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उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज-19/झूला देवी मंदिर: एक नास्तिक की अंतर्यात्रा

उत्तराखण्ड एक आध्यात्मिक खोज-19

बचपन में मंदिरों में जाने की जो आदत और भय मेरे मन में बैठा था, वह कहीं न कहीं मुझे हर मंदिर के आगे शीश झुकाने को बाध्य करता रहता है। रानीखेत स्थित झूला देवी मंदिर उन्हीं मंदिरों में से एक है। मां झूला देवी के प्रांगण में घंटियों की मधुर ध्वनि और माता की झूले पर विराजमान प्रतिमा मुझे आंतरिक सुकून का एहसास कराती है। नास्तिक होते हुए भी मैं जब भी वहां जाता हूं, एक अजीब-सी शांति और अपनापन अनुभव करता हूं, मानो किसी अदृश्य शक्ति ने मुझे अपने आंचल में समेट लिया हो। शायद यह मेरी स्मृति की यात्रा है या शायद वह अनकहा सम्बंध जो पिता की आस्था के माध्यम से इस मंदिर से बन गया है। झूला देवी मंदिर मेरे लिए केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि बचपन की स्मृतियों, एक पिता की भक्ति और मेरी खोई हुई आस्था की पुनप्र्राप्ति का प्रतीक है। उत्तराखण्ड की यह आध्यात्मिक भूमि मेरे जैसे कई व्यक्तियों के भीतर भक्ति और जिज्ञासा के उस द्वंद्व को सुलझाने का माध्यम बनती है जो आस्था- अनास्था के मध्य फंसे रहते हैं

उत्तराखण्ड, जिसे ‘देवभूमि’ कहा जाता है, न केवल प्राकृतिक सौंदर्य का अनुपम उदाहरण है, बल्कि यह भारतीय उपमहाद्वीप की धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना का आधार स्तम्भ भी है। हिमालय की गोद में बसा यह प्रदेश अनेकों ऋषियों-मुनियों की तपस्थली रहा है और इसकी घाटियां, नदियां, वनों और पर्वतों में आज भी दिव्यता की अनुभूति होती है। यही वह भूमि है जहां चारधाम यात्रा की शुरुआत होती है, और यही वह भूमि है जहां मंदिर केवल पत्थरों के ढांचे नहीं, बल्कि श्रद्धा, विश्वास और स्मृति के जीवंत प्रतीक होते हैं। ऐसी ही एक जगह है मेरी जन्म स्थली रानीखेत स्थित झूला देवी मंदिर।

समुद्र तल से लगभग 1829 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर रानीखेत से लगभग सात किलोमीटर दूर है और पूरे क्षेत्र के लिए यह एक आध्यात्मिक आशीर्वाद के समान है। मंदिर देवी दुर्गा को समर्पित है और इसे ‘झूला देवी’ कहा जाता है क्योंकि यहां देवी की प्रतिमा एक झूले (पालने) पर विराजमान है। स्थानीय लोक-कथाओं के अनुसार यह मंदिर लगभग 700 वर्ष पुराना है। कभी यह पूरा क्षेत्र तेंदुए और बाघों के आतंक से त्रस्त था। ग्रामवासियों ने रक्षा की कामना से मां दुर्गा की तपस्या की। एक दिन एक चरवाहे को स्वप्न में मां ने दर्शन दिए और एक निश्चित स्थान पर खुदाई करने को कहा। अगली सुबह जब उस स्थान की खुदाई की गई, तो वहां मां की प्रतिमा प्राप्त हुई। उसी स्थान पर मंदिर का निर्माण हुआ और मां की मूर्ति को स्थापित किया गया। कहा जाता है कि प्रतिमा स्थापना के बाद जंगली जानवरों का आतंक धीरे-धीरे समाप्त हो गया। कुछ समय बाद सावन के महीने में छोटे बच्चों को झूला झूलते देखकर माता ने उसी चरवाहे को स्वप्न में फिर से दर्शन दिए और इच्छा जताई कि उन्हें भी झूले पर बैठाया जाए। अगले ही दिन मां को मंदिर में झूले पर स्थापित कर दिया गया और तभी से यह मंदिर ‘झूला देवी मंदिर’ कहलाया।

घंटियों की दिव्यता और भक्तों की आस्था

इस मंदिर की एक अनूठी परम्परा है – जब किसी भक्त की मन्नत पूरी होती है तो वह यहां तांबे की घंटी चढ़ाता है। मंदिर परिसर में लटकी लाखों घंटियां इस बात की साक्षी हैं कि यहां हर भाव सच्चा होता है और हर प्रार्थना कहीं न कहीं सुनी जाती है। घंटियों की वह गूंज, हिमालयी हवा के साथ जब मिलती है तो एक अलौकिक संगीत जन्म लेता है।1935 में इस मंदिर को नया रूप दिया गया और परिसर का पुनर्निर्माण किया गया। आज यह न केवल उत्तराखण्ड, बल्कि पूरे भारत के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थल बन चुका है। नवरात्रि के अवसर पर यहां आस्था का महाकुम्भ लगता है। विदेशी पर्यटक भी इस मंदिर की दिव्यता से प्रभावित होकर यहां नियमित रूप से आते हैं।

बचपन की आस्था और मेरी नास्तिकता की यात्रा

मैं बचपन से ही नास्तिक प्रवृत्ति का रहा हूं, परंतु मेरे घर का वातावरण पूर्णतः आस्तिकता से ओत-प्रोत था। मेरे पिता स्वर्गीय जगदीश चंद्र जोशी, जो केंद्र सरकार के अंतर्गत भारतीय रक्षा लेखा नियंत्रक (Controller Of Defence Accounts) में वरिष्ठ आॅडिटर थे, वे शिव के परम भक्त थे। उनकी आस्था शिव में इतनी प्रगाढ़ थी कि उनके दिन का आरम्भ और अंत शिव आराधना के बिना सम्भव नहीं था। रानीखेत के लोग उन्हें ज्योतिष के अद्भुत ज्ञान के कारण भी बहुत मानते थे। लेकिन एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन, 3 जनवरी 1980 को, जब देश में आम चुनाव हो रहे थे और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस दोबारा सत्ता में लौट रही थी, पापा मां के साथ मतदान केंद्र गए। वहीं पर उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा। घर लौटते-लौटते उनकी हालत और गम्भीर होती चली गई और वे हमें छोड़कर इस संसार से चले गए। उस दिन की स्मृतियां आज भी मेरे मन में जीवित हैं।

 

आस्था, असमंजस और पार्थी पूजा

पिता के जाने के बाद मेरा विश्वास भगवान में डगमगाने लगा। मुझे आज भी याद है, हमारे घर में ‘पार्थी पूजा’ हुआ करती थी। यह पूजा पारम्परिक हिंदू लोक मान्यता पर आधारित होती है जिसमें मिट्टी, आटा, गोबर या धातु से प्रतीकात्मक रूप से देवी-देवताओं या उनके वाहनों की मूर्तियां बनाई जाती हैं। ‘पार्थी’ शब्द संस्कृत के ‘पार्थिव’ यानी ‘मिट्टी से बना हुआ’ से लिया गया है। हमारे घर में विशेष रूप से नंदी बैल का रूप बनाया जाता था जो भगवान शिव के वाहन और प्रथम भक्त माने जाते हैं। मान्यता है कि इन प्रतीकों की पूजा करने से संकट टलते हैं और मनोकामना पूर्ण होती है। पूजा के बाद इन मूर्तियों को विधिपूर्वक किसी नदी या जल स्रोत में विसर्जित कर दिया जाता है।

मैंने अपने घर में एक छोटा सा मंदिर बनाया था जिसमें नंदी बैल की मूर्ति स्थापित थी। जब पापा मरणासन्न स्थिति में घर लौटे, किसी ने मुझसे कहा कि उनके तलवे सहलाओ। घबराया हुआ मैं उनके तलवे सहला रहा था। मुझे न जाने क्यों लगा कि अगर मैं नंदी बैल की मूर्ति को उनके पैरों पर रगड़ूं तो शायद चमत्कार हो जाए। मैंने वैसा ही किया शिव को याद करते हुए और हनुमान चालीसा का जाप करते हुए, परंतु कुछ भी नहीं बदला।

उस क्षण से मेरा भगवान से विश्वास धीरे-धीरे समाप्त होने लगा। मुझे लगा जैसे मेरी प्रार्थनाएं और मेरा विश्वास व्यर्थ था। शायद इसी कारण मैं नास्तिकता की ओर बढ़ता चला गया। फिर भी, बचपन में मंदिरों में जाने की जो आदत और भय मेरे मन में बैठा था, वह कहीं न कहीं मुझे हर मंदिर के आगे शीश झुकाने को बाध्य करता रहता है। रानीखेत स्थित झूला देवी मंदिर उन्हीं मंदिरों में से एक था। मां झूला देवी के प्रांगण में घंटियों की मधुर ध्वनि और माता की झूले पर विराजमान प्रतिमा मुझे आंतरिक सुकून का एहसास कराती है। नास्तिक होते हुए भी मैं जब भी वहां जाता हूं, एक अजीब-सी शांति और अपनापन अनुभव करता हूं, मानो किसी अदृश्य शक्ति ने मुझे अपने आंचल में समेट लिया हो। शायद यह मेरी स्मृति की यात्रा है, या शायद वह अनकहा सम्बंध जो पिता की आस्था के माध्यम से इस मंदिर से बन गया है।

झूला देवी मंदिर मेरे लिए केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि बचपन की स्मृतियों, एक पिता की भक्ति और मेरी खोई हुई आस्था की पुनप्र्राप्ति का प्रतीक है। उत्तराखण्ड की यह आध्यात्मिक भूमि मेरे जैसे कई व्यक्तियों के भीतर भक्ति और जिज्ञासा के उस द्वंद्व को सुलझाने का माध्यम बनती है जो कभी केवल तर्क में उलझ गए थे।

यह मंदिर और इसकी झूला पर विराजमान देवी, मुझे याद दिलाती हैं कि भक्ति केवल आडम्बर नहीं, बल्कि स्मृति और अनुभव से जन्मी एक अंतर्यात्रा भी है जो देवभूमि उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी शक्ति है।

अमेरिकी लेखक और पाॅडकास्ट होस्ट चेरिल स्ट्रेड (Cheryl Strayed) के एक कथन से मैं खुद को जोड़ पाता हूं। आस्था और अनास्था के मध्य कशमकश मेरे भीतर लगातार चलती रहती है। ऐसे में चेरिल का कथन कि “I was a terrible believer in things, but I was also a terrible nonbliever in things. I was as searching as I was skeptical. I did’nt know where to put my faith, or if there was such a place, or even what the word faith means, in all of its complexity. Everything seemed to be possibly potent and possibily fake” (मैं चीजों में बहुत ज्यादा विश्वास करती थी लेकिन मैं बहुत ज्यादा अविश्वासी भी थी। मैं जितना संदेहशील थी, उतनी ही खोजी प्रवृत्ति की भी थी। मुझे नहीं पता था कि मुझे किस पर कितना विश्वास करना है। यहां तक कि मुझे विश्वास शब्द का अर्थ है या फिर ऐसा कुछ है भी या नहीं, इस पर भी स्पष्टता नहीं थी। सब कुछ सम्भव शक्तिशाली और सम्भवतः नकली लगता था।) मेरा हाल भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। फिर भी जीवन यात्रा के अनुभवों ने मुझे यह तो समझ दी है कि बहुत कुछ ऐसा है जिसे तर्क के आधार पर, वैज्ञानिक आधार पर केवल महसूसा जा सकता है। झूला देवी मंदिर ऐसा ही एक स्थान है जहां आप अपनी आंतरिक यात्रा के जरिए वह सब कुछ पा सकते हैं जिसकी आपको तलाश है।

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