Uttarakhand

उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज-18/क्रियायोग की जन्मस्थली दूनागिरी : तप और तत्व का तीर्थ/भाग-3

  • श्वेता मासीवाल
    सामाजिक कार्यकर्ता

‘द बीटल्स’ बैंड की भारत यात्रा 1968 में हुई थी, और यह यात्रा उनके जीवन और संगीत दोनों पर गहरा प्रभाव छोड़ गई। उन्होंने ऋषिकेश में कई गाने लिखे, जो बाद में उनके व्हाइट एल्बम में शामिल हुए। भारत यात्रा ने बीटल्स को अध्यात्म, साधना और जीवन के गूढ़ रहस्यों की ओर आकर्षित किया।यह पश्चिमी युवाओं में भारतीय योग, ध्यान और अध्यात्म के प्रति रुचि जगाने का बड़ा कारण बना। वे ऋषिकेश स्थित महर्षि महेश योगी के आश्रम में ध्यान और आध्यात्मिक शांति की खोज में आए थे। ‘द बीटल्स’ की भारत यात्रा केवल एक संगीत यात्रा नहीं थी – यह पश्चिम और भारत के बीच आध्यात्मिक सेतु के रूप में एक ऐतिहासिक घटना बन गई। उस दौर में संगीत के शीर्ष बैंड ‘द बील्टल्स’ के नए एल्बम के कवर पर बाबाजी का छाया चित्र हुआ करता था जिसने कई लोगों का ध्यान आकर्षित किया। वेस्टर्न म्यूजिक के सबसे प्रचलित और क्रांतिकारी बैंड में चार कलाकार थे और महर्षि महेश योगी के सानिध्य में पारलौकिक ध्यान के लिए भी जाने जाते हैं। संगीत एक साधना है और आपके आध्यात्मिक चेतना के विस्तार में सहायक साबित होता है।

पुनर्जन्म भी सम्भवत होता ही होगा वरना कहां जाॅर्ज हैरिसन जैसा वल्र्ड फेम का अमेरिकन गिटारिस्ट जो भोग विलास में पूरी तरह लिप्त हो सकता था, अध्यात्म की खोज में अपने पूरे बैंड के साथ भारत आ गया। देवभूमि में के बिताए गए उन सालों में बैंड और इन चारों युवकों का खूब नाम हुआ। आज भी ये बैंड लेजेंडरी माना जाता है। देवभूमि के ऋषिकेश में बीटल्स आश्रम आज वन विभाग के क्षेत्र में है, पर आज भी एक
लोकप्रिय स्थल है। काश उत्तराखण्ड की भूमि के महत्व को यहां की सरकार समझ पाती। बीटल्स जब इस भूमि पर आए तब उनका कार्यक्रम इतना वृहद् नहीं था लेकिन ध्यान की कुछ ऐसी अलख जगी की वो यहां महीनों तक रूक गए। फिर संगीत और ध्यान के लिए कक्षाएं लगने लगी। दुख के साथ लिख रहीं हूं आज के ऋषिकेश में अध्यात्म से ज्यादा धर्म का बाजार सजा दिखता है। काश चैरासी कुटिया के इस क्षेत्र को सरकार उसी तरह विकसित करती जिस तरह बीटल्स और महर्षि ने परिकल्पना की थी।

पिछले अंक में महाअवतार बाबाजी के विषय में लिखते हुए यही कहना चाह रही थी कि क्षेत्र की सीमाएं धता हुए साधक गुरु की तलाश में देवभूमि आ ही जाते हैं और क्रिया योग और कर्म योग की जो हुंकार कुर्मांचल से उठी थी वो अपने संसार में आज भी उसी तरह प्रज्ज्वलित है। इसका प्रमाण चाहिए तो पाण्डुखोली और हैड़ाखान आश्रमों में जाकर अनुभूति करनी होगी। परम शांति में स्थित ये आश्रमों में जागृत ऊर्जा है। आंख बंद करते ही व्यक्ति ध्यान स्थित हो जाता है। ये प्रताप बाबाजी और यहां ध्यान लगाकर इन स्थानों को पवित्र बनाए रखने वाले साधकों का है। जैसा मैंने ‘द बीटल्स’ के विषय में कहा ये यात्रा एक जन्म की नहीं हो सकती। शायद कई जन्म लगते हैं और फिर अंतरात्मा आपको स्वयं इन स्थानों की तरफ ले जाती है। जैसे लाहिड़ी महाशय के समय हुआ। कहां बंगाल में पले-बढ़े लाहिड़ी महाशय कहां गूगलविहीन वो काल। इसी तरह अगर आपने बाबाजी की आत्मकथा ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ योगी’ जैसी पुस्तकों के विषय में सुना भी है तो ये अस्तित्व की तरफ से इशारा है और काल ने निर्धारित कर रखा है जिनको इस मार्ग पर चलना है वो अपने नियत समय में इन स्थानों पर पहुंच ही जाएंगे। वरना मेरे सरीखे उन सभी की जो बचपन से इन स्थानों पर जाते हैं कि चेतना जब तक नहीं जागेगी हम इनके प्रताप से अनिभिज्ञ ही रहेंगे।

कई बार जीवन हमें विषम परिस्थितियों के साथ दो-चार करता है तब जो ऊर्जा हमें हौंसला देती है और भीतर जो सकारात्मकता बनी रहती है वो पिछले जन्म का संचित साधना प्रारब्ध ही होता है। कई बार हम बहुत प्रयास करते हंै और फिर भी सकारात्मक नहीं रह पाते हैं। ये वही समय होता है जब हमें ऊर्जा केंद्रों और इनसे सम्बंधित ध्यान के विषय में जानने का प्रयास करना चाहिए। एक भी ऊर्जा केंद्र में थोड़ी भी दिक्कत होती है तो लाख कोशिश करके भी हम सहज भाव में स्थित नहीं हो पाते हैं। ध्यान के अलावा और भी कई तरीके हैं जो वेस्ट ने तक अपना लिए हैं। शरीर पंचतत्वों से बना है। जब भी मन थोड़ा विचलित हो किसी एक तत्व के आस-पास चले जाइए। चाहे अग्नि तत्व के लिए दिया जला लीजिए, जल तत्व के लिए किसी जल स्त्रोत के पास चले जाइए, वायु तत्व पृथ्वी तत्व के लिए ग्राउंडिंग कर लीजिए (हरी घास पर नंगे पैर चलना) वायु और आकाश तत्व के लिए प्राणायाम कर लीजिए। विचलित मन किसी भी एक क्रिया से सम्भल जाएगा। रेकी और प्राणिक हीलिंग का जनक भी क्रियायोग ही है। मैं पूर्ण रूप से ये दावा करती हूं कि इन छोटी-छोटी प्रैक्टिसेस से ही आप अपने अस्त-व्यस्त मन को काफी हद तक सम्भाल लेंगे और अवसाद के लिए दवाओं के फेर में नहीं पड़ेंगे। आप इंटरनेट पर तलाशेंगे तो एजेलेस, टाइमलेस, स्लीपलेस टाइटल से आपको महावतार बाबाजी और हैड़ाखान बाबाजी के विषय में कुछ-कुछ जानने को मिलेगा, परंतु ये आध्यात्मिक अध्ययन के लिए गहन विषय है इसलिए ये सामग्री केवल इंट्रोडक्टरी हो सकती है। इसके आगे का संसार अपने भीतर कई मिस्टरीज और भेद लिए है।

आज महाअवतार बाबाजी के विषय में भी अपनी कलम को पुनः गति देने का प्रयास कर रही हूं। बाबाजी के जन्म और जीवन के विषय में किसी को कुछ ज्ञात नहीं है। बस एक सत्य है कि एक अलौकिक शक्ति है जो हिमालय की कंदराओं में ध्यान मग्न है और कुछ भक्तों को समय -समय पर दर्शन देती है। इन्हीं दर्शन वाली घटनाओं में से सबसे प्रमुख या जिसके विषय में ज्ञात है, वह है लाहिड़ी महाशय को दर्शन देने की। इस घटना का वृत्तांत जिस पुस्तक में मिलता है वो है योगी कथा मृत जिसके 34वें अध्याय में इसका बहुत ही अद्भुत वर्णन किया गया है। ऐसा ही जैसे सब कुछ सामने घटित हो रहा हो। वो स्वर्ण महल भी जिसको स्वर्ग की उपाधि दी गई है।

1861 में लाहिड़ी महाशय ने कुकुछीना से पांडुखोली का पैदल रास्ता पकड़ा और रास्ते में मिली कलकल बहती गगास नदी। मेरी नानी के गांव की नदी का नाम मैंने न जाने कितनी बार सुना है लेकिन जब इसको साधकों के मुख से सुनती हूं तब लगता है भाग्य मेरे साथ बचपन से रहा, बस मैं ही अनभिग्य रही। जब आप इस स्थान पर जाएंगे तो स्मृति भवन और वो गुफा आपको दिखेगी जहां लाहिड़ी महाशय ने क्रियायोग की दीक्षा ली थी और वो स्थान भी जहां महावतार बाबाजी ने उन्हें दर्शन दिए थे।

बाबाजी ने परमहंस योगानंद जी की अमेरिका यात्रा से पूर्व बाबाजी ने उन्हें भी दर्शन दिए थे। कामाख्या मंदिर से लेकर कैलिफोर्निया के युवक को उसके फ्लैट में दर्शन देना ऐसे कई दिव्य प्रसंग बाबाजी से जुड़े हैं। स्थान और काल से परे वो ध्यान की गहराई में सहज मिलते हैं। हैड़ाखान बाबाजी भी महावतार बाबाजी ही थे। दोनों स्वरूप शिव स्वरूप ही है। काल जन्म मृत्यु से परे। केवल ध्यान और कर्म का दर्शन देते।
महावतार बाबाजी ने न जाने कितनों को स्वप्न में दर्शन दिए हैं। मैं तो ये सोचकर ही रोमांचित हो जाती हूं लाहिड़ी महाशय कैसे प्रथम बार रानीखेत से कुकुचीना पहुंचे होंगे। कैसे गफा ढूंढ ली होगी। क्या अध्यात्म का कोई अपना गूगल मैप होता है जो सटीक नेविगेट करता है।

योगदा आश्रम ने इन कहानियों को, प्रसंगों को खूब सहेज कर रखा है। संयोग भी अजीब बनते हैं। एक बार मेरे माता-पिता मुम्बई मुझसे मिलने आए और क्योंकि ग्रुप बड़ा था और बेटी के घर रहना नहीं था मैंने मरीन ड्राइव में मामा जी उनके परिवार और मम्मी पापा के लिए एक होटल बुक किया जिसका नाम बेंटली था, इस भवन का भी कुछ प्रसंग है जो पुस्तक में वर्णित है। ये मुझे वहां जाने पर पता लगा। ऐसा लगता है जीवन के हर दौर में किसी न किसी संयोग के रूप में और रानीखेत, दूनागिरी ननिहाल होने की वजह से प्रत्यक्ष रूप से बाबाजी हमेशा मेरे संग ही रहे हंै। बस भीतर की चेतना में इनके साक्षात्कार के लिए अब लालायित रहती हूं। इसी चिंतन-मंथन में पूरा दिन और कभी-कभी रात भी निकल जाती है। कभी लगता है ध्यान की शून्यता में, कभी लगता है सामाजिक सेवा के मध्य और कभी लगता है ज्ञान अर्जन मध्य ही वो मिलेंगे।

फिलहाल मैं तैयारी कर रहीं हूं जल्द ही पाण्डुखोली के अरण्यों में उन पलों को पुनः जीने की या समय से पड़े उस क्षण को जीने की जहां सब कुछ शून्य हो जाता है। बीच में हुई कुछ अनबन के चलते बीटल्स ने ऋषिकेश की आध्यात्मिक यात्रा को बीच में ही छोड़ दिया। अब इसे गलतफहमी कह सकते हैं, डिजिल्यूशन या फिर बोरियत। हालांकि महर्षि और बीटल्स के रिश्ते आखिर तक सम्भल गए थे और एक बार मीडिया के प्रश्न पूछने पर महर्षि ने कहा था- ‘एंजल्स से कौन नाराज रह सकता है। ’

खैर मेरी दृष्टि में ये भौतिक पारलौकिक विचारों का टकराव था। लेकिन जिस शांति की तलाश में बील्टस यहां आए वो उन्हें आखिरकार मिली। ड्रग से छुटकारा और क्रिएटिव मोनोटोनी में ब्रेक।

कहते ये बीटल्स ने यहां खुब संगीत रचा और रचनात्मक गुणवत्ता का भीतरी शांति से सीधा नाता है। मेरा मानना है कि बाह्य स्थान एक सीमा तक ही साथ चलते हैं, परंतु उत्तराखण्ड ऐसी सूक्ष्म दिव्य आत्माओं का स्थान भी है जिनके सानिध्य में आप कई जन्मों की यात्रा के पश्चात ही पहुंच पाते हैं।

साम्ब सदाशिव!

क्रमशः

(लेखिका रेडियों प्रजे़न्टर, एड फिल्म मेकर तथा
वत्सल सुदीप फाउंडेशन की सचिव हैं)

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