसार मृतक महिला के पति का कहना है कि जब उसकी पत्नी खाना बना रही थी तब उनके घर पर धावा बोला गया और उस पर डायन होने का आरोप लगाते हुए उसकी पिटाई की गई। पत्नी को न मारने का अनुरोध करने पर उसे भी पीटकर पेड़ से बांध दिया गया। राम के सामने ही उसकी पत्नी संगीता को घर के साथ जला दिया गया। असम में अंधविश्वास का यह पहला मामला नहीं है। इससे दो महीने पहले सोनितपुर के हीराजुली में डायन होने के आरोप में 45 साल की महिला मंजू नाग की हत्या कर दी गई थी।

‘डीडब्ल्यू’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह प्रथा असम के मोरीगांव जिले में फली-फूली। इस जिले को अब काले जादू की भारतीय राजधानी कहा जाता है। दूर-दराज से लोग काला जादू सीखने यहां आते हैं। ‘नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो’ के आंकड़ों अनुसार साल 2000 से 2016 के बीच देश के विभिन्न राज्यों में डायन करार देकर 2,500 से ज्यादा लोगों को मार दिया गया। वहीं ‘दैनिक भास्कर’ की हालिया एक रिपोर्ट अनुसार असम में 2011 से लेकर 2019 तक डायन होने के शक में 107 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है। असम ही नहीं देशभर में कई ऐसे राज्य हैं जहां महिलाओं को डायन बिसाही, जादू टोना के नाम पर प्रताड़ना का दंश झेलना पड़ता है जिस दौरान कभी-कभी यह उनकी मौत की वजह भी बन जाती है। एनसीआरबी की रिपोर्ट मुताबिक साल 2022 के दौरान देश में 85 महिलाओं को डायन बता कर मौत के घाट उतार दिया गया। इनमें 74 मामले आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीशा से सामने आए हैं। डायर कुप्रथा के नाम पर उत्पीड़न में महाराष्ट्र, तेलंगाना, बिहार, उत्तर प्रदेश में भी आए दिन ऐसे मामले देखने को मिलते हैं।

मॉब लिंचिंग तक की शिकार पीड़िताएं

जादू-टोना करने के आरोप में महिलाओं को डायन, डाकिन, कहीं टोनही बताया जाता है। अक्सर लोग गुनिया, बैगा, बेग जादू टोना उतारने वाले ओझा की बातों में आकर महिलाओं को आरोपी मानकर उनकी हत्या करने और उन्हें प्रताड़ित करने जैसे कदम उठा लेते हैं। परिवार में बच्चा बीमार पड़ा हो या बीमारी से घर में किसी की मौत हो गई हो किसी का एक्सीडेंट हो जाए या नौकरी न लग पाए इसके अलावा फसल खराब होने तक जैसे कई मसले हैं जिनकी वजह डायन द्वारा किया गया जादू टोने को माना जाता है। इसकी सजा निर्धारित करते हुए डायन मानी जाने वाली पीड़िता पर कई प्रकार के दबाव बनाये जाते हैं। आग को पार करो, बीमारी ठीक करो, मृतक को पुनर्जीवित करो आदि। सजा के तौर पर कभी उनकी जुबान काट दी जाती है तो कभी उनके बाल मुड़वा कर गांव भर में निर्वस्त्र घुमाया जाता है। मुंह पर कालिख पोतने से लेकर मुंह में मल-मूत्र तक भर दिया जाता है। इसके अतिरिक्त आग के हवाले कर देने से लेकर उन्हें समाज गांव और परिवार से बेदखल होने तक का दंश झेलना पड़ता है।
महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की अध्यक्ष सरोज पाटिल का कहना है कि ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जिनमें पीड़ित महिला का साथ उसका परिवार ही नहीं देता। 100 प्रतिशत महिलाएं गरीब घरों की होती हैं। इसके अतिरिक्त डायन और जादू-टोना करने का आरोप ऐसी महिलाओं पर लगाया जाता है जो विकलांग, विधवा या परित्यक्त होती हैं। ज्यादातर मामलों में डायन होने का आरोप लगा महिला को गांव से बाहर निकाल दिया जाता है उसे और उसके परिवार को जीवनभर बदनामी झेलनी पड़ती है। कई महिलाएं आत्महत्या करने जैसे कदम भी उठा लेती हैं। ऐसे ही कई अन्य कारण हैं जिसे आधार बनाकर समाज किसी महिला को डायन करार देता है।

बीरूबाला मिशन और डायन प्रथा के खिलाफ कड़ा कानून
देशभर में ऐसे कुख्यात परंपरा को रोकने के लिए असम की बिरुबाला और झारखंड की छुटनी महतो ने पहल की जिसके कारण देशभर में कई राज्यों में इस अंधविश्वास के खिलाफ कड़े कानून बने। बीरूबाला राभा नामक एक आदिवासी महिला ने अंधविश्वास और महिलाओं को डायन के नाम पर प्रताड़ित किए जाने के खिलाफ 1980 के दशक से लड़ाई लड़नी आरंभ की थी। वे लोगों को डायन प्रथा के खिलाफ जागरूक करने में लगी रहीं। साल 2011 में उन्होंने एक समान विचार रखने वाले कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘मिशन बिरुबाला’ संस्था शुरू की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने हर तरह के जादू-टोनों के खिलाफ सचेत रूप से काम कर ऐसी मानसिकता से पीड़ित लोगों को छुटकारा दिलाया। स्वयं डायन प्रथा का दंश झेल चुकी बिरुबाला राभा अंधश्रद्धा से लड़ते हुए 40 से ज्यादा लोगों की जान बचा चुकी हैं और सौ से ज्यादा महिलाओं का पुनर्वास कराया है।

उनके प्रयासों का नतीजा रहा कि राज्य सरकार ने 2018 में ‘असम चुड़ैल प्रताड़ना रोकथाम व संरक्षण अधिनियम’ लागू किया। इस कानून के तहत डायन प्रथा एक ऐसे अपराध में आता है जो ‘संज्ञेय’ तथा ‘गैर-जमानती’ है। किसी महिला को डायन कहने पर सात साल की सजा तथा 5 लाख रुपए तक जुर्माने का प्रावधान किया गया है। किसी महिला को डायन बताकर उसकी हत्या की जाती है तो उस अपराधी के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 (हत्या के लिये सजा) के तहत मुकदमा दर्ज किया जाएगा। बीरूबाला को इस कानून से काफी मदद मिली। कानून के प्रावधानों के सहारे उन्होंने जादू-टोनों के खिलाफ लड़ाई लड़कर कई महिलाओं के जीवन को सुरक्षित किया। बिरुबाला के इन्हीं कामों को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें साल 2021 में पद्मश्री से सम्मानित किया।

केंद्रीय स्तर पर कोई कानून नहीं
असम के अतिरिक्त बिहार, झारखंड, उड़ीशा और महाराष्ट्र में अलग-अलग डायन प्रताड़ना अधिनियम बनाए गए हैं। इसके अलावा साल 2005 में छत्तीसगढ़ टोनही प्रताड़ना निवारण अधिनियम लागू किया गया। इसी तरह राजस्थान, महाराष्ट्र, असम, उड़ीसा और कर्नाटक में कानून लागू है। लेकिन केंद्रीय स्तर पर अभी कोई कानून नहीं पारित हुआ है।

झारखंड की छुटनी महतो के प्रयास

असम की तरह ही झारखंड में भी डायन प्रथा के खिलाफ कड़ा कानून बनाने के पीछे फ्रीलीगलएड कमेटी (फ्लैक) संस्था और छुटनी महतो के प्रयास हैं। छुटनी महतो ‘डायन प्रथा’ का खुद शिकार हुई हैं। वर्ष 1955 में मडकमडीह गांव की पंचायत ने पड़ोसी के बच्चे का बीमार पड़ने का आरोप महतो पर डाल दिया था। उस दौरान ग्रामीणों ने उनकी संपत्ति हड़प ली, महतो के साथ यौन शोषण सहित बुरा व्यवहार किया गया। पंचायत ने छुटनी महतो पर 500 रुपए का जुर्माना लगाया। इन सबके बावजूद बच्ची ठीक नहीं हुई। अगले दिन 40-50 ग्रामीणों द्वारा उनके घर पर धावा बोल कर उन्हें खींचकर बाहर निकाला, उनके तन से कपड़े खींच लिए गए, बेरहमी से पीटकर उन पर मल-मूत्र तक फेंका गया। छुटनी महतो ने लेकिन हिम्मत नहीं हारी और वे
महिलाओं को इस नरक जैसी जिंदगी से बाहर निकालने की मुहिम में जुट गईं। 1996 में महतो फ्लैक से जुड़ी। फिर साल 2000 में गैर सरकारी संगठन एसोसिएशन फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेयरनेस (आशा) ने उन्हें समाज परिवर्तन और अंधविश्वास के खिलाफ अभियान से जोड़ा। छुटनी महतो की मदद से अब तक 500 से भी अधिक महिलाओं की जिंदगी में नई रोशनी आ चुकी है। यह मुहिम अभी भी जारी है। ‘दैनिक भास्कर’ की एक खबर अनुसार महतो ने 125 से अधिक महिलाओं को डायन बिसाही से बचाया है और 50 से अधिक आरोपियों को सलाखों के भीतर पहुंचाया है। उनके कामों को देखते हुए साल 2021 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा उन्हें भी पद्मश्री से नवाजा गया।

फ्लैक संस्था की सराहनीय भूमिका

गैर सरकारी संस्था ‘फ्लैक’ ने 1996 से डायन के नाम पर प्रताड़ित महिलाओं के देश में कई सम्मेलन आयोजित किए। इस तरह का सम्मेलन देशभर में पहले कभी नहीं हुआ था। 1996 में आयोजन के दौरान करीब 21 पीड़िताएं शामिल हुई। 1997 के दौरान रांची में सम्मेलन के समय 20 पीड़िता शामिल हुई। इसी वर्ष मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए कनून बनाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। काला जादू से होने वाले अपराध को रोकने के लिए बिहार में डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम, 1999 लागू किया गया। इसके तहत यदि कोई भी व्यक्ति किसी औरत को डायन के रूप में पहचान कर उसे शारीरिक या मानसिक यातना, जान-बूझकर देता है या प्रताड़ित करता है तो उसे 6 महीने तक कारावास की सजा दी जाएगी। इसके अतिरिक्त दो हजार रुपए का जुर्माना अथवा दोनों सजाओं से दंडित किया जाएगा। साल 1999 में फ्लैक संस्था द्वारा 27-28 नवंबर को दो दिवसीय कार्यक्रम चलाया गया जिसमंे 25 पीड़िताएं, राष्ट्रीय महिला आयोग की वीनू सेन, बिहार सरकार की ओर से समाज कल्याण विभाग से डायरेक्टर मृदुला सिन्हा शामिल हुई। इसके अलावा विभिन्न राजनितिक दलों के प्रतिनिधि भी शामिल हुए। उस दौरान तय किया गया कि समाज में गहराई से बैठे अंधविश्वास को खत्म करने के लिए दीर्घकालिक योजना महत्वपूर्ण है।

इसके लिए डायन प्रथा की व्यापकता का निश्चित आंकड़ा जुटाए जाने की जरूरत महसूस की गई। समाज में इसके प्रभाव का पता लगाने के लिए संसाधन के प्रबंध के लिए पटना यूनिसेफ ने मंजूरी दी। दक्षिण बिहार यानी आज का झारखंड में उस दौरान लगभग 18000 पीड़िताओं की संख्या आंकी गई। साल 2000 में बिहार से अलग हुए झारखंड में राज्य सरकार द्वारा डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 2001 लागू किया गया। इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाले अपराध ‘संज्ञेय’ तथा ‘गैर-जमानती’ हैं तथा आरोपी को 6 महीने से लेकर 1 साल तक की सजा हो सकती है। इसके अलावा जुर्माना और कारावास दोनों की सजा दी जा सकती है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि महज कानून बना कर सदियों पुरानी इस कुप्रथा को खत्म करना संभव नहीं है। पूर्वाग्रह से ग्रसित समाज में डायन एक ऐसी स्त्री को कहा जाता है जो जादू-टोना करके दूसरों को बीमारी देती है। मौत, अकाल जैसे कई अनैतिक कार्य करती है। यह अंधविश्वास अधिकतर कमजोर व्यक्तित्व और कमजोर मानसिकता के लोगों में देखने को मिलता है। यह न केवल अशिक्षित, बल्कि पढ़े-लिखों के एक बड़े वर्ग में भी देखने को मिल जाता है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।

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