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ट्रम्पकाल में अमेरिका : अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए भय, भेदभाव का नया अध्याय

अमेरिका लम्बे समय से वैश्विक शिक्षा का केंद्र रहा है। लेकिन अब वही अमेरिका, विशेष रूप से ट्रम्प प्रशासन के पुनः सत्ता में आने के बाद अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए असुरक्षा, नस्लीय भेदभाव और राजनीतिक प्रतिशोध का पर्याय बनता जा रहा है। हाल की घटनाएं दर्शाती हैं कि यदि कोई छात्र अमेरिका में पढ़ते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग करता है, विशेषकर फिलिस्तीन के समर्थन में तो वह गिरफ्तारी, हिरासत और देश से निष्कासन जैसी कठोर कार्रवाई का सामना कर सकता है

महमूद खलील कोलंबिया विश्वविद्यालय के स्नातक और फिलिस्तीन समर्थक आंदोलनों में सक्रिय छात्र नेता हैं। वे छात्र प्रतिनिधियों और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। ट्रम्प प्रशासन ने उन पर ष्हमास समर्थकष् गतिविधियों में संलिप्त होने और अमेरिका विरोधी कार्यों का आरोप लगाया। मार्च 2025 में आईसीई (इमिग्रेशन एंड कस्टम्स एनफोर्समेंट) के अधिकारियों ने उन्हें न्यूयाॅर्क स्थित उनके घर से उठा लिया, जहां उनकी गर्भवती अमेरिकी पत्नी मौजूद थीं। वे इस समय लुइसियाना के डिटेंशन सेंटर में हैं और प्रशासन उन्हें ग्रीन कार्ड होने के बावजूद निर्वासित करना चाहता है।

टर्की की नागरिक और टफ्ट्स यूनिवर्सिटी में पीएचडी शोधार्थी रुमेइसा ओजतुर्क ने एक सह-लेखिका के रूप में लेख लिखा था जिसमें विश्वविद्यालय से इजराइल में निवेश समाप्त करने की अपील की गई थी। उन्हें बाॅस्टन से सादी वर्दीधारी पुलिस अधिकारियों ने अपहरण कर लुइसियाना डिटेंशन सेंटर भेज दिया। अदालत आदेश के बिना गिरफ्तारी हुई, जो एक गम्भीर वैधानिक उल्लंघन है।

भारतीय नागरिक और जाॅर्जटाउन यूनिवर्सिटी में पोस्टडाॅक्टरल

 

भारतीय स्काॅलर बदर खान सूरी

भारतीय स्काॅलर बदर खान सूरी ने तो फिलिस्तीन समर्थन में कोई गतिविधि तक नहीं की, लेकिन वे हमास के पूर्व सलाहकार अहमद यूसुफ के दामाद हैं। उन्हें टेक्सास के डिटेंशन सेंटर में रखा गया है और उनकी निर्वासन की प्रक्रिया चल रही है। ब्रिटेन और गाम्बिया के दोहरी नागरिकता वाले छात्र ताल माॅमोडू ने फिलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन में भाग लिया था। उन्हें स्वेच्छा से समर्पण करने को कहा गया। दो सप्ताह तक वे छिपते रहे और अंततः अमेरिका छोड़ने का निर्णय लिया।

नस्लीय भेदभाव और ‘ग्लोबल साउथ’ से आए छात्रों की स्थिति

इन घटनाओं से साफ है कि केवल विचार या लेखन ही नहीं, बल्कि नस्ल, राष्ट्रीयता और पारिवारिक पृष्ठभूमि भी अब ट्रम्प के अमेरिक में अंतरराष्ट्रीय छात्रों के खिलाफ कार्रवाई का आधार बन गई है। विशेषकर मुस्लिम, अरब, दक्षिण एशियाई और अफ्रीकी छात्रों को ‘संदेहास्पद’ मान लिया जाता है। हवाई अड्डों पर ‘रैंडम’ जांच, कक्षा में पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार और आमजन में नस्लीय टिप्पणियां, यह सब अमेरिकी समाज में गहराई से बैठ चुके नस्लवाद का हिस्सा है। कैम्पस में भी यह नस्लीय विभाजन अब संस्थागत रूप ले चुका है। जो छात्र अपने समुदायों की पीड़ा की आवाज बनते हैं उन्हें अमेरिका विरोधी ठहराकर प्रताड़ित किया जाता है।’

शिक्षा संस्थानों की भूमिका

ट्रम्प प्रशासन ने जिन विश्वविद्यालयों को संघीय फंडिंग रोकने की धमकी दी, उनमें कोलंबिया और हावर्ड जैसे संस्थानों ने तुरंत नीतियों में बदलाव किया :

कोलंबिया ने डाॅलर 400 मिलियन की फंडिंग बचाने के लिए अपने प्रदर्शन नीति को कठोर किया है, विभागों में प्रशासनिक हस्तक्षेप किया और फिलिस्तीन समर्थक गतिविधियों को दबाने के लिए नया सुरक्षा तंत्र लागू किया है।

हावर्ड ने मध्य-पूर्व अध्ययन केंद्र के प्रमुखों को हटाकर और फिलिस्तीनी यूनिवर्सिटी के साथ सम्बंध तोड़कर स्पष्ट कर दिया कि वे सरकार के दबाव में स्वतंत्रता का बलिदान देने को तैयार हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा

आज के अमेरिका में एक अंतरराष्ट्रीय छात्र न केवल किसी प्रदर्शन में भाग लेने, बल्कि एक लेख लिखने, सोशल मीडिया पर पोस्ट करने या किसी रिश्तेदार के अतीत से भी खतरे में पड़ सकता है। अमेरिका का शिक्षा तंत्र अब विचारों का पोषण नहीं, बल्कि शासकीय पक्षधरता की मांग करता स्पष्ट दिखाई देने लगा है।

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