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एक शहर, दो फैसले : बनभूलपुरा पर बुलडोजर भैरव चैक पर चुप्पी

भैरव चौक पर नजूल भूमि में अवैध रूप से खड़ी की गई तीन मंजिला इमारत जिला विकास प्राधिकरण और कुमाऊं कमिश्नर के ध्वस्तीकरण आदेशों के बावजूद आज भी सुरक्षित खड़ी है। हैरानी की बात यह कि पूरी तरह अवैध इस इमारत को ध्वस्त इसलिए नहीं किया जा रहा है क्योंकि राज्य सरकार के ही उत्तराखण्ड आवास एवं नगर विकास प्राधिकरण ने अतिक्रमण कर्ताओं के पक्ष में 2023 में स्टे ऑर्डर दे डाला है और तब से मामले की कोई सुनवाई नहीं हो रही है। यह उदाहरण है कि नियम और कानून सत्ता व प्रभाव के आगे कैसे बेबस हो जाते हैं और प्रशासनिक इकबाल कैसे चुनिंदा ढील व सख्ती में विभाजित होता है। बनभूलपुरा के ध्वस्तीकरण की त्रासदी और भैरव चौक की बची हुई इमारत, दोनों प्रशासन और सरकार पर गम्भीर प्रश्न खड़े करते हैं

संजय स्वार
”राजस्व ग्राम हल्द्वानी खास (नॉन जेडए) तहसील हल्द्वानी जिला नैनीताल के राजस्व अभिलेखों का अवलोकन करने के उपरांत अवगत कराना है कि श्री ओमप्रकाश नैनवाल पुत्र स्व. ज्वालादत्त नैनवाल एवं पीताम्बर नैनवाल पुत्र नरोत्तम, भैरव चौक (पटेल चौक) हल्द्वानी नगर निगम में दर्ज भवन सं. 11/11, 11/12 की नाम भूमि दर्ज अभिलेख नहीं है।’

यह रिपोर्ट तत्कालीन राजस्व उप निरीक्षक दीपक टम्टा की है, जिससे स्पष्ट होता है कि उक्त भूमि पर नैनवाल बंधुओं का कब्जा अवैध है। इसके बावजूद भवन संख्या 11/11, 11/12 में 48ग्60 वर्ग फीट में अवैध रूप से तीन मंजिला भवन खड़ा कर लिया गया। जिला विकास प्राधिकरण के संयुक्त सचिव पंकज उपाध्याय के ध्वस्तीकरण आदेश और कुमाऊं कमिश्नर दीपक रावत की कोर्ट से याचिका खारिज होने के बावजूद इमारत आज भी खड़ी है। कुछ दुकानें किराए पर दी जा चुकी हैं, कुछ बेची जा चुकी हैं।

हल्द्वानी के दो उदाहरणों से फर्क साफ दिखता है, बनभूलपुरा में अब्दुल मलिक द्वारा नजूल भूमि पर किए गए अतिक्रमण को प्रशासन ने ध्वस्त करने का बीड़ा उठाया, जिससे हल्द्वानी के इतिहास में एक काला अध्याय जुड़ा और कई जानें गईं। वहीं, भैरव चैक (पटेल चौक) का मामला है, जहां नजूल भूमि पर बिना फ्री होल्ड, बिना नक्शा पास कराए तीन मंजिला इमारत खड़ी है, लेकिन अधिकारी मौन साधे बैठे हैं। जिला विकास प्राधिकरण और नगर निगम मूकदर्शक बने रहे। 1931-32 के दस्तावेजों में यह जमीन श्रीमती रामरखी देवी के नाम दजज़् थी, जिनके वारिस न होने से यह जमीन सरकार के कब्जे में आनी चाहिए थी।
अप्रैल 2019 में आग से क्षतिग्रस्त हुए भवन की मरम्मत ‘पूर्वानुसार’ करने की अनुमति मांगी गई, लेकिन 2020 कोरोनाकाल में पुराने दुकानदारों को भरोसे में लेकर पूरा भवन फिर से खड़ा कर दिया गया। बाद में उन दुकानदारों को दुकानों से बेदखल कर दिया गया।
अवर अभियंता की रिपोर्ट के अनुसार बिना स्वीकृति 12 दुकानें भूतल पर, 8 प्रथम तल और तृतीय तल पर होटल के कमरे बनाए गए। इसमें न केवल नक्शा पास नहीं था, बल्कि मार्ग अधिकार (राइट ऑफ वे) का भी उल्लंघन हुआ। निमाज़्णकताज़् ने खुद स्वीकारा कि 4 अगस्त 2020 को मरम्मत की अनुमति मांगी थी, पर 29 अगस्त 2022 को फ्री होल्ड के लिए आवेदन किया। सुनवाई में न तो वैध स्वामित्व और न ही नक्शा प्रस्तुत हो सका।
1 अगस्त 2023 को जिला प्राधिकरण ने ध्वस्तीकरण आदेश जारी किए जिसमें 15 दिन में स्वयं ढहाने या बलपूवज़्क ध्वस्तीकरण की चेतावनी दी गई। नैनवाल बंधु कुमाऊं कमिश्नर की अदालत गए, 8 नवम्बर 2023 को उनकी याचिका खारिज कर दी गई। कमिश्नर ने माना कि निर्माण अवैध था और फ्री होल्ड के बिना मानचित्र प्रक्रिया स्वीकार्य नहीं हो सकती। इसके बावजूद मामला उत्तराखण्ड आवास एवं नगर विकास प्राधिकरण देहरादून में पहुंचा, जहां संयुक्त मुख्य प्रशासक ने 2023 में यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया। तब से यह प्रकरण तारीखों के फेर में फंसा हुआ है। अब अगस्त 2023 के आदेश और नवम्बर 2023 के फैसले को दो साल होने को हैं। 25 सितम्बर 2024 को शासनादेश दिया गया, पर अब भी प्रश्न वही है, क्यों नहीं हुई ध्वस्तीकरण की
कार्रवाई? क्या कोई ऊपरी दबाव है? क्या अधिकारी राहत दिलाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं? सबसे बड़ा सवाल यह कि सरकारी जमीन पर बने अवैध निर्माण पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश उत्तराखण्ड आवास एवं नगर विकास प्राधिकरण ने दिया तो कैसे?
बनभूलपुरा की ध्वस्तीकरण और भैरव चौक की अडिग अवैध इमारत, दोनों मिलकर प्रशासन और सरकार की कार्यप्रणाली पर गम्भीर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं कि क्या कानून का डंडा सिर्फ कमजोरों पर ही चलता है?

अतिक्रमण का सच और सरकार के दावे

उत्तराखण्ड में अतिक्रमण आज केवल जमीन पर कब्जे का मामला नहीं रह गया है, यह एक जटिल सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक समस्या बन चुका है। राज्य की सरकारी रिपोर्टों के मुताबिक, मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल, ऊधमसिंह नगर से लेकर पवज़्तीय क्षेत्रों मसूरी, नैनीताल, चकराता, रानीखेत, बागेश्वर तक अतिक्रमण के मामले लगातार बढ़े हैं। रेलवे, वन, सिंचाई, राजस्व और नजूल भूमि पर हजारों अवैध निर्माण खड़े हैं, जिनमें झुग्गी-बस्तियों से लेकर आलीशान होटल और फार्म हाउस तक शामिल हैं।

जनवरी 2023 में हल्द्वानी के बनभूलपुरा में रेलवे भूमि पर हुए ध्वस्तीकरण अभियान ने पूरे देश का ध्यान खींचा था। कोर्ट के आदेशों के बाद प्रशासन ने सैकड़ों परिवारों को उजाड़ा, सैकड़ों घरों, दुकानों पर बुलडोजर चला, पुलिस बल तैनात हुआ और स्थानीय लोगों के विरोध प्रदशज़्न में कई घायल और मारे गए। राज्य सरकार ने इसे ‘कानून का शासन’ बताया, लेकिन मानवाधिकार संगठनों और राजनीतिक दलों ने इसे एकपक्षीय, असमान और मानवता-विरोधी कदम करार दिया।
देहरादून में चंद्रबनी, रायपुर, प्रेमनगर, नेहरू कॉलोनी जैसे क्षेत्रों में वन भूमि, सिंचाई भूमि और सरकारी रास्तों पर कब्जे की समस्या दशकों पुरानी है। सरकार ने रिंग रोड विस्तार के लिए कई बार अतिक्रमण हटाने के दावे किए, लेकिन कार्रवाई अधिकतर गरीबों की झुग्गियों और छोटे दुकानदारों पर केंद्रित रही, वहीं सहस्त्रधारा, मसूरी, धनोल्टी, चकराता जैसे पर्यटन क्षेत्रों में होटलों, रिसॉर्ट्स और फार्महाउसों का अवैध विस्तार बेशमीज़् से जारी है, जहां अक्सर कार्रवाई नोटिस तक सिमटकर रह जाती है।
हरिद्वार-ऋषिकेश में गंगा के किनारे अतिक्रमण वर्षों से चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के स्पष्ट आदेशों के बावजूद, अर्ध कुम्भ और कुम्भ के समय गंगा घाटों के सौंदर्यीकरण के नाम पर जो अभियान चलते हैं, वे आमतौर पर कमजोर और छोटे व्यापारियों तक सीमित रह जाते हैं। बड़े आश्रम, होटल, धमज़्शालाएं और धार्मिक ट्रस्ट अक्सर ‘समझौता संस्कृति’ में बच निकलते हैं।
उत्तराखण्ड सरकार ने बीते दो सालों में कई बड़े दावे किए हैं, डिजिटल रिकॉडिंज़्ग, ड्रोन सर्वे, जिला स्तर पर अतिक्रमण टास्क फोर्स, सख्त कानूनों का वादा और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की यह घोषणा कि ‘किसी भी सरकारी जमीन पर कब्जा बर्दास्त नहीं होगा, चाहे वह कितना भी बड़ा नाम क्यों न हो’। फिर भी जमीनी सच्चाई बार-बार सामने आ जाती है जहां एक ओर बनभूलपुरा जैसे इलाके खाली कराए जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ भैरव चौक जैसी जगहों पर अदालती आदेशों के बावजूद दो साल तक कार्रवाई नहीं होती। अतिक्रमण हटाने का मुद्दा अक्सर चुनावी राजनीति में भी इस्तेमाल होता है। विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल पर चुनिंदा कार्रवाई के आरोप लगाते हैं तो सरकार इसे विकास और नियमों की मजबूती के तौर पर पेश करती है। हकीकत यह है कि अतिक्रमण के पीछे केवल आम लोगों का लालच या मजबूरी नहीं, बल्कि नेताओं, अधिकारियों और भूमाफियाओं की गठजोड़ की पूरी व्यवस्था काम करती है।
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने समय-समय पर सख्त टिप्पणियां की हैं। नैनीताल हाईकोर्ट ने हल्द्वानी, काशीपुर, हरिद्वार, ऋषिकेश में नदियों, नालों, वन भूमि और सिंचाई नहरों पर कब्जे हटाने के आदेश दिए। सुप्रीम कोर्ट ने गंगा और यमुना के किनारे अतिक्रमणों को लेकर सख्ती दिखाई। लेकिन क्रियान्वयन में कमी साफ दिखती है। सामाजिक तौर पर अतिक्रमण का मुद्दा विस्थापन और पुनर्वास से भी जुड़ा हुआ है। जब सरकार कार्रवाई करती है तो गरीबों की बस्तियां उजड़ती हैं, लेकिन पुनर्वास योजनाएं कागजी रह जाती हैं। दूसरी ओर बड़े कारोबारियों और संस्थानों के अवैध कब्जे राजनीतिक दबाव या कानूनी पेंच में फंसकर टल जाते हैं।
सवाल यह है कि क्या उत्तराखण्ड सरकार अपने दावों को सभी वर्गों, सभी क्षेत्रों पर समान रूप से लागू कर पाएगी? क्या ”एक देश, एक कानून” की तजज़् पर ”एक राज्य, एक नीति” बन पाएगी? या फिर
बनभूलपुरा और भैरव चौक जैसी कहानियां आगे भी उत्तराखण्ड की प्रशासनिक और राजनीतिक सच्चाई की नंगी तस्वीर दिखाती रहेंगी?

बात अपनी-अपनी

इस प्रकार के प्रकरण में प्राधिकरण कोर्ट से हारने के बाद वादी का अधिकार है, ऊपरी कोर्ट में जाने का। विकास प्राधिकरण कोर्ट से हारने के बाद वादी को कमिश्नर कोर्ट और उत्तराखण्ड आवास एवं नगरीय विकास प्राधिकरण और फिर उच्च न्यायालय सहित ऊपरी न्यायालय तक जाने का उसका अधिकार है। उसका ये अधिकार हम तो नहीं छीन सकते।

विजयनाथ शुक्ला, सचिव, जिला विकास प्राधिकरण, नैनीताल

ये हमारे यहां न्याय प्रक्रिया के अंतर्गत लम्बित है, मेरा इस पर कोई टिप्पणी करना उचित नहीं होगा।
दिनेश प्रताप सिंह, संयुक्त प्रशासनिक अधिकारी, उत्तराखण्ड आवास एवं नगर विकास प्राधिकरण, देहरादून
जिस भवन की आप बात कर रहे हैं, वो नियम विरुद्ध बना है। इस पर ध्वस्तीकरण के आदेश हो चुके हैं। ये फ्रॉड का भी मामला है। हम इसमें शीघ्र ही फ्रॉड का मुकदमा दर्ज करवाएंगे।

दीपक रावत, कुमाऊं कमिश्नर

हम 1958 से यहां पर रह रहे थे और यहीं से अपनी आजीविका भी चलाते थे। यही हमारी आजीविका का एकमात्र साधन था। आग लगने का बहाना बनाकर इन्होंने हमसे जगह खाली करवाई तथा कहा कि इसकी मरम्मत करवानी है, मरम्मत करवाने के बाद आपकी दुकान दे दी जाएगी। लेकिन इतना बड़ा निर्माण करने के बाद भी इन्होंने हमें जगह देना उचित नहीं समझा। इस सम्बंध में हमने जिला विकास प्राधिकरण, नगर निगम, जिला अधिकारी नैनीताल, कमिश्नर कुमाऊं और मुख्यमंत्री तक को शिकायत की, लेकिन हमारी किसी ने नहीं सुनी। हमने शिकायत की कि वहां पर नजूल की भूमि पर जिस व्यक्ति द्वारा निर्माण कराया गया है, न उसने नक्शा पास कराया है और न ही वह भूमि उसकी है। जैसे टैक्स के कागज और नगर निगम के बिल उसके पास थे, वैसे हमारे पास भी थे। हमारी कई शिकायतों के बावजूद प्रशासन ने कोई एक्शन नहीं लिया। प्रशासन की नाक के नीचे निर्माण कार्य चलता रहा लेकिन प्रशासन ने उसको सील करने की जरूरत नहीं समझी। क्या ये प्रशासन की मिलीभगत के बिना सम्भव है? अवैध निर्माण और अतिक्रमण के नाम पर सरकार कार्रवाई कर रही है। ये भवन तो नजूल भूमि पर बिना नक्शा पास कराए अवैध रूप से खड़ा है लेकिन उस पर कोई कारवाई नहीं हुई जबकि खुद विकास प्राधिकरण उसे गैरकानूनी ठहराकर ध्वस्तीकरण के आदेश जारी कर चुका है।

दीपा बोरा, विनोद बिष्ट और माया जोशी

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