महाराष्ट्र में कुछ ही महीनों बाद बीएमसी चुनाव प्रस्तावित हैं। जिन्हें लेकर प्रदेश की सियासी आबोहवा तेज है, वहीं नई सियासी खिचड़ी पकती दिख रही है। गत दिनों विधानभवन में विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच दिखी मुस्कुराहटें और सौहार्द ने नई अटकलों को जन्म दे दिया है। खासकर उद्धव ठाकरे और देवेंद्र फडणवीस के बीच की हंसी-ठिठोली चर्चा का विषय बनी। विधान परिषद में दोनों नेताओं के बीच गमज़्जोशी से हुआ अभिवादन और फडणवीस की टिप्पणी कि ‘उद्धव जी को 2029 तक कुछ करना नहीं है, हम विपक्ष में नहीं जाएंगे, लेकिन आपको वापस लाने पर विचार कर सकते हैं।’ इसके बाद से राजनीतिक गलियारों में हलचल बढ़ गई है। भाजपा नेताओं के साथ उद्धव की बढ़ती सौम्यता, फडणवीस के संकेत और एकनाथ शिंदे की अलग-थलग छवि से सवाल उठने लगे हैं कि क्या भाजपा और उद्धव ठाकरे के बीच समीकरण बदल रहे हैं? क्या शिंदे की अहमियत घट रही है? विधान परिषद के फोटो सेशन में भी दिलचस्प दृश्य दिखा। ठाकरे जब पहुंचे तो फडणवीस और नावेज़्कर सम्मान में खड़े हो गए लेकिन शिंदे से कोई अभिवादन नहीं हुआ। ठाकरे ने शिंदे के पास बैठने से भी परहेज किया, जिससे राजनीतिक दूरी साफ नजर आई। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि राज्य में समीकरण बदलने के संकेत मिल रहे हैं, लेकिन तस्वीर अभी पूरी तरह साफ नहीं है। एक  बात तो तय है कि राज्य की सियासी पटकथा फिर से लिखी जा रही है।

सदानंदन के सहारे भाजपा

जब से भाजपा ने आरएसएस के वरिष्ठ नेता सी. सदानंदन को राज्यसभा भेजने का फैसला लिया है, केरल की राजनीति में हलचल तेज हो गई है। कन्नूर की राजनीतिक हिंसा में अपने दोनों पैर गंवा चुके सदानंदन की नियुक्ति को भाजपा ने सीपीएम के खिलाफ सीधी चुनौती का प्रतीक बना दिया है। अमित शाह की हालिया यात्रा के बाद भाजपा ने दावा किया कि वह 2026 के विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज कर केरल में सरकार बनाएगी। पार्टी खुद को कांग्रेस के मुकाबले सीपीएम का असली विपक्ष बताने की रणनीति पर काम कर रही है। भाजपा का कहना है कि वह डरने वाली नहीं, बल्कि लड़ने वाली पाटीज़् है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उत्तर केरल में आरएसएस कायज़्कताओज़्ं के लिए यह कदम उत्साह बढ़ाने वाला है। भाजपा यह संदेश देना चाहती है कि बलिदान करने वालों को अब राजनीतिक सम्मान भी मिलेगा। एलडीएफ और यूडीएफ ने भाजपा पर संवैधानिक संस्थाओं के भगवाकरण का आरोप लगाया है, लेकिन भाजपा अपने हिंदुत्व एजेंडे से पीछे हटती नहीं दिख रही है। हालांकि राज्य में भाजपा का जनाधार अब भी सीमित है। सीपीएम को एझावा, अनुसूचित जातियों और अल्पसंख्यकों का मजबूत समर्थन प्राप्त है। साथ ही शशि थरूर के नए धर्म निरपेक्ष मोर्चा बनाने की अटकलें भी चल रही हैं, जो भाजपा के लिए नई संभावनाएं खोल सकती हैं। अगर थरूर भाजपा से हाथ मिलाते हैं तो यह एलडीएफ और यूडीएफ दोनों के लिए बड़ा झटका हो सकता है। कुल मिलाकर, भाजपा के लिए केरल की राह मुश्किल जरूर है, लेकिन सदानंदन की नियुक्ति यह दिखाती है कि पार्टी अब आक्रामक अंदाज में मैदान में उतर चुकी है।

आखिर किधर जाएंगे मुसलमान?

बिहार विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है वैसे-वैसे राजनीतिक गलियारों में मुस्लिम वोट को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं कि आखिर मुसलमान वोटर किस दिशा में जाएगा? प्रशांत किशोर का मानना है कि मुसलमान अपनी गरीबी के लिए खुद जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने बार-बार बीजेपी के डर से राजद को वोट दिया, जिसने उन्हें विकास की जगह डर में उलझाए रखा। पीके इस बार ‘ईमान’ यानी न्याय और विकास के नाम पर वोट की अपील कर रहे हैं। तेजस्वी यादव वक्फ बोर्ड, एनआरसी और वोटर लिस्ट एसआईआर जैसे मुद्दों के जरिए ‘इस्लाम’ यानी धार्मिक पहचान को केंद्र में रखकर मुस्लिम वोटों को साधने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं असदुद्दीन ओवैसी ‘इंतकाम’ यानी सियासी बदले की रणनीति पर हैं। 2020 में उनके पांच में से चार विधायक राजद ने तोड़े थे, और अब वे महागठबंधन को समर्थन देकर ‘बीजेपी की बी टीम’ का दाग मिटाना चाहते हैं। नीतीश कुमार एनडीए में रहते हुए भी उदारवादी मुसलमानों को साधने की कोशिश में हैं, यह जताते हुए कि वे अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा कर सकते हैं। मुस्लिम वोटरों के सामने तीन विकल्प हैं ईमान, इस्लाम और इंतकाम। 2020 में महागठबंधन को 76 फीसदी मुस्लिम वोट मिले थे, लेकिन एआईएमआईएम की मौजूदगी से सीमांचल में बिखराव हुआ। अगर इस बार ओवैसी अलग लड़ते हैं तो महागठबंधन को नुकसान होगा, जबकि प्रशांत किशोर का विकास एजेंडा और नीतीश का ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ भी समीकरण बदल सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर ओवैसी, तेजस्वी और किशोर साथ नहीं आते तो मुस्लिम वोटर बिखरेगा। सीमांचल में महागठबंधन को घाटा, मिथिलांचल में एनडीए को फायदा और कई इलाकों में त्रिकोणीय मुकाबला बन सकता है। फैसला इस पर टिका है कि मुस्लिम मतदाता  रोजगार और विकास को प्राथमिकता देंगे या धार्मिक असुरक्षा और सियासी बदले की भावना उन पर हावी होगी। यह तय करेगा कि बिहार की राजनीति का रंग क्या होगा।

किसकी टेंशन बढ़ाएंगे तेज प्रताप?

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव अपने बेबाक और अनोखे अंदाज के लिए चर्चित हैं। बीते दिनों कई बार उनके बयानों और हरकतों ने खुद उनकी पार्टी को असहज किया। जिसके बाद उन्हें पार्टी ने छह साल के लिए निष्कासित कर दिया। अब चर्चा है कि अगर तेज प्रताप कोई नई पार्टी या संगठन बनाते हैं तो भाजपा-जदयू जैसे दल इसे आरजेडी के खिलाफ एक हथियार बना सकते हैं। तेज प्रताप भले ही सीटों पर सीधा नुकसान न करें, लेकिन विपक्ष यादव परिवार की एकता पर सवाल उठाकर आरजेडी की मुश्किलें बढ़ा सकता है। कुछ राजनीतिक विश्लेषक इस स्थिति की तुलना उत्तर प्रदेश की उस लड़ाई से कर रहे हैं जब 2016-17 में शिवपाल यादव ने अखिलेश के खिलाफ बगावत कर नई पार्टी बनाई थी। उस समय भाजपा को इसका फायदा मिला और समाजवादी पार्टी सत्ता से बाहर हो गई। तेज प्रताप पार्टी में अपनी भूमिका को लेकर हमेशा सक्रिय रहे हैं, लेकिन लालू ने पूरी कमान तेजस्वी को सौंप दी है। पार्टी कार्यकर्मों में विवाद और अफसरों से बदसलूकी की घटनाओं से उनकी छवि को नुकसान भी पहुंचा है। हालांकि पारिवारिक अवसरों पर तेज प्रताप भाई-बहन और पिता से संपर्क बनाए रखते हैं। ऐसे में यह कयास है कि वे खुलकर परिवार के खिलाफ नहीं जाएंगे, लेकिन अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने की कोशिश जरूर करेंगे। अगर तेज प्रताप चुनावी मैदान में उतरते हैं तो आरजेडी शायद उनके खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करने से बचती दिख सकती है।

मौर्य को मिलेगी बड़ी जिम्मेदारी!

उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को लेकर एक बार फिर राजनीतिक गलियारों में हलचल तेज हो गई है। चर्चा है कि उन्हें पार्टी संगठन में बड़ी जिम्मेदारी मिल सकती है। बीते कुछ दिनों में मौर्य ने भाजपा के तीन बड़े नेताओं से मुलाकात की है, जिससे अटकलों को और बल मिल रहा है। खासकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात के बाद उनके द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखी गई पोस्ट कि ‘2027 में 2017 दोहराएंगे’ सियासी चचाओज़्ं का केंद्र बन गई है। असल में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में भी नए प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा होनी है। भाजपा अखिलेश यादव के पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) फॉर्मूले को संगठन के स्तर पर जवाब देने की तैयारी में दिख रही है। ऐसे में यूपी बीजेपी में ओबीसी का सबसे बड़ा चेहरा माने जाने वाले केशव प्रसाद मौर्य को संगठन में अहम जिम्मेदारी मिलना तय माना जा रहा है। गौरतलब है कि बीते दिनों मौर्य ने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और राज्यपाल आनंदी बेन पटेल से मुलाकात की। इसके बाद से वह लगातार संगठन के कायज़्क्रमों में सक्रिय नजर आ रहे हैं। चर्चा प्रदेश अध्यक्ष की भी है, हालांकि मौर्या के करीबी इसे खारिज कर रहे हैं, वहीं उनका नाम राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिए भी चर्चा में है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यूपी में आगामी विधानसभा चुनाव में ओबीसी वोट बैंक निणार्यक भूमिका निभाएगा। 2017 में मौर्य की अगुवाई में बीजेपी को ऐतिहासिक जीत मिली थी और ओबीसी का बड़ा वर्ग बीजेपी के साथ था। हालांकि 2024 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी वोटरों में कुछ दूरी दिखी, जिससे पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा। ऐसे में भाजपा मौर्य को संगठन में बड़ी भूमिका देकर ओबीसी वोट बैंक को फिर से मजबूती देने की रणनीति बना सकती है। केशव प्रसाद मौर्य के साथ हुई बैठकों और लगातार सक्रियता से यह साफ है कि भाजपा यूपी में उन्हें बड़ी जिम्मेदारी देकर सियासी संतुलन साधने की कोशिश कर सकती है।

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