कर्नाटक की राजनीति में एक बार फिर सुगबुगाहट ने सस्पेंस बढ़ा दिया है। इस सस्पेंस के पीछे है मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का दावा कि हाईकमान की ओर से उन्हें उनके भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहा गया है और लीडरशिप में बदलाव को लेकर अब तक कोई बात सामने नहीं आई है। हालांकि उन्होंने कैबिनेट फेरबदल की पुष्टि की है जिससे कयास लगाए जा रहे हैं कि कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन हो सकता है। अब सिद्धारमैया और डी.के. शिवकुमार की आगामी दिल्ली यात्राओं पर सबकी निगाहें टिकी हैं कि क्या कांग्रेस हाईकमान कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का बड़ा फैसला लेगा। सिद्धारमैया के बयान से साफ हो गया है कि कर्नाटक कांग्रेस में लाॅबिंग जोरों पर है। डी.के. शिवकुमार का कद बढ़ने के भी कयास लगाए जा रहे हैं क्योंकि उनके समर्थकों का दावा है कि सरकार बनने पर ढाई साल के मुख्यमंत्रित्वकाल पर बात हुई थी और अब सिद्धारमैया को हटाकर डी.के. को कमान देनी चाहिए। सिद्धारमैया 15 नम्वबर को दिल्ली आने वाले हैं और राज्य सरकार में मंत्री सतीश जारकीहोली भी दिल्ली जा रहे हैं। देखना होगा कि कर्नाटक में नवम्बर महीने के अंत तक क्या होता है। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि सिद्धारमैया का यह बयान न सिर्फ सस्पेंस बढ़ा गया, बल्कि डी.के. शिवकुमार के समर्थकों को भी नई उम्मीद दे गया है। अगर नवम्बर के अंत तक नेतृत्व परिवर्तन होता है तो यह न सिर्फ कर्नाटक कांग्रेस की दिशा तय करेगा, बल्कि 2028 के विधानसभा चुनावों के लिए राज्य की राजनीति का चेहरा भी बदल सकता है। गौरतलब है कि डी.के. शिवकुमार और उनके समर्थकों का ढाई साल के सीएम कार्यकाल का दावा और सिद्धारमैया के बेटे का राजनीतिक करियर के आखिरी पड़ाव वाला बयान नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों को मजबूती दे रहा है। सतीश जारकीहोली जैसे अन्य नेताओं को आगे करने की रणनीति से स्पष्ट है कि कांग्रेस हाईकमान इस मुद्दे को संभालने के लिए सतर्क है। नवम्बर के अंत तक कर्नाटक की राजनीति में बड़ा फैसला होने की सम्भावना है जो कांग्रेस के भविष्य की दिशा तय करेगा।
शिष्टाचार भेंट या सियासी संकेत?
राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हाल में हुई मुलाकात में दोनों के बीच मंत्रिमंडल फेरबदल, राजनीतिक नियुक्तियां और संगठनात्मक संतुलन जैसे मुद्दों पर विस्तृत बातचीत हुई। इसके बाद से प्रदेश की राजनीति में सवाल उठ रहे हैं कि क्या राजस्थान में भी गुजरात की तरह सरकार का पूरा परिदृश्य बदलने वाला है? क्या यह शिष्टाचार भेंट थी या सियासी संकेत है? राजनीतिक पंडित मानते हैं कि भले ही राजस्थान सरकार को अभी करीब पौने दो साल ही हुए हों, लेकिन मंत्रिमंडल बदलाव और नई नियुक्तियों की अटकलें लगातार चल रही हैं। यह मुलाकात न केवल राजस्थान की सत्ता संरचना में सम्भावित बदलाव की प्रस्तावना हो सकती है, बल्कि गुजरात में जिस प्रकार हाल ही में भाजपा ने अपने पूरे मंत्रिमंडल को बदल दिया था ठीक वैसे ही राजस्थान में बड़ा फेरबदल तय है। कुछ मंत्रियों के प्रदर्शन की समीक्षा भी चल रही है और यह भी सम्भव है कि कुछ नए चेहरे मंत्रिमंडल में शामिल किए जाएं। गौरतलब है कि राज्य में अभी भी कई निगम, बोर्ड और आयोग खाली हैं,जहां राजनीतिक नियुक्तियां नहीं हो सकी हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि सीएम भजनलाल शर्मा ने प्रधानमंत्री मोदी के सामने प्रदेश नेतृत्व और कार्यप्रणाली की रिपोर्ट के साथ सरकार और संगठन के कामकाज का फीडबैक पेश किया है। लेकिन अगर भाजपा राजस्थान में गुजरात जैसी रणनीति अपनाती है तो 2028 विधानसभा चुनावों में सत्ता विरोधी लहर से पहले ही रणनीतिक बढ़त हासिल करने में कामयाब हो सकती है ।
असंतोष का संकेत या राजनीतिक संदेश?
महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर सियासी तापमान बढ़ गया है। डिप्टी सीएम अजित पवार के बेटे पार्थ पवार के पुणे जमीन घोटाले में घिरने के बाद जहां राज्य की राजनीति गर्म है, वहीं पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्य के मंत्री माणिकराव कोकाटे के बयान ने महायुति गठबंधन में हड़कंप मचा दिया है। कोकाटे ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि राजनीति पांच साल के लिए होती है, उसके बाद लोग, पार्टी और विचार बदल जाते हैं क्योंकि बदलाव प्रकृति का नियम है। मंत्री माणिकराव का यह बयान ऐसे समय आया है जब अजित पवार गुट की एनसीपी पुणे लैंड डील विवाद को लेकर बैकफुट पर है। खास बात यह कि नंदुरबार जिले में हुए जिस कार्यक्रम में कोकाटे ने यह बात कही उसमें भाजपा के विधायक डाॅ. विजयकुमार गावित और राजेश पाडवी भी मौजूद थे। इसी कारण कोकाटे के बयान को और भी राजनीतिक महत्व मिल गया है। उनके इस बयान ने सियासी गलियारों में कई तरह के कयासों को जन्म दे दिया है। सवाल उठ रहा है कि कोकाटे का यह बयान राजनीतिक संदेश है या असंतोष का संकेत? राजनीतिक पंडितों का कहना है कि कोकाटे का यह बयान महायुति के भीतर राजनीतिक स्थिरता को लेकर नए सवाल खड़े कर रहा है। जहां एक ओर अजित पवार गुट पहले से ही दबाव में है वहीं अब कोकाटे के शब्दों ने गठबंधन के समीकरणों को और जटिल बना दिया है। बहरहाल मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस डील की जांच की जिम्मेदारी आईएएस अधिकारी विकास खरगे को सौंपी है। ऐसे में कोकाटे का यह बयान एनसीपी गुट के भीतर असंतोष या असुरक्षा का संकेत माना जा रहा है। गौरतलब है कि माणिकराव कोकाटे पहले राज्य के कृषि मंत्री थे, लेकिन संसद भवन में रमी खेलते हुए वीडियो वायरल होने के बाद उन्हें कृषि विभाग से हटाकर खेल और युवा कल्याण मंत्रालय का कार्यभार दिया गया था। उनके स्थान पर कृषि विभाग की जिम्मेदारी दत्तात्रय भरणे को सौंपी गई। कोकाटे नासिक जिले से आते हैं और एनसीपी के दिग्गज नेताओं में गिने जाते हैं। वे पिछले साल लगातार पांचवीं बार विधायक चुने गए थे और नासिक ग्रामीण क्षेत्र में उनका मजबूत जनाधार है।
राष्ट्रीय पहचान की ओर अखिलेश
बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार अभियान समाप्त करने के बाद समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उड़ीसा के नौपाड़ा विधानसभा उपचुनाव में सपा प्रत्याशी रमाकांत हाती के समर्थन में जनसभा को सम्बोधित कर न केवल स्थानीय राजनीति में सपा की मौजूदगी दर्ज कराने के बाद उनके इस दौरे के पीछे छुप कर कई राजनीतिक मायने निकले जा रहे हैं। सवाल है कि उड़ीसा में अखिलेश यादव की सक्रियता के पीछे क्या राजनीतिक रणनीति है? क्या अखिलेश पार्टी को राष्ट्रीय पहचान दिलाने की ओर अग्रसर हैं? राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अखिलेश ने अपनी पार्टी के राष्ट्रीय विस्तार के इरादे भी स्पष्ट कर दिए हैं। उनका उड़ीसा दौरा केवल एक उपचुनाव तक सीमित नहीं है। बीते कुछ वर्षों में वे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तराखण्ड जैसे राज्यों के लगातार दौरे कर चुके हैं। उनका मकसद सपा को उत्तर प्रदेश की सीमाओं से बाहर निकालकर राष्ट्रीय पहचान दिलाना है। अखिलेश का लक्ष्य है कि सपा को उत्तर प्रदेश केंद्रित पार्टी के बजाय सर्वभारतीय राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित करना है। इस दिशा में उनका पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक गठजोड़ का नारा भी राष्ट्रीय स्तर पर गूंज रहा है। समाजवादी पार्टी लगातार यह प्रयास कर रही है कि उसे केवल उत्तर प्रदेश की पार्टी के रूप में न देखा जाए। अखिलेश का उड़ीसा दौरा स्पष्ट संकेत देता है कि सपा अब राष्ट्रीय विस्तार की राजनीति में उतर चुकी है। पार्टी का मानना है कि जब अन्य राज्यों में पार्टी ढांचा मजबूत होगा तभी सपा खुद को एक राष्ट्रीय राजनीतिक विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर पाएगी। अखिलेश यादव के ये दौरें केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि दूरगामी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हैं। उड़ीसा जैसे राज्य में साइकिल की रफ्तार तेज करने की कोशिश में अखिलेश न केवल भाजपा को चुनौती देना चाहते हैं, बल्कि सपा को एक राष्ट्रीय शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित करने की दिशा में भी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव 2024 में उत्तर प्रदेश में सपा का वोट प्रतिशत बढ़ा है। पार्टी इस बढ़त को दूसरे राज्यों में विस्तार के रूप में भुनाना चाहती है। यदि सपा अन्य राज्यों में मजबूत संगठन खड़ा कर लेती है तो वह राज्य स्तरीय पार्टी से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने की दिशा में बड़ा कदम बढ़ा सकती है।

