सुबह होते ही खुरपी और कुदाल लेकर खेतिहर
खेतों पर काम करने चले जाते हैं
हथौड़े लेकर मजदूर निर्माण कार्य में लग जाते हैं
केतली लेकर चायवाला पानी गर्म करने लगता है तो फिर वे लोग कौन हैं
जो लोहे की राॅड लेकर मेहनतकशों की पीठ की खाल उधेड़ने के लिए घर से निकलते हैं?
-गुलजार हुसैन
एक बार फिर से देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा है, उसे सुनियोजित तरीके से बढ़ाया जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं द्वारा गत् दिनों दिए गए साम्प्रदायिक बयानों का उद्देश्य देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को तोड़ना और समाज को बांटना है। यह एक सोची-समझी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है, ताकि वास्तविक मुद्दों – जैसे गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों से जनता का ध्यान भटकाया जा सके। राजनीतिक रणनीतियां अक्सर जनता का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाने के लिए साम्प्रदायिकता का सहारा लेती हैं। किसी विचारक ने कहा है, ‘जब सच असुविधाजनक हो जाए, तो लोगों का ध्यान दूसरी दिशा में मोड़ दो।’ भारतीय राजनीति में यह प्रवृत्ति बार-बार देखी जाती है, जहां बेरोजगारी, गरीबी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर सवाल उठाने की जगह धर्म और जाति के आधार पर लोगों को भड़काया जाता रहा है। महात्मा गांधी साम्प्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे। उनका मानना था कि ‘धर्म मनुष्य का निजी मामला है। इसे राजनीति के साथ मिलाना एक घातक त्रुटि है।’ गांधीजी का यह कथन स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि साम्प्रदायिकता का राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। उनका मानना था कि भारत की शक्ति उसकी एकता और आपसी भाईचारे में निहित है, न कि विभाजनकारी नीतियों में। 1947 में देश के विभाजन के बाद साम्प्रदायिकता की लपटें तेज हुईं। नोआखाली, पंजाब और बंगाल जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हिंसा देखी गई। 1961 में जबलपुर में हुए दंगे, 1969 में गुजरात के अहमदाबाद में हुए सांप्रदायिक दंगों ने देश को हिलाकर रख दिया था। 1984 में सिख विरोधी दंगे, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़क उठे, जिसमें हजारों सिखों की निर्मम हत्या की गई। ये घटनाएं इस बात का प्रमाण थीं कि कैसे धर्म और राजनीति का मिश्रण विनाशकारी हो सकता है। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देशभर में सांप्रदायिक हिंसा की आग भड़क उठी। मुम्बई, कानपुर, भोपाल और दिल्ली में बड़े पैमाने पर दंगे हुए। इन दंगों में हजारों लोगों की जानें गईं और अनगिनत लोग बेघर हुए। साम्प्रदायिकता की यह आग समय-समय पर फिर से भड़कती रही। 2002 में गोधरा कांड एक ऐसा काला अध्याय है, जिसने गुजरात को हिंसा की आग में झोंक दिया। ट्रेन के एक डिब्बे में आग लगने से 59 कारसेवकों की मृत्यु हो गई, जिसके बाद गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगे भड़क उठे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इन दंगों में लगभग 1000 लोग मारे गए, लेकिन स्वतंत्र सूत्रों का मानना है कि यह संख्या कहीं अधिक थी। पूरे विश्व में इन दंगों की आलोचना हुई, लेकिन राजनीतिक लाभ लेने के उद्देश्य से इसे साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई। इसके बाद 2013 में मुजफ्फरनगर में दंगे हुए, जिसमें हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच टकराव देखने को मिला। इन दंगों में लगभग 62 लोग मारे गए और 50,000 से अधिक लोग बेघर हो गए। न्यायिक जांच के बाद भी पीड़ितों को न्याय नहीं मिला और दोषी खुलेआम घूमते रहे। दिल्ली में 2020 में हुए दंगे भी इसी कड़ी का एक हिस्सा थे। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध के दौरान उत्तर-पूर्वी दिल्ली में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़की। इस दंगे में 53 लोग मारे गए, जिनमें अधिकांश मुस्लिम समुदाय से थे। मस्जिदों को जलाया गया, दुकानों को लूटा गया और लोगों को खुलेआम मारा गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को धक्का पहुंचा और मानवाधिकार संगठनों ने इसकी कड़ी निंदा की। देशभर में मुसलमानों को धीरे-धीरे निशाने पर लिया जाने लगा। ‘लव-जिहाद’, ‘गौ-रक्षा’ और ‘नागरिकता’ जैसे मुद्दों को उछालकर एक खास वर्ग को टारगेट किया जा रहा है। गौरक्षा के नाम पर मुस्लिम व्यापारियों की हत्या, मुस्लिम महिलाओं को सार्वजनिक रूप से प्रताड़ित करना और उनके धार्मिक स्थलों को निशाना बनाना एक आम चलन अब बन गया है। यह सब केवल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने और वोट बैंक की राजनीति को मजबूत करने का एक हिस्सा प्रतीत होता है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट्स में बार-बार यह बात उठी है कि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिम समुदाय को व्यवस्थित तरीके से निशाना बनाया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यूरोपियन यूनियन और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन ने इस स्थिति पर चिंता जताई है। भारत सरकार इसे आंतरिक मामला कहकर खारिज करती है लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव अब भी बना हुआ है। साम्प्रदायिकता भारतीय लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर एक बड़ा आघात है। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा जो संविधान की नींव हैं, साम्प्रदायिकता के चलते कमजोर होते जा रहे हैं। संवैधानिक संरक्षण होते हुए भी अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमले और हिंसा यह दर्शाते हैं कि राजनीतिक संरक्षण के चलते अपराधियों पर कार्रवाई नहीं होती। शिक्षा और रोजगार पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है। साम्प्रदायिकता के कारण शिक्षण संस्थानों में भेदभाव बढ़ा है और रोजगार के अवसरों में भी असमानता देखने को मिलती है। सरकार द्वारा चलाई जाने वाली योजनाओं का लाभ भी कई बार साम्प्रदायिक आधार पर बंटा हुआ दिखता है।
पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद पूरी कश्मीर घाटी आतंकियों और उसके शरणदाता देश पाकिस्तान के खिलाफ पहली बार भारत के साथ खड़ी नजर आई। ऐसा पहले कभी देखने को नहीं मिला है। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में एक सुर में इस हमले की भत्र्सना की गई। श्रीनगर का लाल चौक और वहां के जामा मस्जिद इलाके में मुस्लिम समाज के लोगों ने पाकिस्तान के खिलाफ प्रदर्शन किया। भले ही मोदी के अंधविरोधियों को मेरी बात बुरी लगे, सच यही है कि मोदी सरकार को ही इस बदलाव का क्रेडिट जाता है। लेकिन इस बात का अपयश भी मोदी और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की उन नीतियों को जाता है जिनको वे संरक्षण देते आए हैं कि मध्य प्रदेश के एक मंदबुद्धि मंत्री ने भारतीय सेना की अफसर सोफिया कुरैशी को ही निशाने पर रखने का दुस्साहस कर दिखाया। जन जातीय कल्याण मंत्री विजय शाह का कर्नल सोफिया कुरैशी को ‘आतंकवादियों की बहन’ कह पुकारना भाजपा नेताओं की उस मानसिकता का परिचायक है जो धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सौहार्द के संविधान प्रदत्त मूल्यों को तिरस्कार के भाव से देखने की आदि है। इस मंदबुद्धि नेता पर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने का आदेश दे थोड़ी राहत मुझ सरीखे लाखों-करोड़ों उन भारतीयों को जरूर पहुंचाई है जो हर रोज दम तोड़ रही सामाजिक व्यवस्था से चिंतित रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी मंत्री के बयान को ‘गटर की भाषा’ करार दे इस उम्मीद को जिंदा रखा है कि ऐसी गटर की भाषा बोलने वालों पर नियंत्रण रखने वाली व्यवस्था जिंदा है। हालांकि यह भी सच है कि ऐसों पर मुकदमे अवश्य दर्ज होते हैं लेकिन ये दंडित कभी नहीं होते। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, कपिल मिश्रा, साध्वी ऋतंभरा आदि इसके उदाहरण हैं।
साम्प्रदायिकता का उपयोग राजनीति में एक हथियार की तरह होता है। जब असली मुद्दों पर जवाब देने में कठिनाई होती है, तब धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण कर जनता का ध्यान भटकाया जाता है। अगर इसे रोका नहीं गया तो भारतीय लोकतंत्र की नींव कमजोर होती जाएगी और असमानता की खाई और गहरी होती जाएगी।